नई दिल्ली: लोकसभा की बहस का नतीजा वही निकला जो दो महीने से सदन के बाहर हो रही बहसों से निकल रहा था। यही कि अब राजनीति में आदर्श और नैतिकता को हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए। छोड़ तो दिया ही गया है लेकिन सवालों और जवाबदेही के स्तर पर भी इसकी विदाई हो जानी चाहिए। दशकों से जनता देखती आ रही है कि किस तरह से एक राजनैतिक दल अपनी अनैतिकता को बचाने के लिए दूसरे दल की अनैतिकता से प्रेरणा पाते हैं। मैंने मज़ाक़ में इसे राजनीति का 'इज़ इक्वल टू थ्योरी' कह दिया लेकिन राजनीतिक दल इसे साबित करने को लेकर कुछ ज़्यादा ही गंभीर हो गए ।
भाषण बात को कहने की कला है, अपने आप में बात नहीं है। अपने ऊपर उठे सवालों को भाषण से दूसरे पाले के लिए सवाल में बदल देने से जवाब नहीं बनता। सवाल बनता है कि आख़िर ये कब और कैसे हुआ कि दोनों एक दूसरे के जैसे बनते चले गए। क्या कांग्रेस की नियति बीजेपी होना है और बीजेपी की नियति कांग्रेस होना है। बाकी जो नए दल हैं उनकी नियति भी आपस में या एक दूसरे के बरक्स अलग नहीं है। सब समानांतर हैं और सब बराबर हैं। ये राजनीति की मौत है। लोक-जगत में राजनीति से ज्यादा कल्पनाशील और रचनात्मक कोई दूसरा सार्वजनिक कार्य नहीं है, पर उसकी हालत बॉलीवुड की बी ग्रेड सुपर हिट फ़िल्मों जैसी हो गई है।
पूछा जाता है कि जून में बारिश क्यों नहीं हुई तो जवाब आता है अगस्त में तूफान क्यों आया। जून के कारण अगस्त के कारणों में दफन हो जाता हैं। क्या चर्चा इस बात को लेकर थी कि कांग्रेस के राजीव गांधी ने एंडरसन को क्यों भगाया। क्वात्रोकी को क्यों भगाया गया? क्या चर्चा इस बात को लेकर थी कि वित्तमंत्री रहते चिदंबरम की पत्नी को आयकर विभाग ने उनकी पत्नी को वक़ील कैसे नियुक्त किया? सुषमा स्वराज ने बताया कि राज्य सभा में पिछली सरकार में चर्चा हुई तो चिदंबरम आसानी से बच गए। अब किसे याद होगा कि तब बीजेपी ने चिदंबरम को आसानी से क्यों छोड़ा। लेकिन भाषण कला से क्या सुषमा स्वराज यह बता रही थीं कि मैंने तो चिदंबरम जैसी गलती की थी। जब हमने उन्हें बचके जाने दिया तो आप भी हमें बचकर जाने दीजिये?
भाषण सुनते हुए प्रभावित हो रहे लोग क्या याद कर पा रहे थे कि इन सवालों के तमाम पहलू क्या हैं? इन सब पर भारतीय राजनीति में पर्याप्त चर्चा हुई है और कई बार नए सिरे से हो सकती है लेकिन इनसे ललित मोदी की मदद से उठे सवालों के जवाब नहीं मिल सकते। ये सब कांग्रेस की काली कोठरी की वो कालिख़ है जिससे काजल लगा कर बीजेपी अपना रूप नहीं संवार सकती। बाद में कांग्रेसी भक्त सोशल मीडिया पर गूगल से निकालकर बताने लगे कि कानून मंत्री के तौर पर अरुण जेटली ने क्यों राय दी थी कि एंडरसन को भारत लाने का केस कमज़ोर है। लेकिन क्या इस तरह से जनता की समझ बेहतर होती है। क्या वो इन तालीबाज़ दलीलों और आरोपों को विस्तार से समझ पाती है? क्या उसे जवाब मिलता है? यही केस तो ललित मोदी का है। कांग्रेस पर भगाने का आरोप है तो बीजेपी पर लंदन में बसाने का ।
सुषमा से सवाल था कि आपने ललित मोदी की मदद क्यों की? उन्होंने बहुत आसानी से ललित मोदी की पत्नी को ढाल बना लिया। शायद इस उम्मीद में महिला मतदाता ख़ुश हो जायेंगी कि महिला की मदद तो अंतिम सत्य और कर्म है। लोग समझेंगे कि बेचारी मरीज़ की मदद की है तो ग़लत क्या है। इसी दम पर सुषमा स्वराज कहती रहीं कि अगर ये गुनाह है तो ये गुनाह किया है । पर सवाल ये नहीं था। सवाल था कि सबकुछ व्यक्तिगत स्तर पर क्यों किया। मंत्रालय को क्यों नहीं बताया। दो मुल्कों के संबंध की गारंटी ललित मोदी के लिए दी गई या उनकी पत्नी के लिए। खुद कहती रहीं कि मदद की है लेकिन सबूत मांगती रहीं कि दिखा तो दीजिये कि मैंने कुछ लिख कर दिया है। जैसे कि अनैतिकता सिर्फ लिख कर होती है। ललित मोदी भगोड़ा है तभी तो इसी अगस्त में उसके ख़िलाफ़ रेड कार्नर नोटिस जारी हुआ है। सवाल उस भगोड़े की मदद का था जो लंदन में बैठा मुस्कुरा रहा है। जो कांग्रेसी सरकार को चकमा देकर लापता हो जाता है और बीजेपी सरकार के विदेश मंत्री को सीधा फोन कर देता है। हमारी राजनीति का लालित्य बन जाता है ।
उसी तरह कांग्रेस न तो अपने सवालों पर टिकी रह सकी न सुषमा के सवालों का जवाब दे सकी। वो अपने गुनाहों से इतनी भयभीत हो गई कि सुषमा के इल्ज़ामों के आगे धाराशाही हो गई। अपने ही सवालों से पल्ला झाड़ लिया। एंडरसन और क्वात्रोकी का कुछ जवाब तो बनता ही था। जब बात उठ गई थी तो जवाब आना चाहिए था। जवाब देने के लिए राहुल गांधी आए तो लगा कि जवाब मिलेगा। जवाब नहीं दिया। जवाब नहीं मिला तो व्यक्तिगत बातचीत को हथियार बना लिया। कहने लगे कि सुषमा स्वराज ने बहस से एक दिन पहले उनका हाथ पकड़ कर बोला कि बेटा तुम मुझसे ग़ुस्सा क्यों हो। राहुल ने कहा कि मैं ग़ुस्सा नहीं हूँ। मैं सत्य के साथ हूँ तो सुषमा जी ने नज़र झुका ली ।
सदन में सुषमा चुप होकर सुनती रहीं। मुझे लगा कि अब वे उठकर राहुल गांधी को लाजवाब कर देंगी। मगर भाषण कला में माहिर सुषमा स्वराज के पास कोई हथियार नहीं बचा था। सुषमा को बताना चाहिए था कि राहुल गांधी का हाथ क्यों थामा? क्या बेटा कहकर भावनात्मक रूप से बचने का रास्ता खोज रही थीं? क्या वाक़ई उनकी नज़र नीचे हुई? राहुल गांधी एंडरसन और क्वात्रोकी के कांग्रेसी गुनाहों पर पर्दा डालने के लिए सुषमा स्वराज से हुई बातचीत से पर्दा उठा गए। यही बता देते कि ललित मोदी उनकी पार्टी के राज में क्यों भागा? किस किस ने मदद की?
यही होता रहा है, यही हुआ और यही होगा। सवाल के जवाब उस सवाल से नहीं मिलेंगे। कांग्रेस और बीजेपी मे मिलकर ललित मोदी को जीता दिया। ललित मोदी नहीं जीतता तो कांग्रेस और बीजेपी बुधवार की बहस में नहीं बच पाते। स्पीकर को भी बहस संचालित करने के साथ-साथ देखना चाहिए कि दोनों तरफ सवालों के जवाब मिल रहे हैं या नहीं। ललित मोदी को क्यों बचाया का जवाब यह नहीं हो सकता कि एंडरसन को क्यों भगाया। सिर्फ बोलने का माहौल बना देना ही काफी नहीं है। भोपाल गैस कांड के आरोपी एंडरसन को लेकर सबकी आत्माओं को इतना ही दर्द हो रहा था तो एक चर्चा भोपाल गैस कांड के पीड़ितों की हालत पर हो जाए।
बहरहाल लोकसभा की बहस का नतीजा यह निकला कि सबको भाषण कौशल के प्रदर्शन का मौक़ा मिला। सबकी राजनीति जब एक सी हो जाती है, तब राजनीति मर जाती है। लोकतंत्र में जब विकल्प एक समान हो जाए तो लोकतंत्र मर जाता है। लोकतंत्र के ख़िलाफ़ हरकतें होने लगती हैं। जनता की आवाज़ दबने लगती है, इस समान स्थिति में आपने देखा होगा कि राजनीतिक दल कार्यकर्ता की जगह सदस्य बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं। वो आपके राजनीतिकरण का पार्टीकरण करना चाहते हैं। इसीलिए हिन्दू सांप्रदायिकता और मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया जाता है ताकि आपके नाराज तो हो सकें मगर आपके लिए पाला बदलना मुश्किल हो जाए। इसलिए अब इस लोकतंत्र में जनता हमेशा हारेगी। वो मतदान प्रतिशत से ख़ुश होना चाहती है तो हो ले।