फिदेल कास्त्रो : आत्मनिर्भर संप्रभु राष्ट्रवाद बनाम नव-राष्ट्रवाद

फिदेल कास्त्रो : आत्मनिर्भर संप्रभु राष्ट्रवाद बनाम नव-राष्ट्रवाद

फिदेल कास्त्रो (फाइल फोटो)

बीसवीं सदी के महानायकों में एक फिदेल कास्त्रो को एक मायने में विवादास्पद कहा जा सकता है. वे दुनियाभर के वामपंथी विचारों के लोगों के लिए महान क्रांतिकारी और अमेरिकी पूंजीवादी साम्राज्यवाद से लडऩे वाले विरले योद्धा थे. इसके विपरीत दक्षिणपंथी और पूंजीवाद के समर्थकों के लिए वे क्रूर तानाशाह थे, जिन्होंने अपने देश के लोगों को ‘अमीरी, पर्यटन और तफरीह’ वगैरह से दूर रखा, लेकिन इस पर शायद ही कोई विवाद हो कि उन्होंने 1959 के बाद से क्यूबा को एक संप्रभु आत्मनिर्भर देश के रूप में स्थापित किया और दुनिया के नक्शे में एक अहम स्थान दिलाया.

अमेरिका से महज 90 मील दूर कुछ टापुओं के देश में कास्त्रो अमेरिकी महाशक्ति के खिलाफ डटे रहे. इसी वजह से उन्हें सोवियत संघ के पतन के पहले शीत युद्ध के लंबे दौर के लिए भी एक अहम कारक माना जाता रहा है. उनकी हत्या और क्यूबा में बगावत को हवा देने के लिए अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने सैकड़ों अभियान चलाए मगर उन्होंने हर कोशिश को नाकाम कर दिया.
 
लेकिन सोवियत संघ के पतन के बाद एक ध्रुवीय दुनिया में खासकर भूमंडलीकरण के विरोध में उनकी भूमिका और अहम रही है. 90 के दशक के बाद उन्होंने अपने देश का जिस तरह कायाकल्प किया, वह आत्मनिर्भर संप्रभु राष्ट्रवाद का अनोखा उदाहरण है. भूमंडलीकरण और वित्तीय पूंजीवाद तथा विदेशी पूंजी निवेश को ‘विकल्पहीन’ बताने वाले दौर में उन्होंने कारगर विकल्प पेश करके दिखाया.
 
शीत युद्ध के दौर में क्यूबा बहुत कुछ जरूरी आपूर्ति के लिए सोवियत संघ पर निर्भर था, लेकिन सोवियत संघ के बिखरने के बाद अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण अनाज, दवाइयों और पेट्रोलियम पदार्थों का आयात क्यूबा के लिए भारी पडऩे लगा. कास्त्रो ने इन सब मामलों में आत्मनिर्भर बनने का फैसला किया. पेट्रोलियम पदार्थों का आयात न्यूनतम करने के लिए उन्होंने देश में आवागमन के लिए साइकिलों के इस्तेमाल पर जोर दिया. इसमें उन्हें चीन से खासी मदद मिली, जो तब तक साम्यवादी दौर से नव-पूंजीवाद की ओर बहुत आगे नहीं बढ़ पाया था. वहां से कास्त्रो ने बड़े पैमाने पर साइकिलें मंगवाईं. वे खुद और उनके मंत्री साइकिलों पर चलने लगे.

इसी तरह अनाज के उत्पादन के लिए उन्होंने देश में फसल की पुरानी विधियों पर जोर दिया. साइकिल से खेतों तक सरकारी मदद पहुंचानी शुरू की. सैकड़ों की तादाद में देसी कृषि वैज्ञानिक बेहतर उपज के तरीके इजाद करने में लगाए गए. इसी तरह शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में साइकिल पर सवार शिक्षकों-डॉक्टरों की फौज तैयार की गई. इलाज के देसी तरीकों को नए सिरे से तलाशा गया. छोटी-बड़ी सस्ती दवाइयों का उत्पादन शुरू किया गया.
 
इससे एक दशक में क्यूबा की तस्वीर बदल गई. वह अनाज, दवाइयों के मामले में आत्मनिर्भर हो गया. अब तो वह अनाज और दवाइयों का निर्यात करने की स्थिति में पहुंच गया है. कई लैटिन अमेरिकी देशों में निर्यात किया भी जा रहा है. इलाज के मामले में स्थिति यह है कि अब अमेरिका के लोग भी वहां अत्याधुनिक चिकित्सा सेवाओं का लाभ लेना चाहते हैं. वहां शत-प्रतिशत शिक्षा, इलाज सबको सुलभ है. बेरोजगारी नहीं के बराबर है.

हालांकि अब 2006 से गद्दी संभाल रहे उनके भाई रउलकास्त्रो ने कुछ क्षेत्रों में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों की शुरुआत की है और बाजार को भी आगे बढऩे की इजाजत दी है. इससे फिदेल कास्त्रो कई बार नाखुशी जाहिर कर चुके थे. ऐसी ही नाखुशी वे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की दो साल पहले नई सुलह संधि पर जाहिर कर चुके थे.

कास्त्रो ने तब कहा था, ओबामा तरीके बदल रहे हैं, उन्हें मकसद बदलना चाहिए. हम अपने देश को पनामा या ग्वाटेमाला नहीं बनने दे सकते. कास्त्रो की बातें अब सही साबित हो रही हैं. अमेरिका के नव-निवार्चित रिपब्लिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चेतावनी दी है कि अगर क्यूबा ने अपने लोगों को और आजादी नहीं दी तो वे सुलह संधि को खत्म कर देंगे.

असल में 1959 में कास्त्रो के काबिज होने के पहले तक क्यूबा में भी अमेरिकी समर्थन वाले तानाशाह फुलगेंसियो बतिस्ता का राज था, जिसे अमेरिका के राष्ट्रपति कनेडी ने ही ‘लैटिन अमेरिका के इतिहास में सबसे दमनकारी तानाशाह’ कहा था. तब क्यूबा भी अमेरिकी लोगों के ऐशगाह की तरह हुआ करता था, हालांकि फिदेल कास्त्रो पर भी आरोप है कि उन्होंने ढेरों विरोधियों को जेल में डाल दिया, बड़े काश्तकारों से खेत और दौलतमंदों की दौलत जब्त कर ली. फिर भी, कास्त्रो ने उस देश को आज एक आत्मनिर्भर संप्रभु देश के रूप में स्थापित करके एक सर्व-समावेशी राष्ट्रवाद की बुनियाद रखी. यह भूमंडलीकरण की ‘विकल्पहीनता’ का एक विकल्प था.

कह सकते हैं कि लैटिन अमेरिका के देशों में भूमंडलीकरण के खिलाफ आवाजें तेज होने की एक बड़ी वजह वे भी थे. ब्राजील में लूला, वेनेजुएला में ह्यूगो शावेज, बोलिविया में इवो मोरालेस जैसे नेताओं का उभार इसी दौर में हुआ. इन सभी नेताओं ने भूमंडलीकरण, वित्तीय पूंजीवाद और अमेरिकी वर्चस्व को खुली चुनौती दी.

इसके बरक्स आजकल भूमंडलीकरण के विरोध की एक नई फिजा अमेरिका, यूरोप के साथ पूरी दुनिया में दिखाई दे रही है. वित्तीय पूंजीवाद खासकर अमेरिका के इराक और अफगानिस्तान युद्ध के बाद जैसे लडख़ड़ाना शुरू हुआ, उसके बाद उबर नहीं पाया. फिर 2008 की मंदी तो ऐसी छाई कि वह अभी तक दूर होने का नाम नहीं ले रही है, बल्कि अब एक नई महामंदी का कयास लगाया जा रहा है. इस नई मंदी में चीन और भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं का बुरा हाल है.

इससे बुरी तरह प्रभावित यूरोप के देश हैं. वहां इसके लिए भूमंडलीकरण को दोषी माना जाने लगा है. इससे दुनिया को ‘ग्लोबल विलेज’ और सीमाओं को लचीला बनाने का सपना चकनाचूर होता लगा रहा है. वे सिद्धांतकार भी अब पीछे हो गए हैं जो कभी ‘वर्ल्ड इज फ्लैट (दुनिया सपाट है)’ जैसा मुहावरा गढ़ रहे थे. हर जगह एक नए कट्टर राष्ट्रवाद की हवा कुछ जोर से बहने लगी है. यह राष्ट्रवाद अपनी परेशानियों के लिए परायों या दुश्मनों की तलाश करता है और समूची बीसवीं सदी में बही उदार, सबको साथ लेकर चलने की धाराओं को बेमानी मान रहा है. इसीलिए इसकी व्याख्या नव-राष्ट्रवाद के रूप में करने की कोशिशें हो रही हैं.

इसका सबसे प्रकट असर ‘ब्रिग्जिट’ के रूप में दिखा, जिसमें ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से नाता तोडऩे का फैसला कर लिया. ऐसी ही कट्टर और अनुदार राष्ट्रवाद की फिजा फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, इटली वगैरह में भी तेज बहनी शुरू हो गई हैं. दुनिया के बाकी देशों में भी जिन नेताओं का उभार हुआ है, वे सभी इसी संकीर्ण राष्ट्रवाद के नायक हैं. रूस में व्लादिमीर पुतिन, जापान में शिंजो एबे, चीन में शी जिनपिंग और अपने देश में नरेंद्र मोदी सभी लगभग इसी धारा के पैरोकार हैं.

लेकिन इस नव-राष्ट्रवाद के सबसे बड़े प्रतीक अमेरिका के नव-निर्वाचित रिपब्लिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हैं. वे बीसवीं सदी में उभरी तमाम उदार, लोकतांत्रिक, सर्व समावेशी धाराओं के खिलाफ बेलाग-लपेट बोलते हैं. स्त्रियों, अल्पसंख्यकों के लिए तो वे अशालीन शब्दों के प्रयोग से भी नहीं हिचकते और न ही उन्हें अपने कारोबार के प्रश्रय के लिए नीतियों-नियमों को तोडऩे-मरोडऩे या करों की चोरी या झांसा-पट्टी से कोई परहेज है. वे सीमाओं को पूरी तरह सीलबंद करने के हिमायती हैं.

खास बात यह भी है कि पुतिन से लेकर एबे जैसे तमाम नेता ट्रंप को पसंद कर रहे हैं. हमारे यहां तो कुछ कट्टर हिन्दू गुटों ने ट्रंप की जीत के लिए यज्ञ तक करवाया. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह तो ट्रंप की जीत को आगामी विश्व परिदृश्य के लिए अहम मान रहे हैं. उन्होंने लखनऊ की अपनी एक रैली में इसका जिक्र किया.
 
हमारे देश में नोटबंदी के फैसले को जायज ठहराने के लिए जैसे जुनून पैदा करने की कोशिश की जा रही है, वह भी इसी नव-राष्ट्रवाद का एक रूप लगती है. असल में सरकार का दावा है कि इससे कालेधन की समस्या खत्म होगी और गरीबों के दुख दूर होंगे लेकिन शायद ही कोई अर्थशास्त्री इसे कालेधन को वापस लाने का बड़ा कदम मानता है. यह भी नहीं कहा जा सकता कि अपने पूरे तेवर में नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकार नरेंद्र मोदी अचानक सोशलिस्ट नीतियों के पैरोकार बन गए हैं. ऐसे में इसके मकसद राजनैतिक और कुछ दूसरे किस्म के लगते हैं, जिनसे शायद बाद में परदा उठे. बहरहाल, इस नव-राष्ट्रवाद के बरक्स कास्त्रो का आत्मनिर्भर राष्ट्रवाद और देशप्रेम की एक नई दिशा दिखा जाता है.

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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