जवाहर बाग को लेकर रवीश कुमार के विचारों पर एक IPS अफसर का जवाबी खत

जवाहर बाग को लेकर रवीश कुमार के विचारों पर एक IPS अफसर का जवाबी खत

फाइल फोटो

प्रिय रवीश जी,

आपका ख़त पढ़ा। उसमें सहमत होने की भी जगह है और संशोधनों की भी। यह आपके पत्र का जवाबी हमला कतई नहीं है। उसके समानांतर हमारे मनो-जगत का एक प्रस्तुतीकरण है। मैं यह जबाबी ख़तूत किसी प्रतिस्पर्धा के भाव से नहीं लिख रहा हूं। चूंकि आपने भारतीय पुलिस सेवा और उसमें भी खासकर (उत्तर प्रदेश) को संबोधित किया है, इसलिए एक विनम्रतापूर्ण उत्तर तो बनता है। यूं भी खतों का सौंदर्य उनके प्रेषण में नहीं, उत्तर की प्रतीक्षा में निहित रहता है। जिस तरह मुकुल का 'मुस्कुराता' चेहरा आपको व्यथित किए हुए है (और जायज़ भी है कि करे), वह हमें भी सोने नहीं दे रहा... जो आप 'सोच' रहे हैं, हम भी वही सोच रहे हैं। आप खुलकर कह दे रहे हैं, हम 'खुलकर' कह नहीं सकते। हमारी 'आचरण नियमावली' बदलवा दीजिए, फिर हमारे भी तर्क सुन लीजिए। आपको हर सवाल का हम उत्तर नहीं दे सकते। माफ़ कीजिएगा। हर सवाल का जवाब है, पर हमारा बोलना 'जनहित' में अनुमन्य नहीं है। कभी इस वर्दी का दर्द सिरहाने रखकर सोइए, सुबह उठेंगे तो पलकें भारी होंगी। क्या खूब सेवा है जिसकी शुरुआत 'अधिकारों के निर्बंधन अधिनियम' से शुरू होती है! क्या खूब सेवा है, जिसे न हड़ताल का हक़ है, न सार्वजनिक विरोध का... हमारा मौन भी एक उत्तर है। अज्ञेय ने भी तो कहा था...

"मौन भी अभिव्यंजना है,
जितना तुम्हारा सच है, उतना ही कहो..."


हमारा सच जटिल है। वह नकारात्मक भी है। इस बात से इंकार नहीं। आपने सही कहा कि अपने जमीर का इशारा भी समझो। क्या करें...? खोटे सिक्के अकेले इसी महकमे की टकसाल में नहीं ढलते। कुछ आपके पेशे में भी होंगे। आपने भी एक ईमानदार और निर्भीक पत्रकार के तौर पर उसे कई बार खुलकर स्वीकारा भी है। चंद खोटे सिक्कों के लिए जिस तरह आपकी पूरी टकसाल जिम्मेदार नहीं, उसी तर्क से हमारी टकसाल जिम्मेदार कैसे हुई...?

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हम अपने मातहतों की मौत पर कभी चुप नहीं रहे। हां, सब एक साथ एक ही तरीके से नहीं बोले। कभी फोरम पर, कभी बाहर, आवाजें आती रही हैं। बदायूं में काट डाले गए सिपाहियों पर भी बोला गया, और शक्तिमान की मौत पर भी। पर क्या करें, जिस तरह हमें अपनी वेदना व्यक्त करने के लिए कहा गया है, उस तरह कोई सुनता नहीं। अन्य तरीका 'जनहित' में अलाउड नहीं। मुक्तिबोध ने कहीं लिखा है कि...

"पिस गया वह भीतरी और बाहरी दो कठिन पाटों के बीच,
ऐसी ट्रेजेडी है नीच..."


मुकुल और संतोष की इस 'ट्रेजेडी' को समझिए, सर। यही इसी घटना में अगर मुकुल और संतोष ने 24 आदमी 'कुशलतापूर्वक' ढेर कर दिए होते, तो आज उन पर 156 (3) में एफआईआर होती। मानवाधिकार आयोग की एक टीम 'ऑन स्पॉट' इन्क्वायरी के लिए मौके पर रवाना हो चुकी होती। मजिस्ट्रेट की जांच के आदेश होते। बहस का केंद्र हमारी 'क्रूरता' होती। तब निबंध और लेख कुछ और होते।

आपने इशारा किया है कि 'झूठे फंसाए गए नौजवानों के किस्से' बताते हैं कि भारतीय पुलिस सेवा के खंडहर ढहने लगे हैं। यदि कभी कोई डॉक्टर आपको आपकी बीमारी का इलाज करने के दौरान गलत सुई (इंजेक्शन) लगा दे (जानबूझकर या अज्ञानतावश), तो क्या आप समूचे चिकित्सा जगत को जिम्मेदार मान लेंगे...? गुजरात का एक खास अधिकारी मेरे निजी मूल्य-जगत से कैसे जुड़ जाता है, यह समझना मुश्किल है।

हमने कब कहा कि हम बदलना नहीं चाहते। एक ख़त इस देश की जनता के भी नाम लिखें कि वह तय करे, उसे कैसी पुलिस चाहिए। हम चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि बदल दो हमें। बदल दो 1861 के एक्ट की वह प्राथमिकता, जो कहती है कि 'गुप्त सूचनाओं' का संग्रह हमारी पहली ड्यूटी है और जन-सेवा आखिरी। क्यों नहीं जनता अपने जन-प्रतिनिधियों पर पुलिस सुधारों का दवाब बनाती...? आपको जानकर हैरानी होगी कि अपने इलाकों के थानेदार तय करने में हम पहले वहां के जाति-समीकरण भी देखते हैं! इसलिए नहीं कि हम अनिवार्यतः जाति-प्रियता में श्रद्धा रखते हैं। इससे उस इलाके की पुलिसिंग आसान हो जाती है। कैसे हो जाती है, यह कभी उस इलाके के थानेदार से एक पत्रकार के तौर पर नहीं, आम आदमी बनकर पूछिएगा। वह खुलकर बताएगा। भारतीय पुलिस सेवा का 'खंडहर' यहीं हमारी आपकी आंखों के सामने बना है। कुछ स्तम्भ हमने खुद ढहा लिए, कुछ दूसरों ने मरम्मत नहीं होने दिए।

जिसे खंडहर कहा गया है, उसी की ईंटें इस देश की कई भव्य और व्यवस्थित इमारतों की नींव में डालकर उन्हें खड़ा किया गया है। मुकुल और संतोष की शहादत ने हमें झकझोर दिया है, हम सन्न हैं। मनोबल न हिला हो, ऐसी भी बात नहीं है, लेकिन हम टूटे नहीं हैं। हमें अपनी चुप्पी को शब्द बनाना आता है।

हमारा एक मूल्य-जगत है। फूको जैसे चिंतक भले ही इसे 'सत्ता' के साथ 'देह' और 'दिमाग' का अनुकूलन कहते हों, पर प्रतिरोध की संस्कृति इधर भी है। हां, उसमें 'आवाज' की लिमिट है और यह भी कथित व्यवस्था बनाए रखने के लिए किया गया बताया जाता है।

यह सही है कि हम में भी वे कमजोरियां घर कर गई हैं, जो ज़मीर को पंगु बना देती हैं। 'One who serves his body, serves what is his, not what he is' (Plato) जैसी बातों में आस्था बनाए रखने वाले लोग कम हो गए हैं। पर सच मानिए, हम लड़ रहे हैं। जीत में आप लोगों की भी मदद आवश्यक है। पुलिस को सिर्फ मसाला मुहैया कराने वाली एजेंसी की नजर से न देखा जाए।

जो निंदा योग्य है, उसे खूब गरियाया जाए, पर उसे हमारी 'सर्विस' के प्रतिनिधि के तौर पर न माना जाए। हमारी सेवा का प्रतिनिधित्व करने लायक अभी भी बहुत अज्ञात और अल्प-ज्ञात लोग हमारे बीच मौजूद हैं, जो न सुधारों के दुकानदार हैं और न आत्म-सम्मान के कारोबारी।

मथुरा में एकाध दिन में कोई नया एसपी सिटी आ जाएगा। फरह थाने को भी नया थानेदार मिल जाएगा। धीरे-धीरे लोग सब भूल जाएंगे। धीरे-धीरे जवाहर बाग फिर पुरानी रंगत पा लेगा। धीरे-धीरे नए पेड़ लगा दिए जाएंगे, जो बिना किसी जल्दबाजी के धीरे-धीरे उगेंगे। सब कुछ धीरे-धीरे होगा। धीरे-धीरे न्याय होगा। धीरे-धीरे सजा होगी। हमारी समस्या किसी राज्य का कोई एक इंडिविजुअल नहीं है। हमारी समस्या रामवृक्ष भी नहीं है। हमारी समस्या सब कुछ का धीरे-धीरे होना है। धीरे-धीरे सब कुछ उसी तरह हो जाएगा, जो मुकुल और संतोष की मौत से पहले था। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने भी क्या खूब लिखा था...

"...धीरे-धीरे ही घुन लगता है, अनाज मर जाता है...
धीरे-धीरे ही दीमकें सब कुछ चाट जाती हैं...
धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है, साहस डर जाता है, संकल्प सो जाता है...
मेरे दोस्तो, मैं इस देश का क्या करूं, जो धीरे-धीरे खाली होता जा रहा है...?
भरी बोतलों के पास खाली गिलास-सा पड़ा हुआ है...
मेरे दोस्तो...!
धीरे-धीरे कुछ नहीं होता, सिर्फ मौत होती है...
धीरे धीरे कुछ नहीं आता, सिर्फ मौत आती है...
सुनो, ढोल की लय धीमी होती जा रही है...
धीरे-धीरे एक क्रान्ति यात्रा, शव-यात्रा में बदलती जा रही है..."


इस 'धीरे-धीरे' की गति का उत्तरदायी कौन है। शायद अकेली कोई एक इकाई तो नहीं ही होगी। विश्लेषण आप करें। हमें इसका 'अधिकार' नहीं है। जो लिख दिया, वह भी जोखिम भरा है, पर मुकुल और संतोष के जोखिम के आगे तो नगण्य ही है। जाते-जाते आदत से मजबूर, केदारनाथ अग्रवाल की ये पंक्तियां भी कह दूं, जो हमारी पीड़ा पर अक्सर सटीक चिपकती हैं...

"सबसे आगे हम हैं, पांव दुखाने में...
सबसे पीछे हम हैं, पांव पुजाने में...
सबसे ऊपर हम हैं, व्योम झुकाने में...
सबसे नीचे हम हैं, नींव उठाने में..."


मजदूरों के लिए लिखी गई यह रचना कुछ हमारा भी दर्द कह जाती है। हां, मजदूरों को जो बगावत का हक़ लोकतंत्र कहलाता है, उसे हमारे यहां कुछ और कहा जाता है। इसी अन्तर्संघर्ष में मुकुल और संतोष कब जवाहर बाग में घिर गए, उन्हें पता ही नहीं चला होगा... उन्हें प्रणाम...

उम्मीद है, आपको पत्र मिल जाएगा...

धर्मेन्द्र

धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

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