भारत की अर्थव्यवस्था की हालत कितनी सुधरी?

डॉलर के मुकाबले जब रुपया कमज़ोर हो गया तो लगा कि कई केंदीय मंत्री ट्वीट कर रहे होंगे, क्योंकि इनमें से कई 2013 में रुपये की इस कमज़ोरी पर खूब ट्वीट करते थे.

भारत की अर्थव्यवस्था की हालत कितनी सुधरी?

भारत की राजनीति और उसके मुद्दे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के गुडमॉर्निंग मैसेज की तरह हो गए हैं. जिस तरह से अब सबको पता है कि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटि में गुडमॉर्निंग मैसेज आएगा ही और मैसेज में धार्मिक तस्वीरें होंगी, नैतिक संदेश होंगे, माता-पिता का आदर करना है टाइप के, गुलाब का फूल तो होता ही है और पहाड़ों से निकलते सूरज की तस्वीर के बिना गुडमॉर्निग मैसेज कभी पूरा नहीं होता है. आप लाख मना करें कि प्लीज़ मेरे इनबॉक्स में गुडमॉर्निग मैसेज न भेजें, फिर भी अगली सुबह गुडमॉर्निंग मैसेज आ ही जाता है. ये एक किस्म की बीमारी है, इससे गुडमॉर्निंग कम, ऊब ज्यादा होती है. ठीक इसी तरह भारत की राजनीति में अब तय सा हो गया है कि आज क्या प्रोपेगैंडा चलेगा.

कई बार पहले से इशारा मिल जाता है कि कब वीडियो आएगा, किसकी जयंती मनेगी, किसकी पुण्यतिथि मनेगी, सबको पता है कि इससे किसी की तात्कालिक समस्या का समाधान नहीं होगा, मगर मीडिया रात होते-होते बता देता है कि जो आप सोच रहे थे बिल्कुल ठीक सोच रहे थे. पहाड़ों से निकलते सूरज वाले गुडमॉर्निंग मैसेज की तरह नेहरू का तो मसला अब स्थायी हो गया है. डॉलर के मुकाबले जब रुपया कमज़ोर हो गया तो लगा कि कई केंदीय मंत्री ट्वीट कर रहे होंगे, क्योंकि इनमें से कई 2013 में रुपये की इस कमज़ोरी पर खूब ट्वीट करते थे, प्रेस कांफ्रेंस करते थे. आज जब रुपया ऐतिहासिक रुप से कमज़ोर हुआ तो हर दिन की जगह इतिहास का कोई न कोई टॉपिक ले आने वाले नेताओं ने भी इसे नज़रअंदाज़ कर दिया.

आपको पता ही होगा कि 28 जून के दिन भारत का रुपये में एक डॉलर की कीमत 69.0925 रुपये हो गई. डॉलर के सामने रुपया इतना नीचे कभी नहीं गिरा था. नवंबर 2016 में 68 रुपये 86 पैसे हो गया था. 26 जून को डॉलर के मुकाबले रुपया जब 68 रुपये 63 पैसे पर पहुंचा तो जानकार यह उम्मीद कर रहे थे कि जल्दी ही 28 अगस्त 2013 के रिकॉर्ड को भी पार कर जाएगा. जब एक डॉलर का भाव 68 रुपये 83 पैसे हो गया था. मगर यह तो 28 अगस्त 2013 से भी आगे जाकर 69 के पार चला गया. ये तो कहिए कि बाज़ार बंद होने तक 68 रुपये 78 पैसे पर आ गया. काश ये दिन 2013 के साल का कोई दिन होता तो इस पर खूब हंगामा होता मगर वक्त बदल गया है. बस रुपये को पता नहीं कि वक्त बदला है, उसे लेकर पॉलिटिक्स करने वाले बेशक बदल गए हों.

सत्ता आने से समझदारी आ जाती है, इसलिए भी चुप्पी है क्योंकि अब उन्हें पता है कि रुपये की कीमत कब-कब किन-किन वजहों से गिर सकती है और चढ़ सकती है. इसलिए जब हमने वित्त मंत्रालय के ट्विटर हैंडल को चेक किया तो वहां भारतीय रुपये के ऐतिहासिक गिरावट पर कुछ नहीं मिला, स्वास्थ्य लाभ कर रहे वित्त मंत्री अरुण जेटली के ब्लॉग को चेक किया तो वहां भी भारतीय रुपये के एतिहासिक गिरावट पर कोई ब्लॉग नहीं था. फिर हमने अस्थायी वित्त मंत्री पीयूष गोयल के ट्विटर हैंडल को चेक किया तो वहां भी रुपये की ऐतिहासिक गिरावट पर कुछ नहीं था. इतना सन्नाटा पसरा था जैसे डॉलर ही भारतीय रुपये के मुकाबले लुढ़क गया हो. तभी एक दर्शक ने वित्त मंत्री जेटली का 2013 का बयान भेज दिया. पहले आप वो सुन लें फिर हम आगे बढ़ेंगे.

आपने सुना कि तब विपक्ष में रहते हुए जून 2013 को राज्य सभा में भाषण देते हुए अरुण जेटली कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री तो बोलेंगे नहीं. न तब बोले न अब के प्रधानमंत्री इस पर बोले. भारत की राजनीति में ये एक बड़ा चेंज आया है कि हर किसी का पुराना बयान रिकॉर्डेड अवस्था में तुरंत का तुरंत मिल जाता है. पता नहीं सबसे पहले कौन खोजता है और सबसे पहले कौन भेजता है. श्रीश्री रविशंकर का भी एक ट्वीट घूमता रहता है, पुराना वाला जिसमें वे कहते हैं कि यह जानकर ही ताज़गी आ जाती है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही एक डॉलर की कीमत 40 रुपये पर आ जाएगी.

चार साल बाद चालीस रुपये तो दूर उल्टा 69 रुपया हो गया. मनमोहन के दौरे से भी ज्यादा कमज़ोर हो गया. तब यह मसला काफी बड़ा होता था, अब क्यों नहीं है? यह आप व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी वालों से पूछिए. संसद में बकायदा बहस हुई थी इस मसले पर. हमारी राजनीति कब किस मसले को अपने लिए अवसर बना देती है, यह हम और आप तब समझते हैं जब वे अवसर का लाभ ले जा चुके होते हैं. इसलिए जनता और नेता के बीच यह संघर्ष चलता रहता है कि दोनों में से कौन किससे ज्यादा समझदार है. ज्यादातर बार नेता ही भारी पड़ते हैं. रुपये के गिरने का अब तक का रिकॉर्ड 28 अगस्त 2013 का ही है और उसके ठीक एक दिन बाद 29 अगस्त 2013 को राज्य सभा में अरुण जेटली इस विषय पर कहते हैं कि मैं सिर्फ दो उदाहरण दूंगा. वित्त मंत्री ज़रूरी आयात की बात करते रहे हैं. बेशक तेल एक ज़रूरी आयात है, खाने वाला तेल ज़रूरी आयात है. परन्तु हमारे पास इस देश में कोयले का भंडार हैं. हमारे पास आवश्यकता से अधिक कोयला है. पिछले 6-7 वर्षों में कोयले की अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन हुआ है. इसके परिणामस्वरूप, हमें कोयले के आयात पर 20 बिलियन डॉलर खर्च करना पड़ा है. 

वित्त मंत्री पी चिदंबरम को अरुण जेटली बता रहे हैं कि किन हालात में रुपया डॉलर के मुकाबले इतना गिरा है. कहना चाह रहे हैं कि अगर कोयले के आयात पर इतना खर्च नहीं होता और हम अपना ही कोयला निकाल लेते तो स्थिति बेहतर होती. मगर जब जेटली वित्त मंत्री बने और पीयूष गोलय कोयला मंत्री तब क्या कुछ बदल गया, क्योंकि आज भी रुपये की कीमत गिरती जा रही है और वित्तीय घाटे पर दबाव बढ़ रहा है. 17 मई 2018 के 'बिजनेस स्टैंडर्ड' में जयजीत दास ने लिखा है कि 2017-18 में 213 मिलियन टन कोयले का आयात हुआ जो पिछले साल से 8 प्रतिशत ज्यादा है और इस पर 22 अरब डॉलर खर्च हुआ. यानी जो स्थिति 2013 में थी वही 2017 में भी रही. राजनीति इस तरह के रिसर्च से नहीं बदलती है, वो चलती है बहलाने फुसलाने और भटकाने से. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के तौर पर जेटली की मांग का जवाब भी दिया था 30 अगस्त 2013 को. क्या संयोग है देखिए. 

देश के बाहर कुछ अप्रत्याशित घटनाओं से बाज़ार पर विपरीत प्रतिक्रिया हुई है, जिसके कारण रुपये की कीमत में तेज़ी से गिरावट आई. 22 मई 2013 को यूएस सेंट्रल बैंक ने यह संकेत दिया था कि वह जल्द ही मात्रात्मक मूल्य में धीरे-धीरे कमी लाएगा, क्योंकि अमेरिका की अर्थव्यवस्था में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है. इससे उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में पूंजी के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ा, जिसके कारण न सिर्फ रुपये में बल्कि ब्राज़ील की रियाल, तुर्की की लीरा, इंडोनेशिया के रुपिया, दक्षिण अफ्रीका के रैंड और अन्य मुद्राओं में भी तेज़ी से गिरावट आ रही है.

अगर आज प्रधानमंत्री मोदी इस पर बोलते तो वे करीब-करीब इसी के आस पास बोल रहे होते, क्योंकि आज के हालात भी इसी तरह के हैं. तब सीरिया और कच्चे तेल के दामों में वृद्धि था अब अमरीका चीन के बीच व्यापार युद्ध है और कच्चे तेलों के दामों में भारी वृद्धि है. लेकिन भारत की राजनीति तर्कों से नहीं चलती है. वह भावनाओं से तय होती है. उस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ट्विटर हैंडल से लगातार ट्वीट किया था करते थे तब रुपया ऐतिहासिक रूप से एक डॉलर के मुकाबले 68 रुपये 83 पैसे ही हुआ था, आज तो यह उससे भी नीचे गिरा तो क्या कहा जाए कि इसके लिए प्रधानमंत्री ज़िम्मेदार हैं, सरकार ज़िम्मेदार है, क्या कहा जाए कि मौजूदा सरकार और रुपये के बीच गिरने की प्रतियोगिता छिड़ी हुई है. प्रधानमंत्री मोदी के पुराने ट्वीट दिखाने का यही मकसद था कि हम रुपये के गिरने की राजनीति और उसके कारणों को अलग-अलग और ठीक से समझें. वैसे ही न समझें जैसे नेता अक्सर समझा देते हैं. 

जानकार कह रहे हैं कि एक डॉलर की कीमत 70 रुपये हो जाएगी. ब्लूमबर्ग की साइट पर एक लेख में डीबीएम बैंक का मानना है कि जून 2019 तक एक डॉलर की कीमत 71 रुपये तक भी हो सकती है. श्रीश्री रविशंकर ही बता सकते हैं कि वे अब रुपये की कीमत को लेकर क्या सोचते हैं, क्या उन्हें अभी भी लगता है कि मोदी जी 40 रुपये कर देंगे. 

आने वाले दिनों में ब्याज़ दरें बढ़ सकती हैं. महंगाई पर भी असर पड़ सकता है और तेल के दामों पर तो पड़ेगा ही अगर यही हालात बने रहे तो. बाज़ार के जानकार सुनील शाह ने कहा है कि अमरीका और चीन के बीच व्यापार युद्ध के कारण दुनिया भर में जीडीपी की दरें धीमी हो गईं हैं. भारत भी बचा नहीं रहेगा. भारत को भी  विकास दर के अनुमानों में कटौती करनी होगी. इस वक्त दुनिया के बाज़ार में काफी अनिश्चितता है. 

जंतर मंतर पर ट्रंप की जीत के लिए हवन करने वाले लोगों को कहीं से खोज कर लाइये, वे फिर से हवन करें कि ट्रंप मान जाएं. इस वक्त बारिश के लिए मेढ़क-मेंढ़की की शादी रचाने से ज्यादा इंपोर्टेंट ये काम है. हिन्दू सेना के लोगों ने जंतर-मंतर पर ट्रंप की जीत की कामना में हवन किया था. अब अगर वे फिर से हवन करें और भारत दौरे पर आईं निकी हेली को हवन में बुला लें तो क्या पता चीन के साथ व्यापारिक संघर्ष थम जाए. उस हवन में यह भी संकल्प लिया जाए कि अमरीका भारत को ईरान से तेल आयात रोक देने पर मजबूर न करे. संयुक्त राष्ट्र में अमरीका की राजदूत निक्की हेली इस वक्त भारत के दौरे पर हैं, उन्होंने कहा है कि अमरीका चाहता है कि भारत ईरान से कच्चे तेल का आयात बंद कर दें और हेली ने कहा यह बात प्रधानमंत्री मोदी अच्छी तरह से समझते भी हैं. 

इस साल रुपया डॉलर के मुकाबले 7 प्रतिशत से ज्यादा गिर चुका है. एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन भारतीय मुद्रा का ही है. क्या सरकार में ब्लॉग लिखने वाले और ट्वीट करने वाले मंत्रियों को नई परिस्थिति पर नहीं बोलना चाहिए, जिससे लोगों के मन में यह बात साफ होती कि मनमोहन सिंह के समय भी रुपया कमज़ोर हो जा रहा था, मोदी के समय भी रुपया कमज़ोर हुआ जा रहा है. क्या कारणों में कोई चेंज आया है, मतलब या फिर ये एक ऐसा पैटर्न है जो किसी की भी सरकार की परवाह नहीं करता है. एक और अच्छी ख़बर है कि स्विस बैंक में भारतीयों का जमा पैसा 50 परसेंट बढ़ गया है. 7000 करोड़ हो गया है.

2017 में 7000 करोड़ हो गया. ये नोटबंदी के एक साल बाद कैसे वहां बढ़ गया. खैर स्विस बैंक में जमा हर पैसा काला धन नहीं होता है, इसलिए आप प्राइम टाइम देखते हुए तुरंत ये उम्मीद न पालें कि आपके खाते में 15 लाख आने का टाइम आ गया है. खबर इसमें ये है कि तीन साल तक वहां जमा पैसे में गिरावट आ रही थी. 2017 में दुनिया भर के विदेशी ग्राहकों का स्विस बैंक में जो पैसा जमा हुआ है, उसमें मात्र 3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसमे से भारतीय ग्राहकों की जमा राशि में उछाल पचास प्रतिशत है. 2016 में 45 प्रतिशत की गिरावट आई थी. 28 जून को स्विस नेशनल बैंक ने जो अपना सालाना डेटा जारी किया है उसी में ये सब है. 

स्विस बैंक की ख्याति भारत में कुछ ऐसी ही हो गई है कि इससे संबंधित कोई भी जानकारी काले धन का ही संकेत देती है. इसके पीछे हमारे राजनेताओं और बाबाओं ने काफी मेहनत की है. आज तक तो वहां से धेला नहीं आया मगर जैसे ही ज़िक्र करो लगता है कि काला धन वहीं गड़ा हुआ है.  
 


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