क्या अबूझ पहेली बनकर आने वाला है आम बजट

सरकार चार साल की अपनी उपलब्धियों को दिखाने के लिए आंकड़ेबाजी के सारे हुनर लगा देगी, इसीलिए बजट की समीक्षा का काम हमेशा से ज्यादा कठिन और चुनौती भर होगा

क्या अबूझ पहेली बनकर आने वाला है आम बजट

बजट पेश होने में कुछ ही समय बचा है. इस बार आम बजट के पहले उससे उम्मीदों पर ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई. वरना महीने भर पहले से अलग-अलग क्षेत्रों से उनकी अपेक्षाएं का इज़हार शुरू हो जाता था. बहरहाल बजट पेश होने के पहले हमारे पास जितना समय बचा है उसमें कम से कम बजट की समीक्षा के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातें पहले से सोचकर रख सकते हैं. मसलन इस बार का बजट इस सरकार के कार्यकाल का अंतिम पूर्ण बजट होगा. यानी मौजूदा सरकार के कार्यकाल के कामकाज की समीक्षा का आखिरी मौका होगा. जाहिर है कि सरकार चार साल की अपनी उपलब्धियों को दिखाने के लिए आंकड़ेबाजी के सारे हुनर लगा देगी.  इसीलिए बजट की समीक्षा का काम हमेशा से ज्यादा कठिन और चुनौती भर होगा.

सरकार के सामने चुनौतियां
बजट के मकसद को नहीं भूला जा सकता. बजट के जो मकसद हमने पहले से तय कर रखे हैं उनमें सरकार के लिए सबसे बड़ा काम यह है कि वह कैसे देश के कमजोर तबकों को सहूलियत पहुंचाए. लोकतांत्रिक राज व्यवस्था में सरकार की आमदनी और खर्च का हिसाब बनाते समय यही देखा जाता है कि उसने समर्थ और संपन्न लोगों से कितनी उगाही की और असमर्थ और विपन्न रह गए लोगों को कितना सुख बांटा. बजट के मकसद में यह भी शामिल है कि उसके ज़रिए महंगाई को काबू में रखा जाए. इसके अलावा भाविष्य में विकास की संभावनाएं बनाए रखने के लिए नई-नई कोशिश करना बजट का मकसद होता ही है. लेकिन हमारी मौजूदा माली हालत ऐसी नहीं बन पाई है कि ज्यादा आगे की बात सोच पाएं. सो इस बार के बजट में सिर्फ 2018 19 के साल के लिए गुजारे लायक हिसाब बना लें उतना ही काफी है. अब ये बात अलग है कि अपने निकट भविष्य के एक साल की आवश्यकताओं की कीमत पर भविष्य की बातों में उलझा दिया जाए. यह अंदेशा इस आधार पर है कि फिलहाल अपनी माली हालत ऐसी बनी दिख नहीं रही है कि निकट भविष्य की जरूरतों को ही पूरा कर पाएं. आइए देखते हैं कैसे?

फौरी तौर पर बड़ा काम क्या है अपने सामने
वैसे इसे तय करना हमेशा मुश्किल माना जाता है, लेकिन मौजूदा हालात में यह आसान इसलिए है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी जो गांव में बसती है और जिसे किसान कहते हैं वह मरणासन्न हालत में पहुंच गए हैं. इस आधार पर कह सकते हैं कि देश का बजट बनाते समय जो यह दुविधा बनी रहती है कि उद्योग व्यापार पर ज्यादा ध्यान लगाएं या कृषि पर, वह दुविधा इस बार बिल्कुल नहीं है. वैसे भी देश के सकल घरेलू उत्पाद के आकलन के लिए जो तीन क्षेत्र तय हैं उनमें सबसे बुरी हालत कृषि क्षेत्र की ही है. उसकी वृद्धि दर ऐतिहासिक रूप से नीचे यानी सिर्फ ढाई फीसद है. जो विनिर्माण और सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर की तुलना में सबसे कम है. देश की आधी से ज्यादा आबादी से सरोकार रखने वाले कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान सिर्फ 17 फीसद निकलकर आया है. जाहिर है कि देश में वंचित तबके को ढूंढना हो तो वह देश के ग्रामीण क्षेत्र में ही पाया जाएगा. यानी इस बार के बजट से कोई तर्कपूर्ण उम्मीद लगाना हो तो वह गांव और कृषि क्षेत्र के पक्ष में लगाना ही जायज़ है.

भयावह बेरोज़गारी उससे भी बड़ी चुनौती
पिछले साल के अनुभवों में जो सबसे भयावह है, वह बेरोजगारी की समस्या रही. यह समस्या जितने विकराल रूप में हमारे सामने है उसे किसी भी तरह अब और आगे टाला नहीं जा सकता. बेरोजगारी के आबड़ में गांव और शहर दोनों हैं. गांव के गरीब तो पहले ही बेरोजगारी से परेशान हो रहे थे अब शहरी ग़रीब भी इसकी जद में है. इस तरह इस बार के बजट में अगर रोज़गार बढ़ाने के लिए पर्याप्त धन का प्रावधान नहीं दिखा तो बजट की समीक्षा करने वाले तीखी प्रतिक्रिया कर रहे होंगे.

संतुलित बजट का जुमला पिट सकता है
पिछले कुछ साल से संतुलित बजट का जुमला चलने लगा है. लोकतांत्रिक राज व्यवस्था में 'सबका साथ-सबका विकास' नारा सुनने में अच्छा लग सकता है. लेकिन लोकतांत्रिक राजव्यवस्था के बजट का मकसद सबके विकास की बजाए संवेदनशील रूप से वंचित वर्ग का ध्यान रखने की बात करता है. बजट का मकसद ही समर्थ से लेकर असमर्थ को देना है. यह मकसद खूब सोच समझकर बनाया गया है. कोई भी नया तर्क पैदा नहीं किया जा सकता कि देश में पूंजी बढ़ाना इसलिए जरूरी है क्योंकि उससे गरीब और असमर्थ के पास पैसा अपने आप पहुंच जाएगा. दुनिया में जिन लोगों ने और खुद हमने भी यह करके देख लिया है कि यह तर्क काम का नहीं है. अब अमीरों के रूट से गरीबों को सुविधा पहुंचाने की बजाए गरीबों को सीधे रास्ते से देने के इंतजाम की दरकार है. यानी बहुत कम आसार हैं कि इस बार संतुलित बजट के जुमले को सरकार की तारीफ के लिए इस्तेमाल किया जा सके. दरकार यह है कि इस बार का बजट अच्छा खासा अंसतुलित होकर गरीब, किसान, महिलाओं, बच्चों और बुजु़र्गों के पक्ष में झुका दिखे.

सरकार के इशारे
वैसे सरकार की तरफ से ये इशारा पहले ही दिया जा चुका है कि इस बार लोकलुभावन बजट की उम्मीद न करें. लेकिन इसकी व्याख्या नहीं की गई है. बेशक बजट बहुत ही गोपनीय दस्तावेज होता है क्योंकि इसके बारे में पहले पता चल जाए तो निवेशकों के सबसे बड़े बाजार जिसे शेयर बाजार कहते हैं उसमें लूट मचने का अंदेशा हो जाता है. सो सरकार के इशारे से बिल्कुल भी अटकल नहीं लगती कि उसका आखिरी बजट किसके पक्ष में होगा. हो सकता है कि इसका यह मतलब हो कि सरकारी खर्च के लिए पैसे की उगाही ताबड़तोड़ ढंग से की जाएगी. लेकिन ऐसी बातें कोई सरकार पहले से नहीं कहती. वह तो सनसनीखेज तरीके से उगाही को भी देश हित में बताकर सहलाते हुए टैक्स और दूसरे तरीकों से उगाही करती है. वैसे भी उद्योग और व्यापार का भी हाल अच्छा नहीं है. उन पर और ज्यादा बोझ पड़ा तो अब वे झल्ला उठेंगे. इस तरह बिल्कुल भी अंदाजा नहीं लग पा रहा है कि इस बार के बजट में गाज किस तबके पर गिरने वाली है.

कुछ भी हो लेकिन ये तय है कि इस बार का बजट इतना ज्यादा जटिल दिख सकता है कि उसी रोज़ उसकी समीक्षा करना मुश्किल हो जाए. इसीलिए बजट की समीक्षा के लिए पहले से ही, और कुछ ज्यादा मेहनत से होमवर्क करके रखने की जरूरत है. बिल्कुल उस तरह जैसे पहेलियों को बूझने के लिए पहले से अभ्यास किया जाता है.


सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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