राजस्थान में बीजेपी बुरी तरह हारी, लेकिन वसुंधरा का विकल्‍प नहीं...

नतीजों के बाद और हार जीत का अंतर देखने के बाद लगता है बीजेपी को सिर्फ राजपूत वोट ही नहीं लेकिन हर विधानसभा सीट पर ध्यान देने की ज़रूरत है.

राजस्थान में बीजेपी बुरी तरह हारी, लेकिन वसुंधरा का विकल्‍प नहीं...

राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट.

खास बातें

  • राजस्थान में कांग्रेस उपचुनाव जीती है
  • दो लोकसभा सीट और विधानसभा सीट जीती
  • बीजेपी को दी करारी हार

ये खबर थी जो मैंने अजमेर से अपने चैनल NDTV इंडिया और NDTV 24X7 के लिए की थी. क्या ये सही है? ये खबर देख के मुझे एक ऐसा मैसेज आया था मुख्यमंत्री के घर से. हां, मैंने कहा था. भाजपा को उनके पारंपरिक वोट बैंक राजपूतों पर ध्यान देने की ज़रूरत है. लेकिन अब नतीजों के बाद और हार जीत का अंतर देखने के बाद लगता है बीजेपी को सिर्फ राजपूत वोट ही नहीं बल्कि हर विधानसभा सीट पर ध्यान देने की ज़रूरत है. क्योंकि, बीजेपी सिर्फ 3 उप चुनाव नहीं हारी है, वो 17 विधानसभा सीटों पर बुरी तरह पिछड़ी है. शहरी सीटें जैसे अलवर शहर, अजमेर उत्तर और दक्षिण जिनमें व्यापारी वर्ग का दबदबा रहता है, वहां भी बीजेपी पिछड़ी है. जैसे जैसे नतीजे आ रहे थे, बीजेपी अध्यक्ष अशोक परनामी ने प्रेस वार्ता बुलाई. उन्‍होंने कहा, "भाजपा कोई छुई-मुई का पौधा नहीं है जो उंगली दिखने से मुरझा जाये, कांग्रेस को इतना भी प्रसन्न होने की ज़रूरत नहीं है." उनसे हार पर ज़्यादा सवाल-जवाब न हो, इसके लिए परनामी जी जल्द ही केंद्रीय बजट की प्रशंसा में जुट गए. लेकिन हार जीत का जो अंतर है वो सिर्फ राज्य इकाई के लिए नहीं बल्कि पूरी पार्टी के लिए चिंता का विषय है.

इस उपचुनाव में 2 लोकसभा सीटों के लिए यानी 16 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान हुआ. 16 की 16 सीटों में बीजेपी हारी है. यानी एक भी विधानसभा सीट में उसे बढ़त नहीं मिली है. मांडलगढ़ विधानसभा सीट का जो उपचुनाव था उसमें भी कांग्रेस 12000 से ज़्यादा वोटों के अंतर से जीती. बावजूद इसके कि वहां कांग्रेस का ही एक बागी खड़ा हुआ था जो 22% वोट शेयर ले गया.

अलवर शहर से बीजेपी 25,457 वोटों से हारी है जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में ये अलवर शहर से 62,129 वोटों से जीती थी. अजमेर में भी यही हाल है. अजमेर उतर और दक्षिण को अगर जोड़ ले तो यहां बीजेपी 19,000 वोटों से पिछड़ी है.

"हम सरकार को सबक सिखाना चाहते थे." लोगों से ज़्यादातर ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं. अजमेर के वैशाली नगर में कांग्रेस प्रत्याशी रघु शर्मा के दफ्तर के बाहर कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने खूब जश्न मनाया. यहीं पर एक ड्राइवर राम स्वरूप, जो यहां एक कोठी में काम करता है, ने कहा, "हम बीजेपी के वोटर हैं." उसने कहा, "इस बार वसुंधरा को सबक सिखाना जरूरी था."

साफ़ है कि इस उपचुनाव में इस तरह की सोच ने वोटों में परिवर्तन किया है. एंटी इनकम्बेंसी एक फैक्टर बन गया है. साथ ही जीएसटी से आयी मुश्किलों से छोटे दुकानदार और व्यापारी नाराज़ हैं. लेकिन साथ ही लोग ये भी कहते हैं कि उप चुनाव में सबक सिखा दिया. हो सकता है 2019 के चुनाव में वापस बीजेपी के साथ जुड़ जाएं.

बीजेपी की जातिगत राजनीति का गणित भी अजमेर में नहीं चल पाया. बीजेपी के अजमेर उम्मीदवार रामस्वरूप लाम्बा को टिकट उनके पिता सांवर लाल जाट की मौत के बाद मिला. अमित शाह जब पिछले साल जयपुर में कार्यकर्ता सम्मलेन में भाषण दे रहे थे तब आगे की पंक्ति में बैठे सांवर लाल जाट वहीं गिर गए. कुछ दिन बाद उनकी मौत अस्पताल में हो गई. सिम्पथी वोट पर बीजेपी खेलना चाहती थी और ये भी सोचा था कि अजमेर में जाट वोट उनके पक्ष में आएगा अगर वो जाट कैंडिडेट को ही उम्मीदवार बनाते हैं. लेकिन 4 बार एमएलए और एक बार एमपी रहे सांवर लाल जाट के बेटे में वो राजनीतिक गुण नहीं हैं जो उनके पिता में थे. रामस्वरूप के लिए तो चुनाव में भाषण देना ही बड़ी चुनौती नज़र आ रहा था. कैंपेन के आखिरी दिन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने उन्हें रोड शो के दौरान कहा, आप भी कुछ बोलो. लेकिन रामस्वरूप ने गर्दन हिला दी. वसुंधरा ने तब मजाकिया अंदाज में कहा था, "सीधा आदमी है आपका उम्मीदवार." उन्होंने कहा, "जब मैं राजनीति में आयी थी तो मैं भी ऐसी ही थी, बहुत कम बोल पाती थी, लेकिन अब मुझसे माइक छीनना पड़ता है." लेकिन साफ़ है कि रामस्वरूप लाम्बा के लिए न सहानुभूति ना सादगी काम आयी.

अलवर में नहीं चला ये दांव
अलवर में बीजेपी ने हिन्दू मुस्लिम कार्ड खेलने की कोशिश की थी. चुनाव के 3 दिन पहले अलवर शहर से विधायक बनवारी लाल सिंघला ने फेसबुक पर लिखा था कि मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा करके विकास की गति को रोकना चाहते हैं. अलवर शहर में पार्टी का चुनावी अभियान उन्होंने संभाल रखा था. जब हम उनसे मिलने गए तो इस तरह के सांप्रदायिक बयान को उन्होंने अपने इंटरव्यू में दोहराया. उन्‍होंने कहा, "उनका एक ही प्लान है कि हम देश में 2030 तक अपना राज क़ायम करें, और इसको वो प्लान करके अपनी जनसंख्या और अपनी मतदाता संख्या बढ़ा रहे हैं. ये तो बस पागल हो कर इस काम में लगे हुए हैं, इनके पास दूसरा काम नहीं है. बच्चे पैदा करने के अलावा."

इसके पहले कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि अलवर में बीजेपी उम्मीदवार हिन्दू मुस्लिम के नाम पर वोट मांग रहे है. 8 जनवरी को चुनावी सभा में जसवंत यादव ने कथित रूप से एक सभा में कहा था. उन्होंने कहा था, 'बीजेपी हिन्दू की पार्टी है तो इसका मतलब है कांग्रेस मुसलमान की है? तो फिर हिन्दू मुझे दे दो और मुसलमान अपने कांग्रेस ने दियो, फैसला कर लो."

कांग्रेस ने इस बयान की शिकायत चुनाव आयोग में की, लेकिन जसवंत यादव ने बाद में कहा कि उनके खिलाफ ये एक षड्यंत्र था. लेकिन इस तरह के अलगाववादी राजनीतिक बयानों का असर इस उपचुनाव में नहीं दिखा.

इस तरह की राजनीति को मतदातों ने नकारा है. अलवर शहर में कांग्रेस को 25457 मतों की बढ़त मिली. पूरे अलवर लोकसभा में कांग्रेस के डॉ. करण सिंह यादव को सबसे ज़्यादा 1,96,496 वोटों से जीत हासिल हुई. इस चुनाव का ये सबसे बड़ा अंतर है. यहां तक कि उनके खिलाफ खड़े हुए जसवंत यादव जो मंत्री और विधायक हैं, उनको अपनी विधानसभा सीट में भी बढ़त नहीं मिली, बल्कि वो बहरोड़ खुद की विधानसभा से 21,826 मतों से पिछड़ गए. बहरोड़ वो जगह है जहां पिछले साल अप्रैल में दिल्ली जयपुर हाईवे पर बहरोड़ मिड-वे से कुछ गौ-रक्षकों ने पशुपालक पहलु खान को पीट पीटकर मार डाला था.

मुस्लिम समुदाय, जिसके अलवर में करीब 3 लाख मतदाता हैं, इस बात को लेकर आक्रोशित तो था ही, लेकिन दूसरे मतदाताओं ने भी इस तरह की राजनीति को अलवर में नकारा है. शायद इसलिए सबसे ज़्यादा वोटों की जीत कांग्रेस के लिए अलवर से हुई है.

ये चुनाव क्या मायने रखते है वसुंधरा राजे और सचिन पायलट के लिए
वसुंधरा का राजस्थान में विकल्प ढूंढना आसान नहीं होगा. रानी, जैसे उन्हें यहां लोग कहते हैं, रानी में अहंकार है. लेकिन जब रानी लोगों के बीच निकलती है वोट मांगने के लिए तब उनका अंदाजा बिलकुल अलग होता है. चुनरी ओढ़ के वो महिलाओं और बुज़ुर्गों का वारना लेती हैं. वारना राजस्थान में आशीर्वाद मांगने का एक तरीका होता है. लोगों से उनका जो तालमेल है शायद ही भैरों सिंह शेखावत के बाद किसी भाजपा नेता में हो. लेकिन हिंदी भाषी राज्य में बीजेपी की ये हार पार्टी के लिए केंद्र में भी चिंता का विषय है और आने वाले दिनों में बीजेपी क्या रणनीति तय करेगी इस पर सबकी नज़र रहेगी.

कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने इस जीत में जान तो फूंक डाली है, लेकिन सचिन पायलट के लिए ये एक व्यक्तिगत जीत है. इस पूरे चुनाव की कमान सचिन के हाथों में थी. उम्मीदवारों के चयन से लेकर चुनावी कैंपेन और रणनीति, सब कुछ सचिन ने संभाला. अशोक गेहलोत इस चुनाव का चेहरा नहीं थे. पिछले 10 साल में अशोक गेहलोत के सामने उनके क़द का कोई नेता नहीं खड़ा हो पाया है. अशोक गेहलोत की सादगी की सियासत, गांधी की राजनीती का एक उदाहरण माना जाता है. लेकिन सचिन ने अब दिखा दिया है की राजस्थान में एक विकल्प है.

(हर्षा कुमारी सिंह राजस्‍थान में NDTV की ब्‍यूरो चीफ हैं.)

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