दंतेवाड़ा से खास रिपोर्ट : बंदूक और हल का फासला

दंतेवाड़ा से खास रिपोर्ट : बंदूक और हल का फासला

दंतेवाड़ा के गांवों के आदिवासी बैठक करते हुए

दंतेवाड़ा:

इस बार बस्तर से लौटते समय दो तस्वीरें मेरे सामने थीं। पहली वह तस्वीर, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दंतेवाड़ा में जनसभा को संबोधित कर रहे हैं। यहां वह कहते हैं कि कंधे पर बंदूक नहीं हल होना ही आदिवासियों की समस्या का हल है। प्रधानमंत्री माओवादियों से बंदूक छोड़ने की अपील करते हैं और आदिवासियों को बेहतर ज़िंदगी और रोज़गार का भरोसा दिलाते हैं।

दूसरी तस्वीर इसी जनसभा से कुछ दूर आदिवासियों की मीटिंग की है। यहां आदिवासी नारे लगा रहे हैं, 'जान देंगे पर ज़मीन नहीं देंगे'... चीड़पाल गांव के शिब्बू कड़काम लोगों को बता रहे हैं कि अगर टाटा कंपनी का प्लांट यहां लगता है, तो लोगों का विकास नहीं, विनाश होगा। असल में गांव वालों ने यह मीटिंग सरकार की उस घोषणा के बाद आनन-फानन में बुलाई, जिसमें कहा गया है कि दंतेवाड़ा के डिलमिली और उससे लगे गांवों में एक अल्ट्रा मेगा स्टील प्लांट लगाया जाएगा।

यह स्टील प्लांट खनन कंपनी एनएमडीसी और स्टील निर्माता कंपनी सेल के बीच एक संयुक्त उपक्रम (जेवी) के तहत लगाया जा रहा है। इसमें टाटा का नाम अभी कहीं नहीं है, फिर शिब्बू मड़काम टाटा का नाम क्यों ले रहे हैं? यह जानने के लिए मैं उत्सुकतावश पूछता हूं। यह तो सरकारी कंपनी का प्लांट है, इसमें टाटा कहां है? 28 साल के पांडु वैट्टी आदिवासियों की सभा के पीछे दिख रही पहाड़ी की ओर इशारा करते हुए समझाते हैं, "जानते हैं उधर लोहांडीगुडा में पिछले दस साल से टाटा का स्टील प्लांट लगाने की कोशिश हो रही है। लोगों को मूर्ख बनाया गया है। वहां गांव के बच्चे-बुजुर्ग सब लड़ रहे हैं। कंपनी कोई भी हो अब यहां कोई ऐसी योजना आती है, तो हम उसे टाटा का ही नाम देते हैं।"

निजी कंपनियों ने पिछले कई सालों में आदिवासी इलाकों में जमकर शोषण किया है, लेकिन आदिवासियों को उसका फायदा कभी नहीं मिला है। पांडु वैट्टी और शिब्बू मड़काम के सुर में वही डर है, जो गांव वालों के चेहरे पर साफ दिख रहा है। यहां कोई भी कंपनी आए, उन्हें डर अपने शोषण का ही है। अचानक सभास्थल पर डिलमिली गांव के सरपंच आयतूराम मंडावी की आवाज़ गूंजने लगती है। "मैं कई बार कलेक्टर से पता करने गया कि क्या हमारे गांव में कोई ऐसा प्लांट आ रहा है, लेकिन हर बार हमें कोई जानकारी नहीं दी गई। क्या हम इस सरकार पर भरोसा कर सकते हैं?"

बस्तर और देश के तमाम आदिवासी इलाकों में आज सबसे बड़ी समस्या भरोसे की कमी होना है। आदिवासियों को सरकार की बातों पर तो भरोसा है ही नहीं, वे उन नेताओं को भी शक की नज़र से देख रहे हैं जो उनके लिए आवाज़ उठाने इन इलाकों में आते हैं। डिलमिली, बुरुंगपाल और चीड़पाल समेत कोई ढाई दर्जन गांव सरकार के इस प्रस्तावित मेगा स्टील प्लांट के खिलाफ खड़े हो गए हैं, लेकिन वे राजनीतिक पार्टियों को इससे दूर रखने की बात करते हैं।

"हम इस लड़ाई में नेताओं पर भरोसा नहीं कर सकते। वे हमें या तो वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करेंगे या फिर हमारी ताकत के एवज़ में कंपनी से समझौता कर पैसे ले लेंगे"... सभा को संबोधित करते हुए एक आदमी की आवाज़ आती है।

26 साल के नरेंद्र करमा कहते हैं, "यहां प्लांट आ रहा है यह बता हमें मीडिया के ज़रिये ही पता लगी। हमसे किसी ने बात तक नहीं की है। पिछले दिनों अखबारों में यह छपने लगा कि लोग इस प्लांट के आने से खुश हैं। लेकिन जिन लोगों के नाम से वे बातें छापी गईं, उस नाम के लोग इन गांवों में रहते ही नहीं हैं।"

उधर इस्पात मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर दंतेवाड़ा में प्रधानमंत्री की जनसभा से पहले पत्रकारों को समझाते हैं, "यह सच है कि अभी प्लांट आरंभिक स्थिति में है। लेकिन इससे आदिवासियों का भला ही होगा। मोदी जी की सरकार में जो एमएमडीआर (खनन) बिल लाया गया है, उसमें डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन बना कर इन इलाकों के कल्याण के लिए पैसा जमा करने का प्रावधान है। लोगों को यहां ज़रूर नौकरियां मिलेंगी। उनका भला होगा।"

लेकिन डिलमिली और दूसरे गांवों के लोगों के लिए पुराने अनुभव काफी खराब रहे हैं। पांडु वेट्टी कहते हैं, "सर यहां आदिवासियों के लिए हालात कभी नहीं सुधरते।" मैं पूछता हूं- क्या एनएमडीसी का प्लांट आने से हालात ठीक नहीं हुए है? पांडु वैट्टी – "नहीं सर। पिछले चालीस सालों से स्थानीय लोगों का कोई भला नहीं हुआ है। सरकार तो जैसे कि न्यूज़ के माध्यम से कहती है कि एनएमडीसी ने मुनाफा किया और उसे लोगों के भले के लिए खर्च किया पर ऐसा होता नहीं है।"  

लेकिन क्या ऐसा है कि हालात बिल्कुल नहीं बदले हैं? सुनसान से पड़े रहने वाले दंतेवाड़ा में आज एजुकेशन सिटी और लाइवलीहुड कॉलेज़ दिख रहा है और यहां आकर प्रधानमंत्री ने आदिवासी बच्चों के साथ 'मन की बात' कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग भी की लेकिन शायद यह सारी कोशिश अभी प्रचार तंत्र तक ही सीमित हैं। बस्तर के आम लोगों तक इसका फायदा नहीं पहुंचा है। एनएमडीसी के अलावा एस्सार कंपनी पहले ही यहां खनन कर रही है। इसके अलावा टाटा कंपनी का प्लांट लाने की योजना है। बस्तर के किरनदूर और बचेली में कुल 70 करोड़ टन लोहा है। सवाल उठ रहा है कि क्या बस्तर में निजी कंपनियों की कोई ज़रूरत है?  

सभा में शामिल होने आया एक अन्य आदिवासी का कहना है, "आप अंदर (गांवों में) जाकर देखेंगे तो पता चलेगा कि एक भी व्यक्ति का विकास नहीं हुआ है। एनएमडीसी के इलाके में बस वह टाउनशिप ही है, जहां उनके अपने लोग रहते हैं। वहां से एक किलोमीटर अंदर जाएंगे तो असलियत दिख जाएगी।"

मैं जनसभा से कुछ दूर खड़ा होकर इन लोगों से बात कर रहा हूं। सभास्थल से फिर आवाज़ आती है, "सरकार हमें गार्ड की नौकरी नहीं दे सकती तो कौन सी कंपनी में कौन सी नौकरी देगी। यह हमें घंटी बजाने वाले की नौकरी नहीं दे सकती तो मशीन चलाने वाले की नौकरी कैसे देगी। प्लांट से बड़ी ज़रूरत हमें ट्यूबवेल की है, हैंडपंप की है। सरकार वह लगाए तो हमारा अधिक फायदा होगा।" लोग बताते हैं कि इन सारे गांवों की ज्यादातर ज़मीन बहुफसली है। यहां मक्का और धान के साथ किसान अन्य फसलें और सब्ज़ियां उगाते हैं, जो उनके लिए एक सुरक्षित रोज़गार रहा है। उनकी शिकायत है कि सरकार बंजर ज़मीन पर प्लांट क्यों नहीं लगा रही है।

बुरुंगपाल गांव के प्रधान सुमारू करमा बोलना शुरू करते हैं, "हमारे लोग यहां से बाहर जाकर नौकरी ढूंढते हैं और बाहर वाले यहां आकर नौकरी करते हैं। पास में नगरनार में एनएमडीसी का जो प्लांट आया वहां किसी को नौकरी नहीं मिली।"

इस इलाके में माओवादी नहीं हैं लेकिन वे इस इलाके से बहुत दूर भी नहीं हैं। मैं पूछता हूं कि क्या इन लोगों को इस बात का खयाल है कि सरकार इन गांव वालों को विकास विरोधी या नक्सली समर्थक बताकर जेल में डाल सकती है। आयतूराम मंडावी कहते हैं, "मेरे को उस बात की चिंता नहीं है। मैं नक्सली नहीं हूं। अगर वो मेरे पूरे परिवार को जेल में डाल देते हैं, पूरी बस्ती को जेल में डाल देते हैं और फिर प्लांट लगाए, तो हमें कोई दिक्कत नहीं है।"

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लौटते हुए मुझे प्रधानमंत्री मोदी के शब्द फिर याद आते हैं। कंधे पर बंदूक नहीं हल (रोज़गार) होना ही समस्या का हल है। लेकिन क्या हम इन आदिवासियों के कंधे से उनका हल नहीं हटा रहे?