मैं एहसान जाफरी हूं... सुनिए मेरे और गुलबर्ग के बसने और उजड़ने की कहानी

मैं एहसान जाफरी हूं... सुनिए मेरे और गुलबर्ग के बसने और उजड़ने की कहानी

गुलबर्ग सोसायटी का फाइल फोटो

पिछले कई सालों से हर थोड़े दिन के अंतर पर अखबारों में मेरे बारे में कुछ छपता ही रहता है। टीवी में कुछ न कुछ आता ही रहता है। बहुत सारी कहानियां, कुछ सच कुछ सच्चाई से परे। तो मुझे लगा कि खुद ही दुनिया को अपनी पूरी कहानी बता दूं। तो सुनिये मैं कौन था और क्‍यों मारा गया?

मेरी पैदाइश आज़ादी से पहले ही 1929 में मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में हुई। अब्बा अल्लाहबक्श जाफरी पेशे से डॉक्‍टर थे। सिर्फ 6 साल की छोटी उम्र में ही अहमदाबाद आ गया था। अब्बा की शहर के रखियाल इलाके में एक डिस्पेंसरी थी। मैं भी पुराने शहर के आर सी स्कूल में पढ़ा और फिर बाद में खाडिया इलाके के कॉलेज से बीकॉम किया। मुझे डॉक्‍टर नहीं बनना था सो मैंने कॉमर्स में ग्रेजुएट होने के बाद वकालत की पढ़ाई की।

अब्बा का डिस्‍पेंसरी का जो इलाका था वहां कई सारी कपड़ा मिलें थीं। वो वक्त था जब अहमदाबाद भारत का मैनचेस्‍टर कहलाता था और शहर में 100 के करीब कपड़ा मिलें थीं। इसलिए मैं मिलों में काम करने वाले लोगों से लगातार मिलता रहता था। उन लोगों से मिलते-जुलते कब ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में रम गया, इस बात का पता ही नहीं चला। जाने-माने कम्युनिस्ट एमएन रॉय साहब से मैं बड़ा प्रभावित था। इसलिए शुरुआती दिनों में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव रहा।  
50 के दशक में बडी रेल हड़ताल भी हुई थी। तब मैं भी साथियों के साथ शामिल हो गया था। मुझे और मेरे भाईजान को गिरफ्तार कर वड़ोदरा की जेल में भेजा गया। मेरी बहन को भी पकड़ा था लेकिन वो महिला होने की वजह से दूसरे दिन ही छूट गई। लेकिन मैं और भाईजान करीब एक महीने तक जेल में रहे।  

1962 में मेरी एक रिश्तेदार द्वारा सुझाई गई ज़किया नामक लड़की से मेरी शादी हो गई। ज़किया भी मध्य प्रदेश के खंडवा की थी। शादी के बाद हमारा प्यार परवान चढ़ा और शादी के डेढ़ साल बाद हमारी पहली औलाद हुई तनवीर- जो आजकल सूरत में रहता है और वहीं नौकरी करता है। तब तक राजनीति में कई लोगों से मेरी दोस्ती हो गई थी। गुजरात में कम्युनिस्ट पार्टी का ज्यादा जोर नहीं था और मैं कांग्रेस में जुड़ चुका था। कांग्रेस में कई लोगों ने मुझे राजनीतिक समझ देने में भूमिका निभाई। सबसे ज्यादा मुझे कान्तिलाल घीया साहब और हितेन्द्र देसाई साहब से काफी कुछ सीखने को मिला।
 
1963 में ही मैं डॉक्‍टर गांधी की चाल में रहने चला आया। एक घर किराये पर ले लिया था। चाल के जो मालिक थे, वो पुलिस महकमे में जमादार थे - हम सब उन्हें जमादार साहब के नाम से ही जानते थे। मैं राजनीति में अच्छा खासा दिलचस्पी लेने लगा था, थोड़ी-थोड़ी कांग्रेस में पैठ भी हो गई थी। मैं वकील था तो कई लोग आया जाया भी करते थे। मैं बहुतों के केस फ्री में भी लड़ लेता था - लड़ क्या लेता था उन्हें मुफ्त कानूनी सुझाव दे देता था। उसी वक्त गुजरात सरकार की यानी कांग्रेस सरकार की स्कीम आई थी हाउसिंग बोर्ड की। जहां किसी प्‍लॉट पर मकान बनाने के लिए सरकारी मदद मिलती थी।

मैं जहां रहता था उस डॉक्‍टर गांधी की चाल से सटा हुआ एक बड़ा प्‍लॉट था। हमारे मित्रों ने मिलकर सुझाव रखा कि यहां कुछ मकान बनाये जा सकते हैं, अगर सरकार मदद करती है तो। मैं कांग्रेस में था ही तो सरकार में बैठे लोगों से बातचीत हुई औऱ सरकारी मदद मिलना भी तय हो गया। तो हमने वहां करीब 19 बंगले या कहें कि टेनामेन्ट बनाने की योजना तैयार की।
 
गुलबर्ग सोसायटी
 उस स्कीम का नाम तय किया गया गुलबर्ग - यह बेहद ही खूबसूरत नाम है। वैसे तो ये इस्लामी नाम नहीं है और इसका मतलब होता है गुलाब की पंखुड़ी। इतना खूबसुरत नाम है तो इसे किसी मज़हब से क्यों जोड़े- सो रख दिया और ऐसे अस्तित्व में आई गुलबर्ग सोसायटी। उस वक्त यहां इतनी भीड़ नहीं होती थी। ज्यादातर मिल में काम करने वाले लोग ही आसपास रहते थे औऱ कुछ उनसे जुडे छोटा मोटा काम करनेवाले।

गुलबर्ग सोसायटी में काम शुरू कर दिया था और हम उससे सटे हुए डॉक्‍टर गांधी की चाल में जमादार साहब की निगरानी में रहते थे। इसी बीच 1969 में अहमदाबाद में भयानक सांप्रदायिक दंगे भड़के। इन दंगों की आग ने अहमदाबाद शहर में भाईचारे की भावना पूरी तरह से खत्म कर दी थी। उस वक्त हम गुलबर्ग सोसायटी के प्‍लॉट में अपने वाहन पार्क करते थे और रहते थे पास के अपने घर में। लेकिन उस वक्त भी सांप्रदायिक दंगे होते ही लोगों कि निगाह जैसे बदल जाती थी। जिनके साथ मिलकर रोज़मर्रा के काम करते थे उन्हीं लोगों की नज़र में हम पराये औऱ हमारे लोगों के मज़हब के लिए वो पराये हो जाते थे।

उस वक्त दंगाईयों ने गुलबर्ग सोसायटी में खड़ी मेरी गाड़ी को आग लगा दी थी। जमादार साहब की मेहरबानी से हम लोग पुलिस की वैन में बैठाकर पास के शाहीबाग पुलिस हेडक्‍वार्टर में शिफ्ट कर दिये गये थे। उस वक्त मुझे जहां तक याद है करीब एक या डेढ़ महीना हम पुलिस हेडक्‍वार्टर में ही रहे थे और फिर स्थिति सामान्य होने पर दोबारा अपने घर आ गये थे। तब भी मुझे कई लोगों ने पूछा था कि यहां रहना कितना सुरक्षित रहेगा। लेकिन मुझे हमेशा इंसानियत में भरोसा रहा। इसलिए हमने जल्द ही यहां सभी घर बना लिये और सभी लोग रहने आ गये।

यहां रहना बहुत अच्छा लगता था। सबके अच्छे खासे मकान थे, रहने वाले भी सभी रुतबेदार लोग थे। जगह काफी थी तो बच्चों के खेलने के लिए भी जगह काफी थी और पेड़ भी बहुत सारे थे। यहां रहना मन को अच्छा लगता था। एक वजह ये भी थी कि आसपास की चालियों में भी ज्यादातर लोग जानने वाले थे। वो लोग भी मेरे घर कभी कोई काम लेकर तो कभी दूसरा काम लेकर आते रहते थे। राजनीति में मेरी अच्छी प्रगति हो गई थी। मैं कांग्रेस के शहर के बड़े नेताओं में शुमार होने लगा था। मैंने मेहनत भी बहुत की थी। मज़दूरों में भी मुझे सभी लोग पहचानते थे और सम्मान करते थे।

फिर देश में इमरजेंसी आई, ये तो सभी जानते ही हैं। कांग्रेस के खिलाफ एक माहौल बन गया था। ऐसे में अहमदाबाद की सीट से मुझे कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया गया 1977 में हुए लोकसभा के लिए। लोगों का प्यार इतना था कि जब हमारी नेता इंदिरा जी खुद हार गईं थीं, ऐसे में गुजरात में भी लोक दल की लहर थी तब भी एक मुस्लिम - जो कि वोटर के तौर पर माइनोरिटी ही था - होने के बावजूद भी लोगों ने मुझे जिता दिया और मैं अहमदाबाद का सांसद बन गया। इस प्यार ने इन्सानियत में मेरे भरोसे को और मज़बूत किया।

लेकिन 1978 में इंदिरा जी के खिलाफ कई नेता हमारी पार्टी में ही खड़े हो गए। देवराज उर्स जी के नेतृत्व में शरद पवार समेत हमारे कई नेताओं ने मिलकर अलग पार्टी बना ली। उसका नाम रखा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (उर्स)। मेरे कई अगुआ नेता भी उसी में चले गये थे तो मैं भी उनके साथ चला गया था। 1980 में चुनाव हुए तो मैं कांग्रेस (उर्स) का अहमदाबाद का उम्मीदवार था। हालांकि मैं जीत नहीं पाया।  महज 7000 वोट ही मिले। लेकिन मैं भी सभी के साथ थोड़े समय बाद दोबारा कांग्रेस में आ गया।

फिर आया 1984 - 85 का वक्त। जब पूरे गुजरात में आरक्षण से जुड़े दंगे हुए। गुजरात की कांग्रेस सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को बक्‍शी आयोग की सिफारिश को मानते हुए शिक्षा में और नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया। उस वक्त ज्यादातर अगडे वर्ग के लोग - जिनमें पटेल समुदाय भी शामिल था, बड़े पैमाने पर विरोध में निकले थे। पूरे गुजरात में भारी दंगे हुए थे। राजनीति ने थोड़े समय में अगड़ो-पिछड़ों की दुश्मनी को एक टर्न दे दिया और मामला बदलकर हिंदू-मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक दंगे की शक्‍ल में बदल गया। फिर गुलबर्ग सोसायटी पर दंगाईयों ने हमला किया। लेकिन उस वक्त पुलिस ने अच्छी कार्रवाई की थी और हमारी रक्षा की थी। उस वक्त जहां तक मुझे याद है तब दंगाईयों पर पुलिस फायरिंग में गुलबर्ग सोसायटी के बाहर ही एक दंगाई मारा गया था और फिर कभी कोई घटना नहीं हुई।

लेकिन 84 - 84 के दंगों ने गुलबर्ग सोसायटी के लोगों के मन में एक असुरक्षा की भावना खड़ी कर दी थी। उस वक्त से लेकर 2002 तक करीब 40 प्रतिशत लोग बदल चुके थे। जो उस वक्त रहते थे वो कहीं और रहने चले गये थे और नये लोग गुलबर्ग में रहने आ गये थे। लेकिन इस दौरान भी मेरा आसपास के लोगों से आम दिनों में काफी सौहार्दपूर्ण रिश्ता बना रहा। सिर्फ गुलबर्ग ही नहीं आसपास के लोग भी किसी मुसीबत में मेरे पास आते रहते थे। ईद में मुझे वो मिलने आते थे और दिवाली में मैं कईयों के घर जाया करता था। दिवाली मुबारक के कार्ड भी कई दोस्त बेहद दिली बधाई के साथ भेजते थे। मुझे हमेशा अच्छा लगता था।

मेरे बच्चे भी अब मुझसे दूर हो गये थे। बेटी निशरीन की शादी 84 में हो गई थी और बाद में वो भी विदेश में अपने शौहर के साथ बस गई थी। छोटा बेटा ज़ुबैर 1999 में सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनकर वो भी विदेश में बस गया। सबसे बडा बेटा तनवरी अहमदाबाद से दूर सूरत में नौकरी करता था। लिहाज़ा उसे भी सूरत में ही रहना पड़ता था। ऐसे में मुझे गुलबर्ग सोसायटी से औऱ लगाव हो गया क्योंकि आसपास के लोगों ने मुझे कभी अकेला महसूस नहीं होने दिया। वैसे बुरे दिनों में सुरक्षा के लिए मेरे पास एक लाइसेंसी रिवॉल्‍वर भी था।

फरवरी 2002 का महीना
फिर आया वो खौफनाक फरवरी 2002 का महीना। 27 फरवरी को खबर आई कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस जला दी गई है और अयोध्या से वापस आ रहे कई लोग मारे गये हैं। आरोपी मुस्लिम थे और विक्टिम हिंदू। उसी दिन दोपहर से माहौल में अजब सी एक घबराहट महसूस हो रही थी। रात को हमारी गुलबर्ग सोसायटी के एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी भी आये और कहा कि सभी को कुछ दिनों के लिए कहीं और चले जाना चाहिए।

लेकिन मुझे लगा कि नहीं हम हमेशा से यहां रहते आये हैं और कभी कुछ नहीं हुआ और फिर पुलिस तो है ही हमारी सुरक्षा के लिए। कई परिवार चले गये लेकिन मैं और कुछ और परिवार यहीं रहे। मैं मना रहा था कि अगर दंगे हों भी तो जल्द खत्म हो जायें। मुझे सूरत जाना था तनवीर की बेटी दक्षिण भारतीय नृत्य सीख रही थी और जल्द ही उसका भरतनाट्यम का कार्यक्रम था। मुझे उसमें किसी भी सूरत में शामिल होना था।

लेकिन 28 फरवरी का दिन सुबह से ही सभी को डरा रहा था। गुलबर्ग सोसायटी के दरवाजे पर पुलिस का पहरा था इसलिए मैं आश्वस्त था। सुबह 10 बजे से ही दंगाईयों की भीड़ गुलबर्ग के बाहर जमा हो रही थी। आसपास की चालियों में जो मुस्लिम रहते थे उसमें से ज्यादातर जा चुके थे और थोड़े लोग गुलबर्ग में शरण लेने पहुंचे थे। उन्हें विश्वास था कि जाफरी साहब रसूखदार इंसान। पूर्व सांसद भी रह चुके हैं, सत्ता में उनकी सुनी जाती है। पुलिस अधिकारियों से लेकर बड़े-बड़े राजनेताओं के साथ उनके संबंध हैं। इसलिए कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए।

शुरुआत में पुलिस ने एकाध बार कुछ लोगों को वहां से भगाया भी। ज्‍वाइंट पुलिस कमिश्नर साहब आकर मुझे आश्वासन दे चुके थे लेकिन 11 बजे के बाद परिस्थिति ठीक नहीं लग रही थी। धीरे धीरे लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। मैंने मेरे मित्र और म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में स्‍टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन बदरुद्दीन शेख को फोन किया। उन्होंने भी भरोसा दिलाया कि उन्होंने पुलिस कमिश्नर से बात की है और वो कार्रवाई करेंगे। फिर भी बाहर भीड़ कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी। अब धीरे धीरे सोसायटी में पत्‍थरबाजी और जलती हुई चीजें फेंकी जा रही थी। कुछ मकानों में आग लग गई थी। सोसायटी का मैं चेयरमेन था, तो सभी गुलबर्ग वासी मेरे पास ही थे। हम मिलकर जो भी हाथ में आ रहा था इससे लोगों का मुकाबला कर रहे थे।

ज़किया बहुत ही घबराई हुई थीं। सोसायटी में धुंआ-धुंआ हो गया था। कई लोग अब सोसायटी में घुस आये थे और वो पूरी तरह से हथियारों से लैस थे। केरोसीन, पेट्रोल जैसे ज्वलनशील पदार्थ लिये हुए हजारों लोग, तलवार, खंजर औऱ पाईप जैसे हथियार लिये हुए थे। ज्यादातर लोग मेरे साथ मेरे घर में आ गये थे, मैंने दरवाजा बंद कर दिया था। हमारे कुछ साथी तो बाहर ही मारे जा चुके थे, सोसायटी में बची ज्यादातर महिलायें और बच्चे मेरे घर में आ गये थे। सभी महिलाओं और बच्चों को मैंने ऊपर की मंजिल पर भेज दिया था।
सुबह से पुलिस ने कई फायरिंग की थी लेकिन किसी को कुछ हुआ नहीं था। मेरी मौत के बाद पुलिस जांच में पता चला कि पुलिस ने करीब 61 राउंड गोलियां चलाई थीं लेकिन एक भी व्यक्ति को मामूली चोट भी नहीं आई थी। मेरे घर में सभी जालियां बंद थीं। लेकिन बाहर से भीड़ जलती हुई चीजें भी अंदर फेंक रही थी। सांस लेना भी दूभर हो गया था। मैंने अंतिम उपाय के तौर पर अपनी लाइसेन्स वाली रिवॉल्‍वर से फायरिेंग की। कुछ लोगों को शायद चोट लगी लेकिन कोई असर नहीं हुआ। मैं समझ नहीं पा रहा था कि हमने और हमारी सोसायटी और बाहर से यहां शरण लिये हुए लोगों का क्या गुनाह था जो ये लोग हमारे खून के प्यासे थे।

मुझे एक अंतिम उपाय करने का मन में आया। दरवाजे टूटने की कगार पर थे, घर में धुंए में सांस लेना दूभर था। मुझे लगा कि अगर मैं सच्चा नेता हूं तो मुझे अपनी कुर्बानी देकर भी इन लोगों को बचा लेना चाहिए। मैंने दंगाईयों को कहा कि आप लोग मेरा जो चाहे हश्र कर दो। मैं बाहर आ रहा हूं लेकिन इन मासूम औरतों और बच्चों को बख्श दो। मैं बाहर निकल आया। अपने आप को उनके हवाले कर दिया। फिर मेरी सुध-बुध जैसे खो गई। इतने लोग, कोई तलवार मार रहा था, कोई चाकू-खंजर चला रहा था। शरीर का कोई हिस्सा नहीं था जहां खून नहीं था, मुझे घसीटकर सोसायटी के बाहर ले जाया गया। कुछ मुझ पर केरोसीन या पेट्रोल पता नहीं क्या डाल रहे थे। मुझे आग लगा दी गई लेकिन मेरी चीख नहीं निकल पाई। मैं तो कब का मर चुका था। मुझे पता था कि मुझे जनाज़ा भी नसीब नहीं होगा। पता नहीं मेरी कुर्बानी काम आई की नहीं क्योंकि मैं तो अब आत्मा या रूह जो कहें रह गया हूं।

देखता हूं सीरिया, अमेरिका, यूरोप, इराक, ईरान, कोरिया... हर कहीं आग की लपटें ही हैं-कहीं कम कहीं ज्यादा। धुंआ बहुत ऊपर तक आने लगा है। लेकिन फिर भी इंसानियत में मेरा भरोसा बरकरार है - ये धुंआ कभी तो छंटेगा। कभी तो सब समझेंगे कि सभी के लहू का रंग सिर्फ और सिर्फ लाल है।

(राजीव पाठक एनडीटीवी के चीफ करस्पांडेंट हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।


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