आतंक से लड़ाई के नजरिये में बदलाव की मांग कर रहा फ्रांस पर हुआ यह हमला...

आतंक से लड़ाई के नजरिये में बदलाव की मांग कर रहा फ्रांस पर हुआ यह हमला...

नीस शहर पर हमले के बाद फ्रांस गहरे सदमे में है।

फ्रांस के सबसे सुंदर शहरों में एक नीस में जब लोग अपनी फतह के उत्सव ‘बेस्तिल डे’ में रंगारंग आतिशबाजी का लुत्फ उठा रहे थे तभी हथियारों और विस्फोटकों से लैस एक भारी ट्रक सुरक्षा नाकेबंदी को तोड़कर घुसा और तबाही मचा गया। इसमें 80 से अधिक लोगों की मौत हुई है जबकि घायलों की तादाद सैकड़ों में है। इस घटना से अब यह लगभग पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि आतंकवाद की व्यापकता की समझदारी और उससे मुकाबले का सामूहिक अंतरराष्ट्रीय नजरिया सच्चाई से कोसों दूर है।
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आखिर इस राष्ट्रीय आयोजन के लिए काफी पहले से सुरक्षा के भारी इंतजामात किए गए थे। फ्रांस के सबसे मशहूर अखबार ला मोंद के मुताबिक, दुनियाभर में ब्राजील के रियो और रोम के वेनिस के महोत्सवों के बाद फ्रांस के इस सबसे चर्चित सालाना उत्सव के लिए जमीनी, हवाई और समुद्री सुरक्षा चाक-चौबंद करने की खातिर फरवरी से ही तैयारियां शुरू कर दी गई थीं। इसके लिए आला अधिकारियों की पहली बैठक 5 फरवरी को हुई थी। सभी पहलुओं पर विचार किया गया था। फ्रांस के अलावा मुंबई, मैड्रिड, इस्तांबुल और ढाका जैसे तमाम आतंकी हमलों का व्यापक अध्ययन किया गया था। हमले की हर आशंका को दूर करने के लिए बेहद सुनियोजित तंत्र स्थापित किया गया था, लेकिन आतंकियों ने साबित किया कि ये घेराबंदियां उन्हें रोकने में सक्षम नहीं हैं।

दुनियाभर में हमले तेज कर रहा आईएस
पिछले 18 महीनों से यूरोप में लगभग लगातार आतंकी हमले हो रहे हैं। अभी मार्च में आतंकियों ने ब्रसेल्स को दहला दिया था। हाल में इस्तांबुल और ढाका में आतंकियों ने कहर बरपाया था। फ्रांस में व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो के दफ्तर पर हमले के बाद पिछले नवंबर में पेरिस में 130 लोग मारे गए थे। इसकी जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली थी और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फ्रांस की सरजमीं पर यह सबसे भीषण तबाही थी। कथित तौर पर नीस के इस हमले की भी खबरें आइएस के समर्थक अपनी वेबसाइट पर साझा कर रहे हैं और इसे अपनी फतह बता रहे हैं। ये खबरें पहले ही आ चुकी हैं कि जब से फ्रांस, अमेरिका, रूस के हवाई और जमीनी हमलों के बाद सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट को काफी जमीन छोड़नी पड़ी है, उसने अपने तमाम समर्थकों से कहा है कि चाहे जैसे संभव हो, दुनियाभर में हमले तेज करो। कुछ खबरों के मुताबिक वह सीरिया में लड़ रहे करीब 22,000 विदेशी लड़ाकों को स्वदेश लौटकर हर जगह तबाही मचाने को कह चुका है।

बेहतरीन सुरक्षा और खुफिया तंत्र भी नाकाम साबित हो रहा
ये फिदायीन हमले गवाह हैं कि कोई भी देश अपनी बेहतरीन सुरक्षा मशीनरी और खुफिया प्रौद्योगिक तंत्र के बावजूद आतंकवाद पर काबू पाने में सक्षम नहीं है। आखिर आतंकवाद के लिए कुछ ऐसे लोगों की ही दरकार है जो अपनी जान कुर्बान करने की तमन्ना रखते हैं। जब तक ऐसे फिदायीन तैयार होते रहेंगे शायद ही कोई ताकत उनकी राह रोक पाएगी। इसलिए हमें ठहरकर विचार करना होगा कि फिदायीन बनने की वजहें क्या हैं और इन्‍हें कैसे रोका जाए।

आतंकी हमलों का अर्थव्यवस्‍था पर भी होता है व्‍यापक असर
हमें यह भी गौर करना चाहिए कि चाहे आतंकी अपनी कोशिशों में नाकाम हो जाएं, पर देशों और महाद्वीपों पर इसका असर भीषण होता है। यह महज संयोग नहीं है कि अमेरिका की आर्थिक वृद्धि की मंथर रफ्तार और यूरोप के आर्थिक संकटों की शुरुआत 9/11 के आतंकी हमले और जॉर्ज बुश के अफगानिस्तान व इराक पर एकतरफा हमले के बाद ही शुरू हो गई। इन युद्धों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ लाद दिया और वह 2008 की वैश्विक मंदी में तेजी से पहल करने के काबिल नहीं बचा था। अगर आज यूरोप और खासकर फ्रांस आतंकियों के निशाने पर हैं तो तय जानिए कि यूरोप की आर्थिक बहाली जल्दी नहीं होने वाली है। 'ब्रेक्जिट' से अधिक आतंकवाद ही आर्थिक बहाली के लिए बड़ा खतरा है। एक अध्ययन के मुताबिक 9/11 के बाद अमेरिका की आतंकवाद विरोधी जंग में 2011 तक 3.3 खरब डॉलर यानी अमेरिका की मौजूद जीडीपी का करीब पांचवां हिस्सा खप गया।

आतंकी अब हाईटेक हो चुके हैं
अब अमेरिका और यूरोप में लगातार फिदायीन हमलों से इस खर्च में और इजाफा होगा। फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांद ने सीरिया में और हवाई हमले करने की कौल उठाई है। आतंकियों पर हमले के अलावा अपने देश में सुरक्षा तंत्र पर जो खर्च बढ़ता जा रहा है, उसकी असर अर्थव्यवस्था और जिंदगी पर पड़ना तय है। यह दलील तो अपनी जगह है कि बेहतर खुफिया तंत्र और आक्रामक कार्रवाई आतंकवाद से लड़ने के बड़े औजार हैं लेकिन इसके दूसरे पहलू पर भी गौर कर लेना चाहिए। वह यह कि आप जितनी तेजी से हमला करते हैं, आतंक को युद्ध का औजार मानने वालों में चुनौती से निपटने का शायद उतना ही तगड़ा संकल्प जन्म लेता है। यह संकल्प उन्हें नए-नए तरीकों की ईजाद की ओर ले जाता है। यह भी अब कोई रहस्य नहीं है कि आतंकी अब कठमुल्ला नहीं, बल्कि आधुनिक प्रौद्योगिकी में पारंगत हैं। ऐसे कई अध्ययन आ चुके हैं कि आतंकियों को प्रेरणा अब सिर्फ इस्लाम या मदरसों से नहीं, बल्कि अन्याय और दुर्दशा से भी मिल रही है। बेशक, इसमें सऊदी अरब में पैदा हुए बहावी सलफी मतवाद का बड़ा योगदान है। इसलिए आतंकवाद को नए नजरिए से देखना होगा। सलफी मतवाद की काट पेश करने के साथ अन्याय को मिटाने की पहल भी करनी होगी।

ऐसे में काबिलेगौर यह है कि अमेरिका और यूरोप को अपनी गलतियों पर भी विचार करना चाहिए। इराक में सद्दाम हुसैन के दौर में विनाशकारी हथियारों के झूठे बहाने हमले करने के लिए कम से कम अमेरिका और ब्रिटेन को जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जाना चाहिए ? आखिर उसी से तो इस्लामिक स्टेट का सूत्रपात हुआ जो आज दुनिया के लिए खतरा बन गया है। यह भारत के लिए भी सबक है क्योंकि अगर भारी ताकत और अत्याधुनिक सुरक्षा तंत्र के साथ विकसित देश सुरक्षित नहीं हैं तो हमारी लचर व्यवस्था कैसे मुकाबला करेगी, जबकि हमारे यहां कश्मीर से लेकर कई तनाव बिंदु मौजूद हैं। इसलिए आतंकवाद से लड़ने के लिए नजरिये में फौरन बदलाव और नई सोच-समझ की दरकार है।

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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