नई अमीरी और बौद्धिक घमंड के शिकार हैं भारतीय

नई दिल्ली:

पाकिस्तान से जाकर कनाडा में बसे नामचीन लेखक तारिक फतेह अभी भारत में चार महीना गुजार कर गए। कई बार बाहर से आए लोग खासतौर पर लेखक और बुद्धिजीवी बहुत सारी ऐसी बारिकियों पर ध्यान देते हैं जो हमारी रोजमर्रा की आंखें नहीं देख पाती हैं। कुछ ऐसा ही आंकलन भारत के बारे में तारिक फतेह ने कनाडा में जाकर किया है...मैं जो लिख रहा हूं उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित है...

हमारे देश में इंसान इंसान से अलग हो रहा है। अब शहरों में जाति से ज्यादा वर्गभेद होता है। सड़क पर चलते हुए कार वाले साइकिल या पैदल वालों को इंसान समझने को राजी नहीं हैं। गरीब-अमीर का फर्क बड़ा हो रहा है। गाड़ी से चार लोगों को रौंदने के बाद बड़ी तादात में लोगों का सलमान खान के समर्थन में आना ये बताता है कि हम गरीबों की मौत को शायद इंसानी मौत मानने को तैयार नहीं है। इसका कारण है कि समाज को आगे ले जाने वाली ताकतें यानी इंटेलीजेंशिया इन गरीब और आम लोगों से खासी दूर..अपनी बौद्धिक अकड़ और गुरूर में इस कदर डूबी है कि उन्हें लगता है कि टीवी पर पंचायत करके और एक हजार किताब बेचकर बेस्ट सेलर लेखक बनकर अपनी जिम्मेदारी पूरी की जा सकती है। नए नवेले पैसे वालों और अंग्रेजी दां बौद्धिक लोग अपनी जिम्मेदारी समाज और देश के लिए भूल चुके हैं।

वो अब सोसायटी को अपने विचार और जिंदगी से प्रभावित करने की बजाए अमेरिकन और यूरोपीयन देशों के एनजीओ को प्रभावित करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं। ताकि उन पैसों पर पांच सितारा सैर-सपाटा करके कोई नई किताब लिखी जा सके।

ये निर्वात या वैक्यूम वामपंथी पार्टियों के बेहोश हो जाने से पैदा हुआ है। वामपंथी विचारक बौद्धिक अहंकार में डूबे हैं और उनसे प्रेरित नेता इस्लामिक ताकतों के हाथों में खेल रहे हैं। बीते पचास साल से वो फिलीस्तीन से बाहर नहीं निकल पाए हैं। उनके लिए भारत में बढ़ रही कट्टरता, बांग्लादेश में कट्टरता बनाम धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई, यमन में मारे जा रहे लोग और समाज में बढ़ रही असमानता कोई मुद्दा नहीं है। यही वजह है कि वामपंथियों ने जहां इस्लामिक कट्टरता की डोर थाम रखी है वहीं दक्षिणपंथी पार्टियां बहुसख्यक कट्टरता का छोर पकड़ रही हैं। एक तीसरी पार्टी है जिसने नई रोशनी देने के बजाए धर्मनिरपेक्षता की वहीं पिटी-पिटाई लीक पर चलने की ठान रखी है, जिसके बारे में लोग खुद सचेत हैं।

मिडिल क्लास, अपर मिडिल क्लास और विचारवान लोगों को देश और देश भक्ति एक गाली की तरह लगती है क्योंकि इसका ठेका उन्होंने बीजेपी को दे रखा है और जिसके दम पर वो फैल रही है। हमारे देश की हर राजनीतिक पार्टियों में बौद्धिकता हाशिए पर पड़ी है। चाटुकारिता की कलाकारी, राजनीतिक अहं और सतही धर्मनिरपेक्षता की जानकारी से लैस बहुत सारे नेता देश को बांटने के काम में लगे हैं। बौद्धिकता अपने सुविधावादी ढांचे और घमंड का शिकार होकर अलगाव की जिंदगी में खुश है।

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हमने बीते साठ सालों में खासी तरक्की की है लेकिन अब इंसान को इंसान समझने की जरूरत है। अगर हम ये नहीं समझ सके तो हमारी पैसे वाली तरक्की समाज के उस ताने-बाने को खत्म कर सकती है जिसके केंद्र में इंसानियत और भेदभाव मिटाने का संकल्प है।