यदि तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया तो संभावित खतरे

इस केस की जड़ें दरअसल 16 अक्‍टूबर, 2015 को दो जजों की बेंच के एक निर्णय के दूसरे हिस्‍से में निहित है.

यदि तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया तो संभावित खतरे

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

वकील इस मसले पर अपनी दलीलें रख चुके हैं. संविधान पीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है. लिहाजा जुलाई में उनके फैसले के आने तक हमको इंतजार करना होगा. तब तक यह मामला विचाराधीन ही है. ऐसे में हमको इस मसले पर सतर्कता से बातचीत करनी होगी. इस केस की जड़ें दरअसल 16 अक्‍टूबर, 2015 को दो जजों की बेंच के एक निर्णय के दूसरे हिस्‍से में निहित है. इसके तहत हिंदू उत्‍तराधिकार एक्‍ट, 1925 के एक केस की सुनवाई करते हुए जजों ने अटॉर्नी जनरल और नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी को निर्देश देते हुए इस मसले पर जनहित याचिका (PIL) का मार्ग प्रशस्‍त करने का निर्देश दिया ताकि सुप्रीम कोर्ट स्‍वत: संज्ञान (अपनी इच्‍छानुसार) लेते हुए 'मुस्लिम महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव' के सवाल का परीक्षण कर सके क्‍योंकि ''मनमाने तरीके से तलाक देने और पहली शादी के रहते हुए पति के दूसरी शादी करने की स्थिति में उस महिला के सम्‍मान और सुरक्षा की रक्षा का कोई प्रावधान नहीं है.''  

यदि यह तरीका संविधान के अनुच्‍छेद 14, 15 और 21 का उल्‍लंघन पाया गया तो ऐसी दशा में मुस्लिम पर्सनल लॉ के ''भेदकारी प्रावधानों की जगह राज्‍य के कानून को तरजीह दी जा सकती है, ठीक उसी तरह जिस तरह सती प्रथा के मामले में किया गया.'' इस मामले में दो पूर्ववर्ती केसों का हवाला दिया जा सकता है, जिसके तहत ''शादी और उत्‍तराधिकार से संबंधित कानून धर्म का हिस्‍सा नहीं हैं.''

पांच सदस्‍यीय बेंच के समक्ष तीन तलाक की 'संवैधानिकता' के सवाल पर दलील देते हुए अटॉर्नी जनरल ने रेखांकित किया कि सती प्रथा, भ्रूण हत्‍या, बहुविवाह, बाल विवाह, देवदासी प्रथा और अस्‍पृश्‍यता के मसले पर कानून बनाकर इनको समाप्‍त किया गया, जबकि इनके पक्ष में भी धार्मिक मान्‍यताओं का हवाला दिया गया था. इन आधारों की पृष्‍ठभूमि में तीन तलाक को भी ''अंसवैधानिक'' ठहराता जा सकता है. उन्‍होंने कहा कि यदि कोर्ट भी कमोबेश इसी तरह के निष्‍कर्ष पर पहुंचता है तो सरकार इससे संबंधित कानून अस्तित्‍व में लाएगी.

इस संदर्भ में मुस्लिम समाज में तीन तलाक की व्‍यापकता (चलन) के अहम सवाल का जिक्र नाममात्र ही किया गया. अटॉर्नी जनरल ने स्‍वेच्‍छा से न ही इस जानकारी को दिया और न ही कोर्ट ने इस बाबत उनसे ऐसा करने को कहा. अटॉर्नी जनरल ने इसको व्‍यापक और सुदीर्घ कुरीति से संबद्ध करते हुए इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठाए. तीन तलाक मुस्लिम समाज में न ही सामान्य, बारंबार और न ही व्‍यापक रूप से चलन में है. आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) की तरफ से पैरवी कर रहे कपिल सिब्‍बल ने इस पहलू के बारे में रेखांकित करते हुए कहा कि कुल मुस्लिम तलाकों में आधा प्रतिशत से भी कम यानी 0.44% ही तीन तलाक के मामले देखने को मिले हैं.

अब हमारे पास इस संदर्भ में अधिक जानकारी है. कोर्ट में सुनवाई पूरी होने के बाद सेंटर फॉर रिसर्च एंड डिबेट्स इन डेवलपमेंट पॉलिसी ने अबुसालेह शरीफ और सैयद खालिद की एक रिपोर्ट दी. 20,671 मुस्लिमों (16,860 पुरुष और 3,811 महिलाएं) पर रैंडम सैंपल के आधार पर तैयार इस सर्वे के नतीजों से यह उजागर हुआ कि मुस्लिम समुदाय में महज 0.3 प्रतिशत मामले ही तीन तलाक की श्रेणी में आते हैं. चूंकि यह नतीजे 18 मई को कोर्ट की सुनवाई पूरी होने के दो सप्‍ताह बाद प्रकाशित हुए, इसलिए मैं इस बारे में आश्‍वस्‍त नहीं हूं कि संवैधानिक बेंच इस पर गौर कर सकती है. लेकिन इस रिसर्च के निहितार्थों के आधार पर कह सकते हैं कि कपिल सिब्‍बल के 0.44% और इस सर्वे का 0.3% प्रतिशत आंकड़ा यह बताता है कि मुस्लिम समुदाय में तीन तलाक का चलन व्‍यापक नहीं है. इस आधार पर कहा जा सकता है कि किसी जमाने में बहुधा चलन में रहीं हिंदू कुरीतियां जिस तरह समाप्‍त हो गईं, उसी तरह से अनैतिक  तीन तलाक के मसले पर सिब्‍बल ने कहा कि यह भी 'समाप्‍त' होती प्रथा है.    

इस सर्वे में यह भी पाया गया कि जिन 20 हजार मुस्लिमों के सैंपल लिए गए, उनमें से केवल 331 ही तलाकशुदा थे. इसके साथ ही देश की जनगणना (2001) के आंकड़ों के निष्‍कर्षों के आधार पर कहा जा सकता है कि बहुसंख्‍यक समुदाय की तुलना में मुस्लिमों में तलाक की दर अपेक्षाकृत कम है.

तलाक की वजह से जो बड़ी समस्‍या खड़ी होती है, वह समुदाय से ताल्‍लुक न रखकर आम सामाजिक महत्‍व की है. सर्वे के मुताबिक 20 हजार मुस्लिमों में से जो 331 तलाकशुदा लोग थे, उनमें से केवल एक महिला ने तीन तलाक की विभीषिका को सहा. इसके अलावा एक तिहाई से अधिक (36%) के 'तलाक' हुए, यानी बुजुर्गों और परिवार और परिवार के सदस्‍यों के समक्ष तीन महीनों में से हर एक महीने में एक बार तलाक कहा गया. 25 प्रतिशत काजी या दारुल काजा के समक्ष दिए गए. 21 प्रतिशत कोर्ट या कानूनी नोटिस के जरिये दिए गए और 17 प्रतिशत एनजीओ, पुलिस स्‍टेशन या पंचायत के समक्ष दिए गए. दूसरे शब्‍दों में यदि कहा जाए तो गैर-मुस्लिम शादियों की तुलना में मुस्लिम शादियां न सिर्फ ज्‍यादा स्थिर हैं बल्कि अधिकांश मुस्लिम तलाक एक लंबी प्रक्रिया के बाद ही होते हैं जिसमें परिजन, मित्र और समुदाय दंपति को अपने मतभेद सुलझाने के लिए हर संभव मदद करते हैं. हैरानी की बात यह है कि मुस्लिम आपके और हमारे जैसे ही हैं-यहां तक कि थोड़ा बेहतर.  
 
यहां तक‍ कि 331 लोगों के जो तलाक हुए उनमें से 126 महिलाओं ने तलाक की इस प्रक्रिया 'ख़ुला' को शुरू किया. दूसरी तरफ 134 पुरुषों ने 'तलाक' की प्रक्रिया को शुरू किया. यानी तलाक की प्रक्रिया को शुरू करने के मामले में इन दोनों की संख्‍या कमोबेश समान ही रही. और यदि इसमें महिला के अभिभावकों (54) द्वारा शुरू की गई इस प्रक्रिया को जोड़ दिया जाए तो 'ख़ुला' की संख्‍या 134 के मुकाबले बढ़कर 180 तक पहुंच जाती है. इस लिहाज से यदि देखा जाए तो इस्‍लाम में महिलाओं को पुरुषों की तरह ही अधिकार दिए गए हैं ताकि वह असहनीय शादी से बच सके.    

इसके अतिरिक्‍त इस्‍लाम में तलाकशुदा व्‍यक्ति के पुनर्विवाह पर कोई निषेध नहीं है. सर्वे के मुताबिक तलाकशुदा 78 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं की फिर से शादी हुई. शरियत पर आधारित इस्‍लामिक लॉ में तलाकशुदा महिला का पुनर्विवाह आम और सामाजिक सम्‍मत है. यद्यपि मुस्लिम तलाकशुदा महिला को यदि कोई उपयुक्‍त और इच्‍छुक व्‍यक्ति मिलता है तो वह उससे आसानी से शादी कर सकती है लेकिन इसकी तुलना में हिंदू समुदाय में इस संबंध में व्‍यापक और मजबूत निषेध है.

यदि तीन तलाक के गंभीर परिणामों को मान भी लिया जाए तो भी यह स्‍पष्‍ट है कि तीन तलाक या या किसी अन्‍य प्रकार के तलाक से मुस्लिम महिलाओं की आगे की राह समाप्‍त नहीं होती. जबकि इसकी तुलना में हिंदू महिलाओं या अन्‍यों में ऐसा ही मोटे तौर पर देखने को मिलता है.
 
शरीफ/खालिद रिपोर्ट में 2001 की जनगणना के आधार पर कहा गया है कि पृथक या छोड़ी गई महिलाओं की संख्‍या देश में 20-30 लाख है. मुस्लिम महिलाओं के लिहाज से यह आंकड़ा केवल 2.8 लाख है (ईसाईयों में यह आंकड़ा 90 हजार और अन्‍य 'अल्‍पसंख्‍यक धार्मिक समुदायों' में यह आंकड़ा 80 हजार है.) सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि बिना किसी औपचारिक तलाक के अलगाव या छोड़ने का मसला बहुसंख्‍यक समुदाय का मसला है लेकिन इस पर ध्‍यान नहीं दिया गया है. इसके नतीजे भी वैसे ही भयावह है जिस तरह का मसला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष है.  
 
यह कहना भी युक्तिसंगत है कि हमारे देश में गरीब विधवा महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक दशा वास्‍तव में शोचनीय है. जनगणना के मुताबिक इस तरह की महिलाओं की संख्‍या देश में 4.30 करोड़ है. संभव है कि इनमें से कुछ 'गरीब' नहीं हो, लेकिन इनमें से अधिसंख्‍य गरीब ही हैं. हालांकि सामुदायिक स्‍तर पर आंकड़ा नहीं दिया गया है लेकिन भले ही चाहें वे जिस धार्मिक समुदाय से हों, लेकिन इनकी सामाजिक और आर्थिक दशा पर विचार किया जाना चाहिए. मुस्लिम महिलाओं के पास तो पुनर्विवाह का विकल्‍प है. देश में विधवाओं की स्थिति विशेष रूप से गरीब हिंदू विधवाओं की दशा पर पर इसी तरह जनता के बीच ध्‍यान आकर्षित कराया जाना चाहिए जिस तरह तीन तलाक के मसले पर इस वक्‍त हो रहा है.  

इस सर्वे का निष्‍कर्ष यह है कि ''तलाक'' के बाद ''महिलाओं ओर बच्‍चों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति खतरे में पड़ जाती है.'' लेकिन यह किसी भी समुदाय में तलाक के किसी भी स्‍वरूप पर लागू होता है. पर्सनल लॉ या सिविल लॉ दोनों ही मामलों में यह लागू होता है. यह खास तौर पर किसी एक समुदाय से ताल्‍लुक नहीं रखता.  

भगवा ब्रिगेड इसको सुनहरे अवसर के रूप में इस तरह पेश कर रही है जैसे कि मुस्लिम एक बर्बर समुदाय है जो 'पत्नियों को बदलने' और 'वासना की पूर्ति के लिए' 'बेवजह' तलाक का इस्‍तेमाल करती है (जैसा कि यूपी में श्रम और रोजगार मंत्री स्‍वामी प्रसाद मौर्य ने कहा.)  मौर्य ने कहा था, ''...तीन बार तलाक बोलकर पति अपनी ही पत्नी एवं बच्चों को सड़क पर भीख मांगने के लिये छोड़ देते हैं.'' उन्होंने कहा कि मुस्लिम बिना कारण, बेवजह और मनमाने तरीके से अपनी पत्नियों को तलाक दे देते हैं.

इससे पहले नरेंद्र मोदी ने तीन तलाक के मुद्दे को उठाते हुए कहा,''मुस्लिम महिलाओं के साथ न्‍याय होना चाहिए.'' लेकिन सभी महिलाओं के साथ ऐसा क्‍यों नहीं होना चाहिए? क्‍या हिंदू महिलाएं 'न्‍याय' से मुक्‍त हैं. उसके अगले ही दिन यूपी के नवनिर्वाचित मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ ने कहा, ''मुस्लिमों में तलाक महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण के समान है.''

इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने स्‍पष्‍टीकरण देते हुए कहा कि बेंच (इस बेंच में सिख चेयरमैन, मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी और हिंदू सदस्‍य हैं) केवल तीन तलाक की संवैधानिकता के मसले पर ही गौर कर रही है. हम उनके निर्णय का इंतजार कर रहे हैं. लेकिन कल्‍पना करिए कि यदि कोर्ट इसको 'असंवैधानिक' करार देती है तो सवाल उठता है कि लोकसभा में जहां मुस्लिमों की अब तक की सर्वाधिक न्‍यूनतम संख्‍या (22) है और यह पूरे सदन का संख्‍याबल के लिहाज से महज 4.2 प्रतिशत है, मुस्लिम 'शादियों और तलाक' पर कानून बनाने में समर्थ होगी?

बड़ी मुश्किलों और पुरातनपंथी विचारों के प्रबल विरोध के बाद जब हिंदू लॉ बना था तब सदन में हिंदुओं की बहुतायत थी. पहली लोकसभा के रिकॉर्ड के आधार पर मैं यह कहना चाहूंगा कि उस कार्यवाही में किसी मुस्लिम सदस्‍य ने हिस्‍सा नहीं लिया था. ऐसे में सवाल उठता है कि क्‍या 520 गैर-मुस्लिम सदस्‍य मुस्लिम पर्सनल लॉ का भाग्‍य निर्धारण करेंगे?     
यह सही है कि कोर्ट ने 'तीन तलाक' के अलावा अन्‍य मुद्दों को बहस के दायरे से बाहर रखा है लेकिन केंद्र सरकार की तरफ से पेश अटॉर्नी जनरल ने यह नहीं कहा कि कानून तीन तलाक तक ही सीमित रहेगा बल्कि 'शादी और तलाक' (उत्‍तराधिकार) के मुद्दे इसके दायरे में होंगे.  

हिंदुओं के लिए विवाह धार्मिक संस्‍कार है. मुस्लिमों के लिए निकाह एक समझौता है. इसलिए शादी में बेटी की 'विदाई' के वक्‍त हिंदुओं (उत्‍तर भारतीय) की तरह मुस्लिम परिवार की आंखों में आंसू नहीं होते क्‍योंकि उनके यहां यह नहीं माना जाता कि हमेशा के लिए घर छोड़कर नहीं जाती. उसको धार्मिक सम्‍मत अधिकारों के मुताबिक जन्‍म के परिवार के पुरुष सदस्‍यों से जीवन भर सुरक्षा की गारंटी होती है और पुरुष सदस्‍य की मौजूदगी में वक्‍फ का सहारा होता है. यह भी सही है कि इसको उल्‍लंघन की स्थिति में नहीं बल्कि आसानी से देखा-समझा जा सकता है. लेकिन इनमें व्‍याप्‍त खामियों को विधायिका और कार्यपालिका के जरिये दुरुस्‍त किया जा सकता है. इसके बावजूद यदि कोई खामी रहती है तो मुस्लिम पब्लिक ओपिनियन लेकर उसको ठीक किया जाना चाहिए.    

इसके लिए मुस्लिमों के पास में 'ijtihad' के रूप में एक सशक्‍त हथियार है. यह बदलती जमीनी हकीकत के अनुसार कानून की पुर्नव्‍याख्‍या का अधिकार है. सभी इस्‍लामिक आख्‍याओं के आधार पर इसकी व्‍यवस्‍था की गई है. इसीलिए AIPMB (आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड) ने तीन तलाक को 'पाप', 'निषिद्ध', 'अवांछनीय' करार देते हुए कहा है कि वह निकाहनामा में महिलाओं के हितों और सुरक्षा को ध्‍यान में रखते हुए विशेष प्रावधान करने का विचार कर रहा है. AIPMB एक ऐसा मॉडल निकाहनामा भी प्रसारित करेगा जिसमें इस्‍लामिक लॉ के हिसाब से महिलाओं के लिहाज से ऐसे विशेष उपबंध किए जाएंगे जिसके चलते पति तीन तलाक नहीं दे सकेंगे.  

सिर्फ इतना ही नहीं पुरुषों पर तीन तलाक के मसले पर पाबंदी होने के बावजूद महिला के पास ''तीन तलाक के सभी स्‍वरूपों को देने का अधिकार होगा'' और ''तलाक की स्थिति में अधिक ऊंचे 'मेहर' की मांग करने में समर्थ होगी और उसके सम्‍मान की रक्षा के लिए अन्‍य संबंधित उपायों की व्‍यवस्‍था की जाएगी.'' बोर्ड ने ये भी कहा है कि यदि कोई मुस्लिम तीन तलाक को अपनाता है तो उसका सामाजिक बॉयकाट किया जाएगा.  

भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (BMMA) ने इसको यह कहते हुए खारिज कर दिया कि AIMPLB 'रजिस्‍टर्ड एनजीओ' से ज्‍यादा कुछ भी नहीं है क्‍योंकि ''न तो यह काजियों के अधीन है और न ही काजी इसके अधीन कर्मचारी हैं.'' सिर्फ इतना ही नहीं BMMA ने यह भी कहा, ''AIMPLB की कोई कानूनी या धार्मिक मान्‍यता नहीं है.'' BMMA ने जोर देकर कहा है कि केवल कानून में बदलाव के जरिये ही मुस्लिम महिलाओं की सुरक्षा की जा सकती है. अटॉर्नी जनरल ने भी कमोबेश इसी तरह का तर्क देते हुए कहा कि कानून ने 'अस्‍पृश्‍यता' का खात्‍मा कर दिया. क्‍या वास्‍तव में ऐसा है. किसी दलित से पूछिए.

एक अन्‍य प्रबुद्ध मुस्लिम महिला कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी सईदा हमीद ने 'द हिंदू'  में कहा कि बांबे हाई कोर्ट ने डागडू पठान v/s राहिम्‍बी (2002) और सुप्रीम कोर्ट ने शमीम आरा (2002) केस में व्‍यवस्‍था देते हुए पहले ही तीन तलाक पर 'पाबंदी' लगाई है. लिहाजा अब इस मसले को आगे तूल देने की जरूरत नहीं है. हालांकि अटॉर्नी जनरल ने कहा है कि यदि सुप्रीम कोर्ट तीन तलाक को 'असंवैधानिक' ठहराता है तो संसद में इस मसले पर गौर किया जाएगा. हमको ये नहीं पता कि सईदा हमीद को इस तरह के मसलों पर संसद में कानून बनाया जाना कितना पसंद आएगा जहां कि मुस्लिमों का बेहद कम प्रतिनिधित्‍व है.

एक अन्‍य प्रभावशाली मुस्लिम बुद्धिजीवी आरिफ मोहम्‍मद खान ने 'द इंडियन एक्‍सप्रेस' में लिखा कि तीन तलाक एक 'अत्‍याचार' है जोकि ''मुस्लिम महिलाओं को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करता है.'' उन्‍होंने यह भी कहा, ''यह कुरान की व्‍यवस्‍थाओं का उल्‍लंघन'' है और यह ''अमानवीय'' और ''इस्‍लाम-विरोधी'' है. हालांकि उन्‍होंने कम से कम अपने आर्टिकल में यह नहीं लिखा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ पर भी कानून बनाया जाना चाहिए (क्‍योंकि यह तब औचित्‍यहीन हो जाएगा जब तीन तलाक के सीमित दायरे से बाहर जाते हुए कानून में शादी, विवाह और उत्‍तराधिकार का मसला भी शामिल होगा, जैसा कि अटॉर्नी जनरल ने कोर्ट में कहा था.)

या क्‍या वह मुस्लिम विचारक और अंजुमन मिन्‍हाज-ए-रसूल के मौलाना सैयद अख्‍तर हुसैन देहलवी के विचारों का समर्थन करते हैं. देहलवी ने भी इसी तरह तीन तलाक (''अल्‍लाह ने कुरान में कहा है कि सबसे ज्‍यादा तलाक शब्‍द से नफरत करते हैं'') की भर्त्‍सना की है. लेकिन साथ ही यह भी जोड़ा है, ''मैं लोगों के धार्मिक मसलों में राज्‍य के हस्‍तक्षेप के विचार के खिलाफ हूं...यह बेहतर होगा कि हम इन मुद्दों को आपस में मिलकर सुलझाएं.''
 
निश्चित रूप से BMMA और अन्‍य निकायों ने मुस्लिम महिलाओं की समस्‍याओं पर सामाजिक रूप से जागरूक किया है. इससे यह साबित होता है कि मुस्लिम समाज के भीतर से ही बदलाव की भरपूर संभावनाएं हैं. बहरहाल अब सुप्रीम कोर्ट को अब मुस्लिमों में खत्‍म हो रही इस व्‍यवस्‍था की 'संवैधानिकता' पर फैसला सुनाना है. क्‍या इसके बाद तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाने वाले पीडि़त कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे या उसके बाद गैर-मुस्लिम बॉडी द्वारा मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाने का मार्ग प्रशस्‍त होगा. ये सब ऐसे मसले हैं जिनका जवाब देश को अब से छह सप्‍ताह बाद कोर्ट का निर्णय आने के साथ मिलने की उम्‍मीद है.

(मणिशंकर अय्यर कांग्रेस के पूर्व लोकसभा और राज्‍यसभा सांसद हैं)

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