इन हालात में आम आदमी न्याय की आस कैसे करे?

भारत के न्याय तंत्र की एक खासियत है. यहां के मुकदमे कई पीढ़ियों तक चलते हैं. अच्छी बात है कि इसमें कुछ सुधार हुआ है. भारत के अधीनस्थ न्यायलयों में मुकदमों के निपटारे में औसत समय अब सिर्फ 5 साल लगता है.

तीस हज़ारी कोर्ट में वकील और पुलिस के बीच हिंसक झड़पों का एक और वीडियो सामने आया है. इस वीडियो से संकेत मिलता है कि उस दिन महिला डीसीपी के साथ क्या हुआ. वो वर्दी में थीं. उनके आसपास पुलिस के जवान वर्दी में थे. यह वीडियो हताश करने वाला है. अगर एक डीसीपी इस तरह से घिर जाएं, उन पर इस तरह हमला हो जाए तो फिर आम आदमी कहां सुरक्षित है और किससे सुरक्षित है. बेशक यह सब जांच का विषय है लेकिन कोर्ट ने भी इसकी रिपोर्टिंग पर रोक नहीं लगाई है. वीडियो में जो दिख रहा है वो भयानक है. जब अदालतों का परिसर सुरक्षित नहीं है तो न्याय कहां मिलेगा. दिल्ली में यह घटना हुई है, सुप्रीम कोर्ट से कोई आवाज़ नहीं आई है.

सबसे पहले आप इस वीडियो में आग देखते हैं. आग की लपट अचानक तेज़ ऊपर उठती है. उस तरफ कुछ पुलिस के जवान भागते जा रहे हैं. लेकिन भीड़ उग्र हो जाती है तो जवान अपनी जान बचाते हुए भाग रहे हैं. उन पर हमला हो रहा होता है. कुछ देर बाद वकील भी भागते नज़र आ रहे हैं और पुलिस भी. दो महिलाएं किनारे हो जाती हैं. इनमें से काले कोट में दो महिला वकील भी हैं और और एक महिला साधारण लिबास में हैं. तीनों भीड़ की तरफ देखती हैं. फिर सभी भीड़ की तरफ देखते हैं. कुछ लोग मुंह पर कपड़ा रख कर भागे आ रहे हैं. कुछ पुलिस वाले भागे आ रहे हैं. तेज़ी से भागती हैं. बायीं तरफ देखिए. एक वैन खड़ी है और किनारे आग की लपट उठ रही है. वहां पर पुलिस के जवान भागते नज़र आ रहे हैं लेकिन वकील जवानों को पकड़ कर मारते हैं. एक जवान फंस जाता है. उसे मारा जाता है. सफेद शर्ट में एक शख्स पुलिस के जवान को पकड़ लेता है और मारता है. जवान हाथ नहीं उठाता है. वह हाथ छुड़ा कर उस तरफ भागता है जिस तरह कुछ जवान डीसीपी को कवर कर ला रहे हैं. ज़ाहिर है जवान अपने डीसीपी को कवर कर रहे हैं जान पर खेलकर. डीसीपी के साथ क्या हो रहा होगा अंदाज़ा लगाया जा सकता है. तभी कवर करने वाले जवानों पर वकील चारों तरफ से टूट पड़ते हैं. यह सब सामने से दिख रहा है. डीसीपी कैमरे में दिख रही हैं. उनका सर ढका हुआ है ताकि चोट से बचाया जा सके. उनके पीछे आ रहे एक जवान को वकील खींच लेता है. वहीं खड़ी ईको कार के बगल में ले जाकर मारने लगता है. वह जवान फिर छुड़ा कर डीसीपी को कवर करने भागता है. जवान मार खाता है लेकिन हाथ नहीं उठाता है. वह सामने आ चुकी डीसीपी के पीछे आ जाता है तब फिर उसका कोई हाथ पकड़ खींच कर मारने लगता है. एक सिपाही को ज़ोर से मारता है. आप सफेद शर्ट में एक शख्स को ईंट का टुकड़ा उठाते देखेंगे. ईंट लेकर वह सामने आता है मगर चलाता नहीं है मगर उसके पीछे एक शख्स ईंट चलाता है. तब तक डीसीपी हाथ छुड़ा कर पीछे मुड़ती हैं. मगर कवर करने वाला उन्हें नहीं छोड़ता है. वो आगे ले जाता है. एक महीला अफसर पर वकील टूट पड़े हैं और इस तरह से मार रहे हैं.


पुलिस की गोली से वकील घायल हुए हैं. उसकी जांच हो रही है लेकिन यह वीडियो बताता है कि तीस हज़ारी कोर्ट में क्या परिस्थिति थी. महिला आईपीएस और वो भी डीसीपी को भीड़ ने घेर लिया था. उनके साथ क्या हुआ यह तभी साफ होगा जब वे शिकायत दर्ज कराएंगी. मगर यह वीडियो बताता है कि हमला कितना भयानक था. अगर दिल्ली पुलिस के जवानों ने अपनी डीसीपी को कवर नहीं किया होता तो वो हिंसा की शिकार हो सकती थीं. आप वीडियो में देखेंगे कि जवान मार खा रहे हैं मगर उनकी पहली प्राथमिकता है कि किसी तरह डीसीपी को सुरक्षित निकालना. उन जवानों पर पीछे से हमला हो रहा है लेकिन जवाब में कोई जवान एक मुक्का भी चलाता नहीं दिख रहा है. सब डीसीपी को बचा रहे है. यह सब कोर्ट के परिसर में हुआ है. आगे हम कोर्ट का हाल बताएंगे.

भारत के न्याय तंत्र की एक खासियत है. यहां के मुकदमे कई पीढ़ियों तक चलते हैं. अच्छी बात है कि इसमें कुछ सुधार हुआ है. भारत के अधीनस्थ न्यायलयों में मुकदमों के निपटारे में औसत समय अब सिर्फ 5 साल लगता है. सिर्फ 5 साल ही तो इंतज़ार करना होता है इंसाफ के लिए. भारत के ग़रीब और आम नागरिक एक मुकदमे के निपटारे का पांच साल इंतज़ार करते हैं, न्याय पर भरोसे का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है. 23 लाख केस ऐसे हैं जो 10 साल पुराने हैं. बैकलॉग वाले मुकदमों का 45 प्रतिशत यूपी महाराष्ट्र, बंगाल बिहार और गुजरात में है. यह तो सिर्फ देरी का आंकड़ा है. मुकदमे को कोर्ट तक पहुंचाने के लिए पुलिस सिस्टम की भी हालत खराब है. कहीं पद खाली हैं तो कहीं पदों को कम कर दिया गया है. नॉन रेज़िडेंट इंडियन को छोड़ सभी को यह सच्चाई मालूम है लेकिन न्याय तंत्र में एक निष्पक्ष और चुस्त सिस्टम की मांग बहस के केंद्र में नहीं है. इस संदर्भ में पहली बार एक इंडिया जस्टिस रिपोर्ट आई है.

यह रिपोर्ट गुरुवार को दिल्ली में जारी हुई. टाटा ट्रस्ट की मदद से विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी, सेंटर फॉर सोशल जस्टिस, कॉमन कॉज़, कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, दक्ष, टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंस प्रयास जैसी संस्थाओं ने 18 महीने तक न्यायपालिका के तंत्र पर रिसर्च किया है.  न्यायपालिका के चार स्तभं होते हैं. पुलिस, जेल, कानूनी सहायता और न्यायपालिका. हर राज्य में इन चारों क्षेत्र में पांच साल के ट्रेंड का अध्ययन किया गया है. यह देखने के लिए कि राज्यों में न्याय व्यवस्था तक पहुंच और इंसाफ़ देने में सुधार की नीयत और नीति को लागू करने के लिए क्या क्या किया गया. बजट देखा है, यह भी देखा है कि कोर्ट कचहरी सिस्टम में कितने लोग हैं, कितने लोग नहीं हैं. तभी पता चला है कि भारत का जो जस्टिस सिस्टम है उसकी हालत खराब है. अगर इस समस्या को हम बहस के केंद्र में नहीं लाएंगे तो सारी बातें हवा हवाई हो जाएंगी. इसीलिए आसान है किसी को फर्जी केस में फंसा देना, मुकदमों को अटका देना और ज़िंदगी बर्बाद कर देना. न्याय तंत्र की इन कमज़ोरियों के कारण सत्ता तंत्र में बदमाशों का गिरोह राज करता है.

रिपोर्ट कहती है कि भारत अपनी जीडीपी का मामूली हिस्सा यानी 0.08 प्रतिशत न्यायपालिका पर खर्च करता है. राज्यों में तो और भी बुरी हालत है. इसी फरवरी महीने में कानून राज्य मंत्री पी पी चौधरी ने लिखित जवाब में कहा था कि 2011 की जनगणना के मुताबिक अधीनस्थ न्यायालाय, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मिलाकर दस लाख की आबादी पर 20 जज हैं. जो 2014 में सुधकर दस लाख लोगों पर 17.5 जज हुए. इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के अनुसार 1 करोड़ से अधिक की आबादी वाले 18 राज्यों में 50,000 की आबादी पर एक जज हैं. जो बहुत ही कम है.

2016-17 के साल में एक भी हाई कोर्ट या अधीनस्थ कोर्ट में जजों की संख्या पूरी नहीं थी. 18 बड़े और मध्यम आकार के राज्यों में हर हाईकोर्ट में 25 प्रतिशत जज कम थे. इन 18 राज्यों में से 6 राज्यों में अधीनस्थ कोर्ट के स्तर 25% से अधिक पद खाली हैं. भारत में कुल 23,754 जज होने चाहिए लेकिन करीब 4000 जज कम हैं. अगर सारे पद भर जाएं तो 4071 कोर्ट रुम की ज़रूरत पड़ जाएगी.

सोचिए इस हालत में क्या न्याय मिलता होगा. जजों पर कितना दबाव होता होगा. हमसे अधीनस्थ कोर्ट के जज स्टेशनरी तक की समस्या बताते रहते हैं. बिहार, गुजरात, झारखंड और यूपी के अधीनस्थ कोर्ट में 30 प्रतिशत से अधिक पद खाली हैं. बिहार के अधीनस्थ न्यायलयों में करीब 40 प्रतिशत केस ऐसे हैं जो पांच साल पुराने हैं. यही नहीं इंडिया जस्टिस रिपोर्ट ने 18 राज्यों में पहली बार अदालतों की रैकिंग की है. किस राज्य की न्यायव्यवस्था बेहतर है. इसमें हमेशा की तरह उत्तर प्रदेश आखिरी पायदान पर है. 18 वें नंबर पर है. बिहार यूपी से एक पायदान ऊपर है. 17वें नंबर पर है. झारखंड नीचे से तीसरे नंबर पर है, 16 वें नंबर पर. महाराष्ट्र का स्थान पहला है और केरल का दूसरा. तमिलनाडू का का स्था तीसरा है और पंजाब का चौथा है.

इस रिपोर्ट में न्यायपालिका के तंत्र का दिलचस्प अध्ययन किया गया है जिससे पता चलता है कि एक बार कोर्ट में फंसने के बाद कोई निकल क्यों नहीं पाता है. 22 प्रतिशत पुलिस विभाग में पद खाली हैं. ज़ाहिर है न ठीक से जांच होगी न चार्जशीट बेहतर होगी. जेल में 33 प्रतिशत पद खाली हैं. कोर्ट में 20 प्रतिशत पद खाली हैं. ये सारे आंकड़े 2016-17 के हैं. हालात बेहतर हुए होंगे, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती.

गुजरात अकेला राज्य है जहां 5 साल में पुलिस, जेल और कोर्ट के पदों को कम कर दिया गया है. झारखंड में पांच सालों में ख़ाली पदों की संख्या बढ़ी है. यानी भर्ती नहीं हुई है. 68 प्रतिशत क़ैदी अंडर ट्रायल हैं जिनके केस में जांच या ट्रायल पूरी नहीं हुई है. 5 साल में केवल 13 राज्य ऐसे जहां अंडर ट्रायल की संख्या में कमी लाई गई है.

इस रिपोर्ट के अनुसार किसी भी राज्य में अनुसूचित जाति, जनजाति व अन्य पिछड़े वर्गों का कोटा पूरी तरह नहीं भरा गया है. सिर्फ कर्नाटक हैं जहां सारा कोटा पूरा भरा गया है लेकिन वहां भी अनुसूचित जातियों के कोटे की 4 प्रतिशत सीटें खाली रह गई हैं. बजट की भारी कमी ज्यादातर राज्यों में है. 10 राज्यों में पुलिस के पदों की संख्या में कटौती की गई है. जबकि आबादी बढ़ी है. 24 राज्य ऐसे हैं जहां पुलिस में अफसर स्तर पर 20 प्रतिशत पद खाली हैं. न्याय में भी देरी और बेरोज़गारी में भी बढ़ोत्तरी. इन पदों को भरा जाता तो बेरोज़गारी भी दूर होती और न्याय भी समय से मिलता. 1995 से लेकर विधिक सेवाओं द्वारा मात्र डेढ़ करोड़ लोगों को कानूनी सहायता दी गई है. जबकि 80 फीसदी आबादी गरीब होने के कारण लीगल एड पर निर्भर है. यानी लीगल एड का सिस्टम भी फेल है. निशुल्क कानूनी सहायता के मामले में एक व्यक्ति पर मात्र 75 पैसे खर्च हो रहे हैं. सुशील महापात्रा ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी लोकुर से बात की.


प्रदूषण के मामले में फोकस दिल्ली पर है मगर भारत के बाकी शहर भी कचरे के ढेर से ढंकने लगे हैं. नालियों की सफाई पर खर्च हुए करोड़ों रुपये कहां गए किसी को पता नहीं क्योंकि गंदगी तो वहीं की वहीं है. नतीजा बीमारी इस तरह फैल रही है कि शेष भारत तक खबरें भी नहीं पहुंच पाती है.

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्र और जस्टिस दीपक गुप्त को यह वीडियो देखना चाहिए. अंदाज़ा होगा कि दिल्ली से सटे इलाकों में कचरे के पहाड़ों का क्या हो रहा है. यह उत्तराखंड के रुद्रपुर का है. हमारे दर्शक कमलजीत ने बनाकर भेजा है. ट्रचिंग ग्राउंड में दस दिनों से कचरा जल रहा है. इससे निपटने का यही तरीका बच गया है कि लोग मांग करने लगते हैं कि हमारे यहां से हटाकर इसे कहीं और ले जाया जाए मगर भूल जाते हैं कि वहां भी लोग ही रहते हैं. इसके लिए अलग ज़मीन मिल गई है मगर यह कूड़ा हटेगा कैसे और वहां जाएगा तो पहले ही दिन भर देगा. ट्रचिंग ग्राउंड में कूड़े की जगह नहीं बची है तो हाईवे के बगल में कूड़ा डालकर जलाया जा रहा है. अमर उजाला ने लिखा है कि अगर इसी तरह यह धधकता रहा तो रुद्रपुर की हालत दिल्ली जैसी हो जाएगी. हल्द्वानी, नैनीताल, रुद्रपुर में कूड़े के पहाड़ों की तस्वीर सुप्रीम कोर्ट में पेश की जानी चाहिए. निगमों से यह काम नहीं होगा. होना होता तो हो गया होता. अब देखना चाहिए कि क्या सुप्रीम कोर्ट की सख्ती से कुछ सुधार होगा. 3 लाख की आबादी वाले रुदपुर में यह हाल हो गया है.

लैंड फिल में आग का लगना अच्छा नहीं होता है. वायु प्रदूषण में यह भी बड़ा कारण है. किसानों की तरफ तो सबका ध्यान जाता है मगर छोटे छोटे शहरों में जल रहे इन लैंड फिल की सुध कौन लेगा. जरा कानपुर पर भी नज़र डालिए. 7 नवंबर को कानपुर का एयर क्वालिटी इंडेक्स 366 था जो बहुत ख़राब माना जाता है. 5 नवंबर को एयर क्वालिटी इंडेक्स 444 था. पूरे हफ्ते कानपुर का एयर क्वालिटी इंडेक्स बहुत खराब रहा है. कानपुर में डेंगू के मरीज़ों की संख्या 1200 हो गई है.

कानपुर में हर दिन 1300 मीट्रिक टन कचरा निकलता है. भौति में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट का यह प्लांट आधे कचरे का ही निस्तारण कर पाता है. इस पहाड़ को देखकर आप सोच सकते हैं कि दिल्ली से बाहर कचरे के निस्तारण की क्या हालत है. यही नहीं कानपुर में जगह-जगह कचरे फेंके जा रहे हैं और जलाए जा रहे हैं. जलने के बाद देखने में कचरा कम लगता है मगर इसका धुआं हवा को खराब कर देता है. आग लगाने में निगम के कर्चमारियों की भी भूमिका की बात कही जा रही है. निगम के कर्मचारियों ने बात नहीं की. कानपुर का एयर क्वालिटी इंडेक्स काफी खतरनाक हो गया था. गंदगी के अंबार को देखकर लग रहा है कि कानपुर की संस्थाओं की इच्छाशक्ति समाप्त हो गई है. अमर उजाला की रिपोर्ट के अनुसार कानपुर में डेंगू से 51 लोग मर गए हैं. बुधवार को 8 लोगों की मौत हो गई. कानपुर के सरकारी अस्पतालों में बिस्तर भर गए हैं. आस पास के इलाकों से भी लोग आ रहे हैं. हमारे सहयोगी ने कानपुर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी को मैसेज भी किया मगर आंकड़ों को लेकर कोई जवाब नहीं आया. अमर उजाला में सीएमओ अशोक शुक्ला का बयान छपा है कि हम प्राइवेट पैथोलोजी वालों की डेंगू की रिपोर्ट को नहीं मानते हैं. कानपुर में सिर्फ एक व्यक्ति की डेंगू से मौत हुई है. लेकिन अशोक शुक्ला का ही बयान छपा है कि कानपुर में डेंगू के मरीज़ों की संख्या 1200 से अधिक हो चुकी है.

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जब तक कानपुर और रुद्रपुर जैसे शहरों में कचरे की समस्या पर ध्यान नहीं जाएगा, वहां प्रदूषण के कारणों पर नज़र नहीं जाएगी, सिर्फ दिल्ली दिल्ली करने से क्या होगा. प्रदूषण की नज़र से भारत को देखिए, न्यायपालिका की नज़र से भारत को देखिए आपकी योजनाएं बदल जाएंगी. न तो दिल्ली से भाग सकते हैं और न कानपुर वाले भाग कर दिल्ली आ सकते हैं. अस्पतालों का बिजनेस अच्छा चल रहा होगा. दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स हल्की बारिश के बाद भी ख़राब ही रहा. जब तक भारी बारिश नहीं होगी, दिल्ली वालों को राहत नहीं मिलेगी. हवा का रुख भी दिल्ली की मदद नहीं कर रहा है. ऐसा लगता है कि हवा दिल्ली से कहीं चली जाए. लेकिन जो प्रदूषित हवा है वो अगर दिल्ली वालों के लिए जानलेवा है तो कानपुर और सोनीपत वालों के लिए भी है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 300 जगहों पर जांच हो रही है. आप इस रिपोर्ट को इस लिए देखिए ताकि आप पटना कानपुर और भटिंडा में सवाल कर सकें कि उनके यहां भी प्रदूषण फैल रहा है, दिल्ली के जैसा ही मगर कोई न देखने आ रहा है और न कुछ हो रहा है. दिल्ली गाजियाबाद बॉर्डर पर एक ऐसा इलाका है जहां घनी आबादी के बीच ये फैक्ट्रियां चलती हैं. आबादी के बीच चल रही ये फैक्ट्रियां रात के वक्त बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाती हैं. दिल्ली में इन फैक्ट्रियों को बंद कराना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि फैक्ट्रियों को सील करने का अधिकार जिला प्रशासन के पास, लाइसेंस देखने का काम एमसीडी के पास, प्रदूषण चेक करने का अधिकार दिल्ली प्रदूषण कंट्रोल कमेटी के पास, बिजली काटने का काम बीएसईएस और खतरों से भरी इस कार्रवाई को बिना दिल्ली पुलिस के सहयोग से करना मुमकिन नहीं है. कोर्ट के आदेश के कारण इन विभागों में एकता तो आई है लेकिन वो कितने दिन टिकेगी, ये तो वक्‍त ही बताएगा.