अफ़शां अंजुम : अगर इस बात पर ना आया ग़ुस्सा तो किसी बात पर नहीं आना चाहिए

नई दिल्‍ली:

बरेली के आठ गांवों की लड़कियां पढ़ने में आगे हैं लेकिन उनकी स्कूल जाने की हिम्मत टूट रही है। शेरगढ़ के एक स्कूल में पढ़ने वाली इलाक़े की 200 लड़कियों में से एक-एक कर हरेक की कोशिश बेकार जा रही है। 35 ने स्कूल जाना पूरी तरह छोड़ दिया है। वजह? स्कूल जाने का रास्ता आसान नहीं है।

कुल दस किलोमीटर में पहले तीन किलोमीटर से ज़्यादा पैदल चलना पड़ता है। लेकिन असल मुश्किल आती है जब इन्हें 2.5 किलोमीटर नदी पार करनी पड़ती है वो भी चपटी नाव पर। ये रास्ता क्यों ख़ौफ़नाक है? यहां रोज़ इनका इंतज़ार करते लड़के ठीक उसी वक़्त नहाने आते हैं, आपस में गाली-गलौज शुरू करते हैं, पानी फ़ेंकते हैं, इनके गीले हो जाने पर वीडियो बनाते हैं और कुछ तो हाथ पकड़ने के लिए भी पास आ जाते हैं।

लड़कियों में से कईयों ने पुलिस के पास जाने की कोशिश की। लेकिन वो कहती हैं कि रिपोर्ट ख़ुद उन्हीं के परिवार के ख़िलाफ़ लिख दी गई, ये कहकर कि उन्होंने बेचारे लड़कों की पिटाई की है। देश के हर कोने में लड़कियों के लिए नए-नए इम्तिहान इंतज़ार करते रहते हैं। चाहे गुड़गाव में किसी हाई-प्रोफ़ाइल पोज़िशन पर काम करने वाली महिला हो या फिर दिल्ली की किसी बस में कॉलेज जाती स्टूडेंट हो। लेकिन संघर्ष की भी अपनी सीमाएं होनी चाहिए। एक ऐसे देश में जहां रोटी खाना संघर्ष है, वहां सांस लेने की छूट तो होनी चाहिए, स्कूल जाने की आज़ादी तो होनी चाहिए। न्यूज़-चैनल हमें ये तो बताते हैं कि दुनिया में क्या हो रहा है लेकिन ये भी कि इन कहानियों के बीच इंसानियत कभी-कभी दम तोड़ देती है।

बरेली के गांवों से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं जब दिल्ली के आनंद पर्वत में 32 बार चाकू घोंपकर एक लड़की की हत्या होती है और मुख्यमंत्री को इसके बदले में अपनी रिकॉर्डेड आवाज़ टीवी पर चलवानी पड़ती है, मिन्नतें करते हुए कि प्रधानमंत्री 'समय निकालकर' राजधानी की सुरक्षा के बारे में भी सोचें। बरेली के सांसद कहते हैं कि वो इस डर से कुछ नहीं कर पाते कि ये मामला सियासी रंग ले लेगा।

ग़ुस्सा आना चाहिए। लेकिन दूसरों को मारने या ऐसे मुद्दों पर चिल्लाने के लिए नहीं। ये समझने के लिए कि दुनिया हमें सिर्फ़ बॉलीवुड और क्रिकेट के लिए नहीं जानती। बल्कि औरतों के साथ बदसलूक़ी में भी 'मेरा भारत महान' है।

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छोटे-छोटे क़स्बों में पढ़ाई करने के लिए बेचैन बच्चियों को सिर्फ़ घर के पास एक स्कूल ही नहीं चाहिए। उन्हें आस-पास ऐसे परिवार और मां-बाप भी चाहिए जो अपने बेटों को सिखाएं कि इन्हीं लड़कियों में कल उनकी बेटियां भी हो सकती हैं जिन्हें स्कूल छोड़ने का ज़िम्मा उन्हें शायद ख़ुद उठाना पड़ेगा।