हमारे समाज में बच्चियां कितनी सुरक्षित?

2012 में पोक्सो एक्ट बना था. इसके तहत बच्चों के साथ बलात्कार के मामले को एक निश्चित समय सीमा के भीतर निपटाने और फैसला देने की व्यवस्था की गई है.

सुप्रीम कोर्ट में बच्चियों के साथ होने वाले बलात्कार के मामलों पर सुनवाई चल रही है. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस दीपक गुप्ता ने अख़बारों में छप रही इन खबरों पर स्वत: संज्ञान लिया और उसे जनहित याचिका में बदल दिया. इसके बाद देश भर के हाईकोर्ट से जो आंकड़े मंगाए गए हैं वो बता रहे हैं कि एक समाज के तौर पर हम कितना खोखला हो चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट ने सीनियर वकील वी गिरी को अमाइकस क्यूरी नियुक्त किया है ताकि वे इस काम में कोर्ट की मदद करें. ये आंकड़े बता रहे हैं कि समाज की तरह सिस्टम भी वैसा काम नहीं कर रहा जैसा करना चाहिए था.

सिर्फ छह महीने में, यानी एक जनवरी 2019 से 30 जून 2019 के बीच भारत में बच्चियों के साथ बलात्कार के 24,212 मामले दर्ज हुए हैं. छह महीने में 24,212 मामले. यानी एक महीने में चार हज़ार. एक दिन में 130 और हर पांच मिनट में एक बलात्कार की घटना दर्ज होती है. यह सब हाईकोर्ट के आंकड़े हैं जो उनकी तरफ से सुप्रीम कोर्ट को दिए गए हैं. 24,212 मामलों में से 11,981 मामलों में जांच ही हो रही है. मात्र 4,871 मामलों में पुलिस ने जांच रिपोर्ट कोर्ट को सौंपी है. बलात्कार के चुनिंदा मामलों को लेकर हिन्दू मुस्लिम की राजनीति छोड़ दें तो बलात्कार के सभी मामले गुमनामी के शिकार हो जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने जानना चाहा था कि जैसे प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेन्स (पोक्सो) के तहत कितने स्पेशल कोर्ट बने हैं, इस एक्ट के तहत कितने सरकारी वकील नियुक्त किए गए हैं, कितने मामलों में एफआईआर दर्ज हुई है, जांच किस स्तर पर है और जिनके ट्रायल पूरे हो चुके हैं. अदालत इन आंकड़ों के ज़रिए बच्चियों के बलात्कार के मामले में जल्दी इंसाफ मिले, एक सिस्टम बनाना चाहती है.

2012 में पोक्सो एक्ट बना था. इसके तहत बच्चों के साथ बलात्कार के मामले को एक निश्चित समय सीमा के भीतर निपटाने और फैसला देने की व्यवस्था की गई है. इसके तहत घटना के बारे में 24 घंटे के भीतर पुलिस को अदालत की सूचना देनी होती है. कोर्ट के साथ बाल कल्याण समिति को भी सूचना देनी होती है. बच्चे की गवाही को 30 दिन के भीतर रिकार्ड करना है. पुलिस को 2 महीने के भीतर जांच पूरी करनी होती है. और कोर्ट में चार्जशीट फाइल करनी होती है. छह महीने में ट्रायल पूरी हो जानी चाहिए.

इन सब व्यवस्थाओं के बाद भी 24,212 मामलों में से मात्र 911 मामलों में ही फैसला आ सका है. यह रिकॉर्ड बेहद साधारण है. ख़राब भी कहा जा सकता है. 11,981 बलात्कार के मामलों में जांच ही चल रही है. 4871 मामलों में पुलिस अदालत को रिपोर्ट सौंप सकी है. 6449 मामलों में ट्रायल शुरू हो सकी है. 911 मामलों में सज़ा हुई है. 

यह समस्या इतनी व्यापक हो सकती है, अगर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान न लिया होता तो बात सामने नहीं आती. देश का कोई इलाका ऐसे मामलों से अनजान नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के कारण यह उजागर हो गया है कि बलात्कार के ऐसे मामलों के लिए कम समय में ट्रायल की व्यवस्था कितनी ख़राब है.

उत्तर प्रदेश में बच्चों के साथ बलात्कार के 3457 मामले दर्ज हुए हैं. 51 प्रतिशत मामलों में जांच ही चल रही है. पुलिस सिर्फ 336 मामलों में जांच रिपोर्ट अदालत को सौंप पाई है. 115 मामलों का ही निस्तारण हुआ है, दर्ज मामलों का मात्र 3 प्रतिशत. ये इलाहाबाद हाईकोर्ट के आंकड़े हैं जो सुप्रीम कोर्ट को दिए गए हैं. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बच्चियों के साथ बलात्कार के मामले में जांच से लेकर ट्रायल शुरू होने तक की व्यवस्था का हाल पता चल रहा है. बिहार में सिर्फ 2 प्रतिशत मामलों में फैसला हुआ है. 17 ऐसे राज्य और केंद्र शासित प्रदेश ऐसे हैं जहां कुछ नहीं हुआ है. जिनका रिकॉर्ड ज़ीरो परसेंट है. मध्य प्रदेश ही एक ऐसा राज्य है जहां इस मामले में सुनवाई का रिकॉर्ड बेहतर है. मध्य प्रदेश में छह महीने के दौरान 2389 बच्चों के बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं. 56 प्रतिशत मामलों में यानी 1337 मामलों में ट्रायल शुरू है मगर केस पेंडिंग है. 247 मामलों में फैसला आ गया है. 10 प्रतिशत का रिकॉर्ड है. 

जिसे हम निपटारा समझ रहे हैं उसका मतलब यह नहीं कि फैसला आ ही गया हो. यह भी हो सकता है कि पुलिस की चार्जशीट खारिज हो गई हो. इसके अलावा और भी कारण हो सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने ज़िलावार आंकड़ा मंगाया है ताकि देखा जा सके कि किन जिलों में बच्चों के साथ बलात्कार की घटनाएं ज़्यादा हैं और वहां क्या किया जा सकता है रोकने और इंसाफ दिलाने के मामले में. सभी राज्यों की जुवेनाइल जस्टिस कमेटी से 10 दिनों के भीतर आंकड़े मंगाए गए हैं. आप जानते हैं कि ऐसे आंकड़े हर साल राष्ट्रीय अपराध शाखा ब्यूरो की रिपोर्ट में आते हैं मगर सरकार के अनुसार फॉर्मेट में बदलाव के कारण 2016 के बाद से डेटा ही नहीं आया है. 2015-16 के दौरान पूरे साल में बच्चों के साथ सभी प्रकार की यौन हिंसा के कुल 36,022 मामले दर्ज हुए थे. इनमें से सिर्फ बलात्कार के कुल 19,765 मामले दर्ज हुए थे. इन सभी मामलों में पीड़ित बच्चियों की संख्या 16,863 थी. और पीड़ित लड़कों की संख्या 3057 थी. ये सभी 18 साल से कम के बच्चे हैं. 

एक तरह से देखिए तो 2015-16 के साल में हर महीने औसतन 1647 मामले बच्चों के खिलाफ दर्ज हो रहे थे. जबकि इस साल के 6 महीने के हिसाब से देखें तो एक महीने का औसत बनता है 4,035. क्या यह शर्मनाक आंकड़ा नहीं है. सोचिए हर महीने के हिसाब से चार साल में 40.81 प्रतिशत मामले बढ़े हैं. आपने सुना तो सिर्फ संख्या. मुझे नहीं पता कि 24212 या 36022 सुनकर ज़हन में क्या तस्वीर उभरी लेकिन आंकड़ों के पार जाकर देखिए तो ये सभी हमारे बच्चे हैं. इनका बचपन कितना असुरक्षित है. ऐसे मामलों में हमारी यही प्रतिक्रिया होती है कि फांसी की सज़ा दो. अभी तक ऐसे कोई तथ्य सामने नहीं आए हैं जिससे पता चले कि फांसी की सज़ा होने से बलात्कार के मामले रुकते हो. रोकने का तरीका कहीं और है. शायद वहां जो इस वक्त सुप्रीम कोर्ट कर रहा है, सिस्टम को खटखटाया जा रहा है. दूसरा तरीका हमारा समाज है. फांसी की सज़ा से सियासत में नंबर तो बढ़ जाते हैं, भावुक राजनीति हो जाती है लेकिन जवाबदेही इस सज़ा से कहीं ज़्यादा की मांग करती है. 24212 मामलों में सुनवाई और जांच का रिकॉर्ड बता रहा है कि क्यों नेता लोग फांसी फांसी कर किनारे हो जाते हैं. वे क्यों नहीं ट्रायल कोर्ट, जांच की व्यवस्था तरीकों पर बात नहीं करते हैं.

बिहार में बाढ़ के कारण 12 ज़िले के 546 पंचायतों के 25 लाख लोग प्रभावित हुए हैं. 25 लोगों की मौत भी हो गई है. असम के 33 में से 30 ज़िले बाढ़ से प्रभावति हैं. 183 राहत शिविरों में 83,000 लोगों को सुरक्षित रखा गया है. 43 लाख लोग प्रभावित हैं. 15 लोगों की मौत हो गई है. गुवाहाटी में भी बाढ़ का ख़तरा हो गया है. 4000 से अधिक गांव डूब गए हैं. अपर असम का सड़क मार्ग से संपर्क टूट गया है. मौसम विभाग ने अत्यधिक बारिश के लिए रेड अलर्ट जारी किया है. प्रधानमंत्री मोदी ने भी मुख्यमंत्री सरबानंद सोनावाल से हालात की जानकारी ली है और केंद से हर तरह की मदद का भरोसा दिया है. मुख्यमंत्री ने बताया है कि व्यापक स्तर पर तबाही हुई है. राहत व बचाव के काम में सरकारी मशीनरी से लेकर विधायकों तक सभी को लगाया गया है. 

असम के नागांव इलाके में पानी की रफ्तार के कारण सड़क टूट गई है. मोरेंगाव के टेंगागुड़ी इलाके का प्राइमरी स्कूल ब्रह्मपुत्र नदी में बह गया. सेंटिनल ने लिखा है कि लखीमपुर में 130 से अधिक गांव बाढ़ में डूब गए हैं. इनमें से 49 गांव पूरी तरह डूब गए हैं. हमारे सहयोगी रतनदीप भी कई जगहों पर जा रहे हैं. रतनदीप ने बताया कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन की टीम गांव गांव जाकर बाढ़ में फंसे लोगों को ढूंढ रही है. इस घर से एक बुज़ुर्ग महिला और बच्चे को बचाया गया है. हज़ारों की संख्या में लोग सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाए गए हैं. काजीरंगा नेशनल पार्क का 70 प्रतिशत हिस्सा बाढ़ की चपेट है. असम के 26 लाख लोग प्रभावित हैं. मेघालय और त्रिपुरा में भी बारिश के कारण स्थिति ख़राब है. त्रिपुरा के आठ ज़िलों में काफी बरसात हुई है. वहां भी 34,000 लोगों को राहत शिविरों में पहुंचाया गया है. अगरतला के आस पास 8000 लोग राहत शिविरों में हैं. मेघालय के 100 गांव बाढ़ से प्रभावित हैं. असम के धुबरी ज़िले के तिलापारा से एक दर्शक मोनव्वर हसन ने अपने गांव की हालत अपने कैमरे से रिकार्ड कर भेजी है.

क्या पोटा कानून का दुरुपयोग नहीं हुआ था. गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि एक भी केस में दुरुपयोग नहीं हुआ लेकिन बीजेपी के डॉ. सत्यपाल सिंह ने कहा कि टाडा और पोटा का दुरुपयोग हुआ. सत्यपाल सिंह ने कहा कि मालेगांव और हैदराबाद की घटना में पोटा और टाडा का दुरुपयोग हुआ. अल्पसंख्य समुदाय के आरोपियों को बचाने के लिए निर्देश दिए गए थे. असदुद्दीन ओवैसी ने जब उनकी बात पर एतराज़ किया तब गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि सुनने की आदत डाल लीजिए, सुनना पड़ेगा.

मीडिया में इसे तकरार और तेवर की खबर बनाकर पेश किया जा रहा है. जो कि कुछ हद तक ठीक है. लेकिन ज़रा सी मेहनत करने पर खबर के दूसरे पहलू भी सामने आते हैं. हैदराबाद के मक्का मस्जिद ब्लास्ट का संदर्भ दिया. 18 मई 2007 को यह घटना हुई थी. 5 बम धमाके हुए थे, 18 लोग मरे थे. अप्रैल 2011 को यह केस सीबीआई से एनआईए के पास आ गया. सबसे पहले राज्य सरकार की पुलिस ने जांच की थी. 16 अप्रैल 2018 की इंडियन एक्सप्रेस की खबर आप देख सकते हैं. 226 गवाहों की जांच के बाद फैसला क्या आया. एनआईए की विशेष अदालत ने मक्का मस्जिद धमाके में गिरफ्तार 5 लोगों को बरी कर दिया. अदालत ने कहा कि जांच एजेंसी किसी को दोषी साबित करने में नाकाम रही है. नवकुमार सरकार, स्वामी असीमानंद, अजय तिवारी, लक्ष्मणदास महाराज, मोहनलाल रतेश्वर और राजेंद चौधरी आरोप मुक्त हुए थे. क्या कभी मक्का मस्जिद ब्लास्ट के आरोपी पकड़े जाएंगे. 11 साल बाद हमारे पास कोई जवाब नहीं है सिवाय सियासी बहस के. क्या इतना आसान है कि एनआईए एक सरकार के तहत असीमानंद को फंसा ले, दूसरी सरकार के तहत बरी होने पर स्वागत हो. अगर फर्जी तरीके से लोग फंसाए गए थे तब पुलिस अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई. कुछ हुई. क्या एनआईए ने कभी बताया कि इस केस में क्या हुआ था कि वह सात में किसी को दोषी साबित नहीं कर सकी. गृहमंत्रालय की तरफ से The National Investigation Agency (Amendment) Bill-2019 पेश किया गया था. यह बिल पास हो गया है. सरकार ने भरोसा दिया कि यह कानून आतंकवाद के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस की नीति को लागू करने के लिए ज़रूरी था. विपक्ष का कहना था कि यह कानून भारत को पुलिस स्टेट में बदल देगा. इस कानून के मुताबिक एनआईए को मानव तस्करी, फेक करेंसी, प्रतिबंधित हथियारों का बनाना और बेचना, साइबर आतंकवाद के मामलों में भी जांच का अधिकार मिल जाएगा. ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए अब विशेष अदालतें भी बनाई जा सकेंगी. कांग्रेस के नेता मनीष तिवारी ने कहा कि एनआईए को इस तरह बिना किसी अंकुश के शक्तियां दी जा रही हैं, ऐसी शक्तियों का इस्तमाल राजनीतिक दुश्मनी के लिए होने लगेगा. कांग्रेस के रवनीत सिंह ने कहा कि एनआईए के केस की तीन महीने के भीतर जांच पूरी होनी चाहिए. गिरफ्तारी के समय तो हंगामा होता है उसके बाद कोई सुध नहीं लेता. गृहमंत्री अमित शाह ने विपक्ष के इन आरोपों को खारिज कर दिया कि इन कानून का दुरुपयोग होगा. उन्होंने विपक्ष पर निशाना साधते हुए कहा कि पोटा का कोई दुरुपयोग नहीं हुआ था लेकिन पोलिटिकल कारणों से उस कानून को हटा दिया गया जिससे आतंकवादियों को मनोबल काफी बढ़ गया था.

क्या वाकई पोटा का दुरुपयोग नहीं हुआ था. 2002 में अक्षरधाम आतंकी हमले के मामले में 6 लोगों को गिरफ्तार किया गया था. इन सभी को पोटा के तहत गिरफ्तार किया था. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया. कोर्ट ने कहा कि जांच एजेंसियों की तरफ से इन सभी को फंसाने के गंभीर प्रयास किए गए थे. इनमें से लोअर कोर्ट ने दो आरोपियों को फांसी की सज़ा दी थी। 11 साल जेल रहने के बाद मोहम्मद सलीम, अब्दुल मियां, अल्ताफ मलिक, अदम भाई अजमेरी, अब्दुल कयूम, चांद खान बरी हुए. अगर पोटा का दुरुपयोग नहीं हुआ था तो ये क्या था. मोहम्मद सलीम ने बरी होने के बाद कहा था कि गुजरात पुलिस ने उससे पूछा था कि गोधरा कांड, हरेन पांड्या हत्याकांड या अक्षरधाम आतंकी हमले में से किसमें बंद करें. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन्हें फंसाया गया लेकिन हम और आप कभी नहीं जान सकेंगे कि इन्हें किसके इशारे पर फंसाया गया और उन लोगों को क्या राजनीतिक लाभ मिला. गृहमंत्री को वाइको का केस भी याद दिलाना चाहिए जो वाजपेयी सरकार के सहयोगी थे. 11 जुलाई 2002 को वाइको पोटा के तहत गिरफ्तार कर लिए गए. एमडीएमके एनडीए की सहयोगी थी. हिन्दू फ्रंटलाइन में वी वेंकटेशन ने लिखा है कि वाइको की गिरफ्तारी के वक्त राजनीतिक दलों की क्या प्रतिक्रिया था. विपक्ष के सदस्य इसे कानून का दुरुपयोग बता रहे थे लेकिन सत्ताधारी एनडीए के सदस्य साफ स्टैंड नहीं ले सके थे. वाइको एनडीए का हिस्सा थे. न दुरुपयोग की निंदा कर रहे थे और न ही गिरफ्तारी का स्वागत कर रहे थे. वाइको ने कहा था कि पोटा विधेयक लाने के लिए एनडीए के साथ वोट करना मेरी राजनीतिक गलतियों में से एक थी. कांग्रेस ने पोटा लगाने के फैसले को ठीक बताया था. वाजपेयी सरकार के कानून मंत्री के तौर पर जना कृष्णमूर्ति ने कहा था कि इसमें सेंटर का रोल नहीं है. कानून व्यवस्था राज्य का मामला है. इस केस को लेकर काफी बहस हुई थी. आप पुरानी खबरों को पढ़ सकते हैं. ये घटनाएं बता रही हैं कि पोटा का दुरुपयोग हुआ करता था.

द हिन्दू की 14 मार्च 2003 की खबर है. तब के गृहमंत्री आडवाणी ने लोकसभा में बयान दिया था कि एक रिव्यू कमेटी बनाई जा रही है जो देखेगी कि पोटा का दुरुपयोग तो नहीं हो रहा है. कमेटी देखेगी कि इस कानून के तहत सामान्य अपराध के आरोपियों के खिलाफ इस्तमाल नहीं हो रहा है.

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गृहमंत्री अमित शाह दावे से कह सकते हैं कि पोटा का दुरुपयोग नहीं हुआ लेकिन दुरुपयोग किस कानून का नहीं हुआ. आतंक के केस में आए दिन सुप्रीम कोर्ट से नौजवान दस दस साल जेल में रहने के बाद बरी होते रहते हैं. राज्य इसकी ज़िम्मेदारी तक नहीं लेता. इनकी गिरफ्तारी तक मीडिया में हेडलाइन बनती है, बहस होती है जब बरी किए जाते हैं तब किसी का ध्यान तक नहीं जाता. 30 मई 2016 की एक खबर बताना चाहता हूं. 1993 में बाबरी मस्जिद ध्वंस की पहली बरसी पर पांच जगहों पर ट्रेन में धमाके हुए थे. इस धमाके के सिलसिले में कर्नाटक के गुलबर्गा के एक नौजवान को जांच एजेंसियां उठा लेती हैं. उसका नाम निसार उद्दीन अहमद था. टाडा के तहत गिरफ्तार किया गया था. टाडा पोटा से पहले का कानून था. निसार 23 साल जेल में रहा. 20 साल का नौजवान 43 साल का हो गया. सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों के अभाव में बरी कर दिया. आज तक यह नहीं पता चला कि किसी को गलत आरोप में गिरफ्तार करने वालों पर क्या कार्रवाई हुई. होती भी नहीं. आप एक दर्शक के रूप में यह सब भूल जाते हैं. मीडिया भूलने में मदद करता है. कायदे से मीडिया को बताना चाहिए कि पोटा हो या टाडा इनका दुरुपयोग हुआ था लेकिन टीवी आपको अमित शाह और ओवैसी के तकरार को दिखाएगा और आपको जोश से भर देगा. आप इंटरनेट पर जाकर निसार की स्टोरी पढ़िएगा. इंडियन एक्सप्रेस के मुज़ामिल जलील ने लिखी थी. नित्या रामकृष्णन ने निसार का केस लड़ा था. राजनीति तो पहले तय कर देती है कि ऐसे आरोपियों का कोई केस नहीं लड़ेगा. सोचिए, कोई केस न लड़े तो कितने ऐसे बेगुनाह आतंक के आरोप में सड़ जाएंगे. आतंक पर कार्रवाई होनी ही चाहिए लेकिन एजेंसी ऐसी बने जो कदम उठाए तो यकीन के साथ उठाए. न कि किसी को उठाकर यकीन पैदा करे.