एक महाभियोग और इंसाफ़ का सवाल

हमारे सार्वजनिक विमर्श में हर चीज़ इतनी सपाट और श्रेणीबद्ध कर दी गई है और वह इतनी तात्कालिकता के प्रभाव की मारी है कि अक्सर बड़ा सवाल छोटी बहसों में खो जाता है.

एक महाभियोग और इंसाफ़ का सवाल

भारत के मुख्‍य न्‍यायाधीश दीपक मिश्रा

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर महाभियोग उचित है या अनुचित- इस प्रश्न पर दुर्भाग्य से हर कोई अपनी राय अपनी राजनीतिक पक्षधरता के हिसाब से तय करता मिलेगा. किसी कांग्रेस समर्थक से पूछिए तो शायद वह कहेगा कि महाभियोग बिल्कुल उचित है, किसी मोदी भक्त से पूछिए तो वह न्यायपालिका को लांछित करने के लिए कांग्रेस की भर्त्सना करेगा. हमारे सार्वजनिक विमर्श में हर चीज़ इतनी सपाट और श्रेणीबद्ध कर दी गई है और वह इतनी तात्कालिकता के प्रभाव की मारी है कि अक्सर बड़ा सवाल छोटी बहसों में खो जाता है. बर्तोल्त ब्रेख्त की कविता याद आती है कि 'हम सबके हाथ में थमा दिए गए हैं छोटे-छोटे न्याय / ताकि जो बड़ा अन्याय है, उस पर पर्दा पड़ा रहे.'

तो क्या हम छोटे न्याय पर छीनाझपटी कर रहे हैं और बड़े न्याय का प्रश्न हमारी निगाहों से ओझल है? न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा का जो भी हो, लेकिन यह सवाल बचा हुआ है कि क्या भारतीय लोकतंत्र में न्याय वितरण की प्रणाली ऐसी है कि आम आदमी इस पर भरोसा कर सके, इससे एक नागरिक के रूप में जीने का साहस और अभ्यास अर्जित कर सके?

इत्तिफ़ाक़ से जिस दिन मुख्य न्यायाधीश पर महाभियोग का प्रस्ताव आया, ठीक उसी दिन गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा 2002 के भयावह नरोदा पटिया दंगों की मुजरिम और सज़ायाफ़्ता रहीं पूर्व मंत्री माया कोडनानी को बरी किए जाने की ख़बर भी आई. 2002 की गुजरात हिंसा- 1984 की सिख विरोधी हिंसा की तरह ही- हमारी राजनीतिक, प्रशासनिक और न्यायिक विफलता का दुखता हुआ उदाहरण है. रेप के लिए फांसी की मांग और व्यवस्था कर रहे राजनीतिक दलों और नेताओं को यह दिखाई नहीं पड़ता कि जिन ख़ौफ़नाक अपराधों के लिए फांसी पहले से तय है, उन पर भी न्याय नहीं हो पा रहा है. निस्संदेह, यह कहीं से गुजरात उच्च न्यायालय की विफलता नहीं है कि वहां से माया कोडनानी छूट जाती हैं- अदालत ने अपना काम सुलभ सबूतों और गवाहियों के आधार पर बिल्कुल उचित किया होगा- लेकिन यह सवाल पूछना तो कहीं से नाजायज़ नहीं है कि आख़िर गुजरात 2002 या 1984 के इंसाफ़ का क्या हुआ?

और सिर्फ़ यही दो मामले नहीं हैं- यह सच है कि हमारी पूरी न्याय प्रणाली- हमारी संसदीय राजनीति की तरह ही- बड़े पैसे वालों का खेल हो गई है. कचहरियों और निचली अदालतों में इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार है कि वहां जाना किसी दलदल में जाने जैसा लगता है. जहां वह भ्रष्टाचार नहीं है, वहां वकीलों की फीस इतनी ज़्यादा है कि उसे आम आदमी वहन नहीं कर सकता. इस देश के सबसे अच्छे वकील इस देश के सबसे भ्रष्ट लोगों की सेवा में लगे हैं. अगर अलग-अलग मामलों में शामिल वकीलों की सूची बनाएं तो देखकर हैरान रह जाएंगे कि राजनीतिक तौर पर जो वकील कुछ और होते हैं, वे न जाने किन-किन लोगों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं. ऐसी हालत में इंसाफ़ होता नहीं, ख़रीदा जाता है. इसके अलावा मुकदमे खिंचते-खिंचते इतने लंबे हो जाते हैं कि पीढ़ियां बदल जाती हैं. यह सच है कि यह बीमारी सिर्फ हमारी न्यायिक व्यवस्था की नहीं, शायद पूरी दुनिया की रही है. चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास 'ब्लीक हाउस' की शुरुआत ही जिस दृश्य से होती है, उसमें धुंध में डूबे लंदन की एक अदालत में जज एक ऐसा फ़ैसला पढ़ने की कोशिश कर रहा है जिसका केस इतना पुराना है कि लड़ने वाले भी भूल गए हैं कि किस बात पर वे लड़ रहे हैं. फ्रैंज काफ़्का का उपन्यास 'द ट्रायल' तो अदालती व्यवस्था के ऑक्टोपसी शिकंजे की एक भयावह दास्तान है.

लेकिन भारतीय न्याय प्रणाली में हाल के दिनों में एक नई प्रवृत्ति दिखाई पड़ी है. अदालतें सियासी टकरावों का बोझ उठा रही हैं और सियासी पूर्वाग्रहों की छाया अदालतों पर पड़ रही हैं. इसकी ताज़ा मिसाल एससी-एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के बदलाव के बाद पैदा हुआ हंगामा है. दरअसल भारतीय राजनीति दलित अस्मिता का मान रखने में नाकाम साबित हुई, भारतीय प्रशासन उन क़ानूनों की इज़्ज़त नहीं कर पाया जो दलितों को बचाव दे पाते- और ऐसे में अदालत से जो फ़ैसला आया, उसे भी दलितों ने अपने ही विरुद्ध पाया.

यह हाल कई और मामलों का है. ऐसा लगता ही नहीं कि भारतीय राष्ट्र राज्य कानूनों के सहारे चल रहा है. क़ानून अमीर-गरीब का भेद ख़ूब पहचानते हैं- ताकत़ वालों में क़ानून तोड़ने की आदत हो गई है. दिल्ली में क़ानून की परवाह किए बिना जो कारोबारी दुनिया इन तमाम वर्षों में बड़ी हो गई, उस पर सुप्रीम कोर्ट ने अंकुश लगाने की कोशिश की तो सभी राजनीतिक दल एक हो गए. सब चाहते हैं कि सबकी मिलीभगत से फफुंद की तरह दिल्ली के जिस्म पर फैला जो कारोबार है, उस पर क़ानून की मोहर लग जाए. राजनीतिक दल इस बात के लिए लड़ रहे हैं कि अध्यादेश लाएगा कौन, उसका समर्थन कौन करेगा.

क़ानून तोड़ने और अपना क़ानून चलाने की मिसालें और भी हैं. सरकारी नेताओं के संरक्षण में पली-बढ़ी गौरक्षक सेनाएं बहुत अहंकार के साथ पुलिस और अदालत से पहले अपना काम कर गुज़रती हैं. किसी भी ट्रक पर मवेशी लदा देखकर उसे रोकना, ड्राइवर को पीटना और अगर ख़रीद-फरोख़्त करने वाले अल्पसंख्यक हुए तो उन्हें दंडित करना आम है.

जब क़ानून को लेकर यह रवैया और इंसाफ़ को लेकर यह नजरिया हो तो किसी महाभियोग पर राजनीति संभव है. न्यायपालिका को लेकर यह राजनीति पहले भी हुई है, इसकी मिसालें एकाधिक हैं. ऐसे में आम आदमी का इंसाफ़ उसे लगातार छलता है और इस नाइंसाफी को नेता अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हैं. दोनों स्थितियों में मारा वह नागरिक जाता है जो क़ानून के हिसाब से जीने की कोशिश करता है. दरअसल एक महाभियोग इस पूरी व्यवस्था और उसके तमाम पुर्जों के ख़िलाफ़ लाने की ज़रूरत है- जो न जाने कब आएगा.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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