नोटबंदी से अर्थव्‍यवस्‍था को लगा झटका कितना बड़ा?

सोचिए जिस फैसले से 88 लाख लोगों की नौकरी चली गई, या वे टैक्स रिटर्न भरने लायक नहीं रहे, उन्हें कम से कम नोटबंदी सम्मान प्रमाण पत्र तो देना ही चाहिए. रिटर्न फार्म भरना और टैक्स देना दोनों में अंतर होता है.

नोटबंदी से अर्थव्‍यवस्‍था को लगा झटका कितना बड़ा?

फाइल फोटो

भाषणों के अलावा आज भारत में कुछ नहीं हुआ. भाषणों में हवाबाज़ी ख़ूब है मगर हवा को लेकर कोई भाषण नहीं है. उन शहरों में भी नहीं है जिनका नाम दुनिया के प्रदूषित शहरों में आ गया है. आज ही एक रिपोर्ट आई है कि 2017 में भारत में हवा के प्रदूषण के कारण 12 लाख लोगों की मौत हुई है. अब सोचिए 12 लाख लोगों की मौत की खबर आई हो, चुनाव चल रहे हों मगर इस सवाल पर कोई भाषण नहीं है. हमारे पूर्व सहयोगी ह्रदयेश जोशी ने तो आज ही इस पर लिखा कि स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर नाम की संस्था की रिपोर्ट बता रही है कि वायु प्रदूषण के कारण भारत में 12 लाख लोग 2017 के साल में मारे गए. अगर कोई यह सोच रहा है कि चुनाव में पर्यावरण मुद्दा क्यों नहीं है तो उसे पक्का चुनाव छोड़ कर आईपीएल या WWF देखना चाहिए.

सोचिए हवाबाज़ी वाले भाषणों में हवा ही नहीं है. बाजा है और बाज़ी है. इंडियन एक्सप्रेस की खुशबू नारायण की एक रिपोर्ट आई कि नोटबंदी वाले साल में 88 लाख करदाता टैक्स रिटर्न नहीं भर पाए. क्यों नहीं रिटर्न भर पाए क्योंकि नोटबंदी के बाद आर्थिक गतिविधियां ठहर गईं और लोगों की नौकरी चली गई. आमदनी घट गई. उसी वक्त ये आंकड़ा आता तो इन 88 लाख लोगों को सम्मानित किया जाता. काला धन की समाप्ति के लिए अपनी नौकरी गंवा कर योगदान करना मज़ाक बात नहीं है. खुशबू नारायण की यह रिपोर्ट बेहद गंभीर है. सोचिए जिस फैसले से 88 लाख लोगों की नौकरी चली गई, या वे टैक्स रिटर्न भरने लायक नहीं रहे, उन्हें कम से कम नोटबंदी सम्मान प्रमाण पत्र तो देना ही चाहिए. रिटर्न फार्म भरना और टैक्स देना दोनों में अंतर होता है.

सरकार ने बताया था कि 2016-17 में आयकर रिटर्न भरने वालों की संख्या 1.06 करोड़ बढ़ गई. जबकि इसी साल स्टाफ फाइलर्स की संख्या 10 गुना ज़्यादा बढ़ी. स्टाफ फाइलर्स वो होते हैं जो पिछले साल रिटर्न भरते हैं मगर कमाई न होने पर अगले साल नहीं भरते हैं. 2015-16 में स्टाफ फाइलर्स की संख्या 8.56 लाख थी जो 2016-17 में 88 लाख से अधिक हो गई.

नोटबंदी के समय देश सेवा समझ कर काम करने वाले बैंकर रोज़ लिखते हैं कि उनकी सैलरी बढ़ाने की बात क्यों नहीं कर रहा हूं. बैंकरों के कैशियरों ने जुर्माने के तौर पर अपनी जेब से खूब पैसे भरे. लोन लेकर भरे. अब उनकी दूसरी मुसीबत शुरू हो गई है. बैंक ही मजबूर कर रहा है कि लोन लेकर उसी बैंक के शेयर खरीदें जिसकी खस्ता हालत को वे रोज़ देखते हैं. बैंकरों को नोटबंदी के समय लगा था कि वे सैनिक हैं और अर्थशास्त्री भी हैं. सारे बैंकरों ने देश के लिए कुछ करना चाहा, इसमें गलत क्या है. हां, वो काम देश के लिए था या नहीं, इसका जवाब कहां है. यह सही है कि उन्होंने बहुत मेहनत की मगर यह भी सही है कि उनकी सैलरी नहीं बढ़ी. बैंकरों को सैलरी और शेयर का सवाल राजनीतिक दलों से करना चाहिए. या फिर आईपीएल के स्कोर में मन लगाएं, मैच खत्म होते ही WWE देखें और उसके तुरंत बाद हिन्दू मुस्लिम डिबेट, गारंटी है कि दस बीस साल मज़े में निकल जाएंगे. आप सब साक्षी हैं कि बैंकरों की बात मैंने रख दी है अब आप उनसे कहिए कि मुझे व्हाट्सएप न करें. मैं बैंकरों की व्यथा समझता हूं. क्या करें.

एमटीएनएल और बीएसएनएल के कर्मचारियों ने हाल ही में अपने संस्थान के संकट और सैलरी न मिलने को लेकर प्रदर्शन किए थे. अब अगर हवा पर बात नहीं हो रही है जिससे 12 लाख लोग मर गए, नोटबंदी पर बात नहीं हो रही है जिससे नौकरी जाने के कारण रिटर्न नहीं भरने वाले स्टाफ फाइलर्स की संख्या बढ़ गई तो किसी को यह उम्मीद क्यों होनी चाहिए कि राष्ट्रवाद और सेना से चुनाव का गियर बदल कर BSNL और  MTNL में हज़ारों की नौकरी चली जाने के सवाल पर चुनाव हो जाएगा. सिर्फ संख्या बता देने से कि इन पूर्व नवरत्नों में लाखों लोग काम करते हैं मुद्दा नहीं बनता है. खबर आई कि BSNL MTNL के 54000 कर्मचारियों को स्वेच्छा से रिटायर कराने के लिए मंत्रालय को चुनाव आयोग से अनुमति लेनी होगी. मतलब चुनाव के समय 54000 कर्मचारियों को विदा करने का आइडिया आया भी तो कैसे आया. इतने लोग मैदान में आ जाएं तो नेता लोग ट्वीट करने लगते हैं और पीछे से वे 54000 लोगों को चलता करने का प्लान बना रहे हैं. खबरों में था कि कंपनी के बोर्ड ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है कि रिटायर कराने के लिए उम्र घटा दिया जाएगा. डेक्कन हेराल्ड में यह खबर छपी थी. फिलहाल सीईओ का बयान आ गया है कि हम इस तरह से किसी को नहीं निकालेंगे. हम एक आकर्षक वीआरएस की नीति लेकर आना चाहते हैं जो कर्मचारियों को भी पसंद आएगा.

क्या यह चुनाव सेना पर हो रहा है. क्योंकि सेना का भाषणों में बहुत ज़िक्र आ रहा है. पहले कहा गया कि सेना पर सवाल करना गलत है. अब कहा जा रहा है कि चुनावों में सेना का इस्तमाल करना गलत है. सेना को लेकर सही क्या है, गलत क्या है सब घालमेल हो गया है. कई बार लगता है कि बैरक का चुनाव हो रहा है या भारत का हो रहा है. भारतीय सेना मोदी जी की सेना कब से हो गई. योगी जी के बयान पर चुनाव आयोग विचार कर ही रहा था. नक़वी जी ने मोदी जी की सेना कह दी.

इधर पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह सीरीयस हो गए. हैं तो बीजेपी के उम्मीदवार लेकिन योगी जी के बयान पर ऐसा कह दिया जो अर्बन नक्सल भी नहीं कह पाए. बीबीसी के जुगल पुरोहित को इंटरव्यू में कहा कि अगर कोई कहता है कि भारत की सेना मोदी की सेना है तो वह ग़लत नहीं, देशद्रोही भी है. मोदी की सेना कहना देशद्रोह है. वी के सिंह की इस बात को आप सिर्फ नोट कर लीजिए. मगर इसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दिखाने से बचें. ईमेल के ड्राफ्ट में सेव करके रख लीजिएगा. कई बार दो नेताओं के बीच संदेशवाहक फंस जाता है.

कितना अच्छा आइडिया था जेएनयू के वीसी का. 24 जुलाई 2017 को जेएनयू में कारगिल विजय दिवस पर तिरंगा मार्च हुआ था. मीडिया में जेएनयू के वीसी का बयान छपा था कि यूनिवर्सिटी में टैंक रखना होगा ताकि छात्र जवानों के बलिदान से परिचित हो सकें. बीजेपी की सांसद मीनाक्षी लेखी ने भी सपोर्ट कर दिया. सोचिए अगर इस आइडिया पर काम होता तो सीमा से ज्यादा कॉलेजों में टैंक होते.

भारत में 39000 से अधिक कॉलेज हैं. टी 90 टैंक 15-16 करोड़ का आता है. इतना सस्ता है कि 39000 टैंक तो एक ऑर्डर में खरीद कर लगा दिए जाते. इस पर छह लाख करोड़ से अधिक ही तो खर्च आता. राष्ट्रवाद के लिए इतनी राशि कुछ भी नहीं है. यह भी हो सकता है कि हर कॉलेज में खिलौने वाला टैंक ही लगा दिया जाए ताकि बेबी-नेशनिल्जम तो आती रहे. अगर हम पुराने टैंक खरीद लाते तो दुनिया के सारे सेकेंड हैंड टैंक भारत के कॉलेजों के सामने खड़े हो जाते. ठीक है कि कस्बों के कॉलेजों में टीचर नहीं हैं, हैं तो पढ़ाते नहीं हैं, लेकिन अगर सारे कॉलेज में टैंक लगा देते तो बिना टीचर के छात्र कम से कम राष्ट्रवादी बनकर तो निकलते. बेरोज़गार बनकर निकल रहे हैं. ये बेहद सैड बात है.

जनता अपने मुद्दों से लड़ रही है. वह तय नहीं कर पा रही है अपने अनुभव और मुद्दों का क्या करे. मीडिया और भाषणों से नेताओं ने अपने मुद्दे उस पर थोप दिए हैं. जैसे आप बिहार जाएं कवर करने तो नौजवानों से सवाल हो सकता था कि आप जिस कॉलेज में पढ़ते हैं उसका सेशन टाइम पर है यानी 3 साल का बीए 3 साल में होता है या 5 साल में होता फिर पूछा जाता कि आप 3 साल का बीए 5 साल में करते हुए पुलवामा के बारे में क्या सोचते हैं तो उसका क्या जवाब होगा. लेकिन क्या बिहार के छात्रों ने अपनी तरफ से दिल्ली से आए पत्रकारों को यह समस्या बताई. बताए होते तो पत्रकार ज़रूर लिखते. आज मैं आपको एक नए आंदोलन की बात बताता हूं. इस आंदोलन का नाम है मगध यूनिवर्सिटी लेट एग्ज़ाम आंदोलन. मूल्य. ऐसा आंदोलन आपने कब सुना है.

मगध यूनिवर्सिटी बिहार की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी है. 2016-19 सत्र के लिए बीए, बीएससी, बीकॉम के लिए एडमिशन लिया. यह एडमिशन जून 2016 में हुआ मगर प्रथम वर्ष की परीक्षा हुई जनवरी 2018 में. तीन साल बीत गया है मगर फर्स्ट ईयर की ही परीक्षा हुई और रिज़ल्ट आया. 2017-20 के सत्र की कोई भी परीक्षा नहीं हुई है. 2019 आ गया है.

छात्रों ने बताया 2016-19 और 2017-20 के सत्र में करीब 4 लाख से अधिक छात्र पढ़ते हैं. 3 साल का बीए 5 साढ़े पांच साल में हो रहा है. बिहार यूनिवर्सिटी में सेशन लेट चलने को लेकर फोन आते रहते हैं. मगध यूनिवर्सिटी का एक और मामला है. असंबंध कॉलेज के छात्रों का. इनकी संख्या 80,000 से अधिक है. केस मुकदमे में इनका रिजल्ट फंसा रह गया और ये रेलवे की परीक्षा का फार्म नहीं भर सके. बाकी लाखों छात्रों को भले न पड़ता हो मगर जिनका करियर बर्बाद हो रहा है उन्हें समझ नहीं आ रहा. भरोसा था कि प्राइम टाइम में आ जाएगा तो परीक्षा हो जाएगी मगर उनका भरोसा टूट गया. तीन चार दफे बोलने और लिखने के बाद भी कामयाबी नहीं मिली. अब इन छात्रों ने यू ट्यूब पर मगध यनिवर्सिटी लेट एग्ज़ाम आंदोलन लॉन्‍च कर दिया है.

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यह वीडियो आप देख पाए यही बहुत बड़ी बात है. राज्यों में राजधानियों और कस्बों के छात्र से जो हो रहा है वो शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. इसीलिए मेरा यकीन है कि इन समस्याओं को दबाने के लिए ही हिन्दू मुस्लिम और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों को आगे किया जाता है. सोचिए चार पांच लाख छात्र तीन साल का बीए 5 साल में कर रहे हैं. किसी को फर्क नहीं पड़ता. बहुत मुमकिन है इन छात्रों को ही फर्क नहीं पड़ता हो. वे आईपीएल और WWE देखने में व्यस्त हों, मगर जिन चंद छात्रों ने यह पहल की है उन्हें बधाई. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में यह रिसर्च होना चाहिए कि एक यूनिवर्सटी के भीतर 3 साल का बीए 5 साल में करने पर छात्रों की जवानी में कैसा निखार आता है. इस रिसर्च को हार्वर्ड में लॉन्‍च करना चाहिए और दिल्ली के जिमखाना क्लब में इस पर चर्चा होनी चाहिए. क्या आपको लगता है कि बिहार यूनिवर्सिटी और मगध यूनिवर्सिटी के छात्रों को राहत मिलेगी. मुझे नहीं लगता. छात्रों से गुज़ारिश है कि मुझे शुक्रिया का मेसेज न भेजें. बिहार के नेताओं को बधाई. छात्रों को भी बधाई. इन्होंने साबित कर दिया है कि सब कुछ करियर नहीं होता है. आईपीएल और WWF भी कोई चीज़ होती है.