सरकार को नौकरों की कितनी चिंता?

मौका खुद त्रिवेंद सिंह रावत ने दिया कि उनकी मज़म्मत हो मगर ये सबक बाकी मुख्यमंत्रियों के लिए भी है कि जनता वाकई बहुत परेशान है. उसकी दिक्कतों को सुनिये. उसे दुत्कारिए मत. मंत्री से पूछिए कि तुमको लाल बत्ती दी तो कर क्या रहे हो.

सरकार को नौकरों की कितनी चिंता?

देहरादून का एक वीडियो वायरल हो रहा है. 28 जून के इस वीडियो में दिख रहा है उसमें देखने के लिए कई बातें हैं. एक अध्यापिका हैं जो सिस्टम से झुंझलाई हुई हैं, उनकी कोई नहीं सुन रहा है, सामने एक मुख्यमंत्री हैं जो बैठे तो हैं सुनने के लिए मगर सुनते ही झुंझला जा रहे हैं, एक मीडिया है जो कभी आम लोगों की समस्या से वास्ता नहीं रखता मगर एक मुख्यमंत्री ने बेअदबी की है तो उसमें चटखारे ले रहा है. एक चौथा एंगल और है जो उस वीडियो में ग़ौर से देखने पर दिख सकता है. वो है नौकरशाही, जिसे आप व्यवस्था कहते हैं. जिसे चलाने के लिए जनता से वोट लेकर कोई मुख्यमंत्री बनता है. इन सबकी नाकामी है अध्यापिका उत्तरा बहुगुणा का मुख्यमंत्री के सामने अपनी बात रखते हुए बिफ़र जाना जिसे मुख्यमंत्री नहीं झेल सके. सस्पेंड कर देना, थाने भिजवा देना टाइप की भाषा बोलने लगे जो आम तौर पर अपनी सरकार बनते ही पार्टी के छुटभैये ज़िलों में छोटे अधिकारियों से वसूली के समय बोलने लगते हैं.

मौका खुद त्रिवेंद सिंह रावत ने दिया कि उनकी मज़म्मत हो मगर ये सबक बाकी मुख्यमंत्रियों के लिए भी है कि जनता वाकई बहुत परेशान है. उसकी दिक्कतों को सुनिये. उसे दुत्कारिए मत. मंत्री से पूछिए कि तुमको लाल बत्ती दी तो कर क्या रहे हो. क्या शिक्षा विभाग देखते हो कि कोई तबादले की समस्या लेकर मेरे पास आता है. उस समय मुख्यमंत्री त्रिवेंद सिंह रावत अपने शिक्षा मंत्री को ही बर्खास्त कर देते तो जनता की नज़र में ऊंचे हो जाते और व्यवस्था को सख्त संदेश भी दे देते. इसलिए कहा कि उत्तराखंड से आए इस वीडियो में देखने के लिए बहुत कुछ है. प्लीज़ देखिए उसे. हमारी राज्य व्यवस्था में जनता की सुनने और उसके कंधे पर हाथ रखने की इच्छा शक्ति समाप्त हो गई है. सुनने के बाद समाधान करने इच्छा शक्ति और क्षमता भी समाप्त हो चुकी है.

अगर क्षमता और संवेदनशीलता कम नहीं हुई होती तो इन शिक्षकों को दोबारा धरने पर नहीं बैठना पड़ता. 12460 बीटीसी शिक्षको की भर्ती का मामला काफी है समझने के लिए कि संख्या का भी कोई मतलब नहीं है. संख्या का मतलब सिर्फ किसी को सत्ता तक पहुंचाना ही रह गया है. ये लोग हाई कोर्ट से कई बार केस जीत चुके थे. कोर्ट कई बार कह चुका है कि इनकी बहाली की जाए. पिछले साल ढाई महीने तक धरना दिया था. 5 फरवरी 2018 को हाईकोर्ट ने फिर आदेश दिया कि इनकी नियुक्ति की प्रक्रिया चार हफ्ते में पूरी हो. आंदोलन चलने लगा और तब जाकर मुख्यमंत्री ने कहा कि 16 मार्च को कहा कि एक सप्ताल में नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करेंगे. 12460 में अभी तक 5000 शिक्षकों को ही नियुक्ति पत्र मिला है. बाकी के बचे 7 हज़ार से अधिक शिक्षक फिर से धरना देने लगे हैं. 25 जून से दोबारा अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए हैं. अविश्वास की खाई इतनी है कि उन्हें भी लगता है कि अभी टाइट नहीं रहे तो सरकार कब सो जाएगी पता नहीं. 15 दिसंबर 2016 को इनकी नौकरी का विज्ञापन निकला था मगर आज तक आधे से अधिक को नियुक्ति पत्र नहीं मिला है. इनकी हताशा आप किस तरह से समझेंगे यह निर्भर करता है कि आप उत्तरा खंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की तरह हो गए हैं या फिर अभी भी नागरिक की तरह आपकी संवेदनशीलता बची हुई है. श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने इनके लिए पत्र भी लिखा है. कभी कोर्ट तो कभी आयोग के कारण ये लोग लंबे समय से नियुक्ति का इंतज़ार कर रहे हैं.

उत्तराखंड की अध्यापिका उत्तरा बहुगुणा की कहानी बीच में रोककर यूपी की यह कहानी इसलिए दिखाई ताकि आप पूरी तस्वीर समझ सकें. हर राज्य में यही आलम है. उत्तरा बहुगुणा को सबके सामने मुख्यमंत्री को चोर उचक्का नहीं कहना चाहिए था और न ही मुख्यमंत्री को सस्पेंड करा कर जेल भिजवाने की बात कहनी चाहिए थी. अब आप उस वीडियो को फिर से देखिए और सुनिए कि जब प्रिंसिपल उत्तरा बहुगुणा अपनी बात कह रही हैं तो हंसने की आवाज़ आ रही है. अगर हंसने वाले अधिकारी हैं तो उनसे पूछा तो जाना ही चाहिए कि दांत क्यों चियार रहे थे.

मुख्यमंत्री किस कानून के तहत उत्तरा बहुगुणा को गिरफ्तार करने का आदेश दे रहे हैं. क्या ऐसा कोई कानून है कि मुख्यमंत्री से ऊंची आवाज़ में बात करने पर किसी को जेल हो सकती है या वे किसी की तरफ इशारा कर कह सकते हैं कि गिरफ्तार कर लो इसे. ऐसा दृश्य तो अमर चित्र कथा में दिखता है. वैसे मुख्यमंत्री भाजपा कार्यालय में लोगों की शिकायतें सुन रहे थे. सरकार अब अखबार में ही चलती है, जनता के बीच चलती तो ऐसी शिकायतें मुख्यमंत्री तक आने से पहले ही सुलझा दी जातीं. जब तक व्यवस्था बनाने की बात नहीं करेंगे, ऐसे कार्यक्रम खास नतीजे नहीं देंगे. मुख्यमंत्री चाहें जितना जनता दरबार सजा लें, न तो लोगों की सुन सकते हैं और न ही उसे निपटा सकते हैं. कितनों को जेल भिजवाएंगे और कितनों को सस्पेंड करेंगे.

कई बार समस्याएं सही होती हैं और कई बार बढ़ा चढ़ा कर भी पेश कर दी जाती हैं. यहां अध्यापिका का कहना है कि 25 साल से पढ़ा रही हैं, तीन साल पहले पति के देहांत के बाद तबादला सुदूर इलाके में हो गया. उनके लिए संभव नहीं था कि अपने बच्चे को लेकर वहां जाती, वो देहरादून में ही रहना चाहती थीं. सिस्टम को उनकी बात मान लेनी चाहिए. और भी लोगों की सिफारिश और शिकायत तो सुनी ही जाती है तो फिर इनकी क्यों नहीं. एक प्रिंसिपल की ये हालत है तो न जाने कितने शिक्षक परेशान होंगे. वे सभी अपनी बात मुझे भेज सकते हैं प्रमाण के साथ और कुछ घोटाले वगैरह हो रहे हों तो उन्हें भी उजागर करते हुए. बहरहाल, निलंबन पत्र में लिखा है कि अभद्रता के अलावा उत्तरा बहुगुणा ने जनता दर्शन कार्यक्रम में भाग लेने के लिए अनुमति नहीं ली. इसलिए सस्पेंड किया जाता है. सरकारी कर्मचारी पर बंदिशें होती हैं मगर इंसाफ न मिले या सुनवाई न हो तो क्या अनुमति लेकर मुख्यमंत्री के पास जाना होगा. यह तो और भी विचित्र तर्क है. अगर विभाग को पता चल जाए कि कर्मचारी मुख्यमंत्री के सामने क्या शिकायत करने वाला है तो वो अनुमति देगा. हद है ऐसे बेतुके आदेश पत्रों की.

इसका समाधान यह है कि मुख्यमंत्री को अफसोस प्रकट करते हुए उत्तरा बहुगुणा के निलंबन का फैसला वापस ले लेना चाहिए. उन्होंने फरियाद सुनते ही तेवर दिखा दिए कि नौकरी के वक्त क्या लिख कर दिया था. सब कुछ लिख कर देने और लिख कर होता तो आज वो नौबत ही नहीं आती, उन्हें भी पता है. मेरी नज़र में मुख्यमंत्री को भी सॉरी बोलना चाहिए और अध्यापिका को भी और उनकी सुनवाई हो जानी चाहिए.

यह कोई पहली घटना नहीं है. पिछले साल उत्तराखंड में ही बीजेपी के प्रदेश कार्यालय में ही प्रकाश पांडे ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली. उस वक्त भी एक दूसरे मंत्री सुबोध उनियाल जनसुनवाई कर रहे थे. प्रकाश पांडे ने यही कहा कि जीएसटी और नोटबंदी के कारण वे बर्बाद हो गए हैं, कर्ज़ नहीं चुका सकते, यह कहते हुए सबके सामने ज़हर निकाला और खा लिया. उनकी मौत के बाद राज्य सरकार ने 5 लाख मुआवज़े की बात कही थी. पता चल रहा है कि अभी तक पांच लाख का मुआवज़ा नहीं मिला है. प्रकाश पांडे ने नोटबंदी के समय फेसबुक पर इस फैसले का समर्थन किया था मगर उन्हें नहीं पता था कि वे इसके कारण बर्बाद हो जाएंगे.

13 मई को मध्य प्रदेश के भिंड ज़िले में बेरोज़गार मेला लगा थ. इस मेले में खूब ठेला-ठेली रही. बेरोज़गार बेसब्र होते रहे कि आगे निकल जाएं और नौकरी हमें मिल जाए. यहां सबसे रजिस्टर पर नाम लिखाया जा रहा है और इस होड़ में डेस्क पर ही बेरोज़गार गिर पड़ रहे हैं. बिना पुलिसिया इंतज़ाम के आप बेरोज़गारों को संभाल ही नहीं सकते हैं. भिंड, ग्वालियर, चंबल संभाल के चार ज़िलों के लिए ये मेला लगा था. यहां पर इतनी भीड़ बुलाकर भिंड में 67 युवाओं को नौकरी देने का वादा किया गया था लेकिन नौकरी मिली दो को. मुरैना में 136 युवाओं को रोज़गार देने का वादा था लेकिन केवल एक को नौकरी मिली. अब आरोप लग रहे हैं कि इस मेले में जिन्हें नौकरी दी गई थी वे अभी तक बेरोजगार घूम रहे हैं.

अनुराग द्वारी ने बताया कि अब तक राज्य के 86 लाख बेरोज़गारों ने अलग अलग भर्ती परीक्षाओं के नाम पर 350 करोड़ दे चुके हैं. पीएससी में पांच साल में 12 लाख छात्रों ने 80 करोड़ रुपये फीस दी है. राज्य सरकार के कर्मचारी की संख्या कम होती जा रही है. अनुराग द्वारी ने इस बारे में राज्य के उद्योग मंत्री से भी बात की है.

मध्य प्रदेश के भास्कर में सुनील बघेल की खबर छपी है कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेज की फीस चार साल में 3 लाख 75 हज़ार से बढ़कर 9 लाख 90 हज़ार हो गई है. एक साल की. भारत में जितनी सीटें सरकारी कॉलेज में हैं, उससे दुगनी सीटें प्राइवेट कॉलेज में हैं. मजबूरी में ही इनका नाम है वरना छात्रों से बात कीजिए तो पता चलेगा कि प्राइवेट कॉलेज की बात तभी होती है जब सरकारी कॉलेज को बर्बाद करना होता है या प्राइवेट कॉलेज खोलना होता है.

यह ज़िक्र इसलिए किया क्योंकि इंदौर में स्मृति लहरपुरे ने लगातार बढ़ती फीस के दबाव में आत्महत्या कर ली. इंदौर के एक प्राइवेट मेडिकल कॉलेज की छात्रा स्मृति लहरपुरे एमबीबीएस करने के बाद एमडी की पढ़ाई की मनमानी फीस के विरोध में आगे थीं, स्मृति ने सुसाइड नोट में लिखा है कि कॉलेज प्रबंधन ने उन्हें काफी प्रताड़िता किया और फीस इतनी अधिक है कि उनके बस की बात नहीं. एक ज़िंदगी खत्म हो गई. 29 जून को भोपाल एम्स के एमबीबीएस के छात्रों ने कैंडल मार्च किया. स्मृति के मामले में गिरफ्तारी की मांग की. 11 जून की आत्महत्या के बाद अभी तक किसी के गिरफ्तार होने की कोई खबर नहीं है न ही कोई नेता इसे राजनीतिक मुद्दा बना रहा है क्योंकि इस मामले में हिन्दू मुस्लिम का स्कोप नहीं लगता है.

रिजल्ट और उसके बाद नियुक्ति पत्र के लिए आंदोलन तो करना ही पड़ता है मगर फार्म भरने के बाद परीक्षा की तारीख के लिए प्रदर्शन अनिवार्य है. नई दिल्ली में छात्र संगठ आइसा ने रेल भवन के सामने मार्च निकाला कि 90,000 वेकेंसी की परीक्षा की तारीख का जल्दी एलान किया जाए. आप जानते हैं कि रेलवे में ग्रुप सी और डी की 90,000 से अधिक भर्तियां निकली हैं, 31 मार्च तक फार्म भरने की अंतिम तारीख थी. फार्म भरने के बाद तीन महीने बीत गए मगर परीक्षा की तारीख का पता नहीं है. 31 मई को रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड की वेबसाइट पर छपा था कि दो करोड़ 30 लाख से अधिक छात्रों ने फार्म भरा है जिनकी छंटाई हो रही है. मगर तारीख की सूचना उसके बाद नहीं आई है.

यात्रियों की आखिर सुनता कौन है?
रेल मंत्री कह रहे हैं कि देश के 700 स्टेशनों पर वाई फाई की सुविधा दे दी गई है और एक महीने में 80 लाख लोग इसका फायदा उठा सकते हैं. हमने एक स्टेशन का चेक किया कि वहां वाई फाई की सुविधा कितने अच्छे तरीके से काम कर रही है. मुरादाबाद रेलवे स्टेशन पर छह महीने से वाई फाई ठप्प पड़ा हुआ है. वहां पुल बनने के कारण जो वाई फाई का कनेक्शन लगा था उसकी तार कट गई थी. लेकिन आलम देखिए पुल 28 अप्रैल को बनकर तैयार हो गया, अब जाकर वाई फाई के तार फिर से जोड़े जा रहे हैं. छोटी छोटी बातों को दुरुस्त करने में कितना वक्त लग जाता है. दो महीने बीत जाने पर वाई फाई सुविधा फिर से बहाल हो रही है. स्टेशन मास्टर कई बार रेलटेल को पत्र भेज चुके हैं. तब भी इतना वक्त लग गया. शिकायत पुस्तिका में कई शिकायतें की थीं. अब जाकर बन रहा है.

रेल मंत्री सुरक्षा को प्राथमिकता देने का दावा कर रहे हैं. ट्रेनों की देरी के कारण पूछे जाने पर मज़बूती से जवाब दे रहे हैं कि सुरक्षा पहले नंबर पर है और दूसरे नंबर पर समयबद्धता. तो सुरक्षा का एक और पहलू हम उनके सामने रखना चाहते हैं. इसका संबंध सुरक्षा और सुविधा दोनों से है. हमने अखबारों में ढूंढा कि पिछले दिनों में एसी कोच के एसी खराब होने की कितनी शिकायतें आई हैं. यही नहीं गर्मी के दिनों में एसी काम न करने की शिकायतें भी आम होती जा रही हैं. बहुत सी खबरों का पता ही नहीं चलता है.

27 जून के प्रभात खबर की खबर है कि पवन एक्सप्रेस का एसी फेल होने पर यात्रियों ने हंगामा कर दिया. यह ट्रेन लोकमान्य तिलक टर्मिनल से दरभंगा जा रही थी. हालत इतनी खराब हो गई कि यात्रियों ने चेन पुलिंग कर दी. वाराणसी स्टेशन पर एसी ठीक करने पर भी ठीक नहीं हुआ. लिहाज़ा यात्रियों को एसी से उतार कर स्लीपप में बिठा दिया गया. 26 जून की खबर ये है कि कोटा पटना एक्सप्रेस में दो कोच का एसी फेल हो जाने से नाराज़ यात्रियों ने लगातार तीसरे दिन सोमवार को चारबाग स्टेशन पर दो घंटे हंगामा किया और रेल कर्मी की पिटाई की और उनके औज़ार छीन लिए. छह बार चेन पुलिंग हुई. 25 जून को दिल्ली-अमृतसर शताब्दी के बिजनेस क्लास का एसी फेल हो गया. अंबाला में ट्रेन रोक कर यात्रियों ने हंगामा किया. 13 जून की खबर है कि यूपी के उन्नाव ज़िले में गंगाघाट रेलवे स्टेशन पर एसी खराब होने के कारण चंडीगढ़ एक्सप्रेस के यात्रियों ने खूब हंगामा किया. यात्रियों ने कहा कि ट्रेन घंटों लेट थी, कोच में पानी नहीं था और एसी खराब होने से दम घुट रहा था. 6 जून की खबर है हिन्दुस्तान की. इंदौर-पटना का एसी खराब था, हावड़ा अमृतसर का एसी खराब था. यात्री भड़क गए और हंगामा करने लगे. 14 जून की खबर है कि फरक्का एक्सप्रेस का एसी खराब हो गया है. दिल्ली से मालदा टाउन जाने वाली यह ट्रेन उस दिन 14 घंटे लेट चल रही थी. यात्रियों ने हंगामा किया. 17 जून की खबर है कि द्वारिका एक्सप्रेस में एसी कोच में सवार यात्रियों ने हंगामा किया. कई बार चेनपुलिंग की. लखनऊ से ही एसी खराब होने की शिकायत छपी है इस अखबार में. कोलकाता एक्सप्रेस सहित तीन ट्रेनों में एसी फेल होने से हंगामा. आगरा-कोलकाता एक्सप्रेस के दो कोच में कूलिंग न होने से नाराज़ यात्रियों ने चारबाग स्टेशन पर काफी देर तक हंगामा किया. चेनपुलिंग कर 45 मिनट तक ट्रेन रोक दी. लोकनायक एक्सप्रेस और इंटरसिटी एक्सप्रेस में कूलिंग न होने पर शिकायत की गई. यह खबर है कि हमसफर एक्सप्रेस जो गोरखपुर से आनंद विहार जा रही थी, उसका एसी फेल हो गया. इसके कारण एक यात्री बेहोश भी हो गया क्योंकि कोच में घुटन होने लगी थी. ये तो वो खबरें हैं जो छपी हैं, जो न छपती हैं उसका कोई हिसाब नहीं.


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