मैंने खुद बचाया है जवानों को सियाचिन में... भुलाए नहीं भूलता वह मंजर...

मैंने खुद बचाया है जवानों को सियाचिन में... भुलाए नहीं भूलता वह मंजर...

सियाचिन ग्लेशियर में आए बर्फ के तूफान के नीचे दबकर सेना के 10 जवानों की मौत की दुःखद ख़बर ने उन तकलीफों और चुनौतियों को फिर चर्चा में ला दिया है, जिनका सामना दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धस्थल पर भारतीय सेना दृढ़ इच्छाशक्ति के बूते पिछले तीन दशकों से करती आ रही है।

इन पंक्तियों के लेखक को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ था कि उन्हें इस ग्लेशियर में वर्ष 1978 में हुए सेना के पहले अभियान की मदद करने का मौका मिला, और इसके छह साल बाद 13 अप्रैल, 1984 को ऑपरेशन मेघदूत को लॉन्च किया गया। उसके बाद '90 के दशक के मध्य में भी एक बार फिर वहां जाने का मौका मिला, सियाचिन पायोनियर्स हैलीकॉप्टर यूनिट की कमान संभाले हुए। ग्लेशियर बदल चुका था, और हर साल यह सचमुच बदलता जा रहा है, लेकिन जो रंचमात्र भी नहीं घटा है, वह है भारतीयों जवानों का दुनिया में सबसे मुश्किल हालात वाले इन पहाड़ों की रक्षा करने का जज़्बा, जहां घास भी नहीं उगती, लेकिन यह हमारी पवित्र धरती है।

सेना की हर पलटन (बटालियन) यहां ग्लेशियर में एक बार में तीन महीने बिताती है, जिससे पहले बहुत अच्छी तरह उन्हें हालात से रूबरू करवाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। खतरे बहुत हैं, जिनमें माइनस 40 डिग्री सेल्सियस तापमान, गहरी-गहरी हिम-दरारें, बहुत ज़्यादा ऊंचाई की वजह से होने वाली गंभीर मेडिकल समस्याएं और बिना चेतावनी दिए आने वाले बर्फ के तूफान शामिल हैं।

मैंने बहुत-से लोगों को सुरक्षित बाहर निकाला है, जिनमें बेहद गंभीर हालत वाले भी शामिल रहे, लेकिन मैं 20-25 साल उम्र के उस नागा युवा की बार-बार याद आने वाली मजबूर सूरत को कभी नहीं भूल सकता, जिसे दिमागी सूजन (cerebral edema - इस रोग में बहुत अधिक ऊंचाई पर रहने की वजह से दिमाग में पानी इकट्ठा हो जाता है) की बीमारी हो गई थी। एक दिन हम लोग बेस कैम्प से लेह जाने की तैयारी कर रहे थे कि अचानक कैस इवैक (casualty evacuation) पर 'गोल्फ' नामक हेलीपैड पर जाने का संदेश मिला। कैस इवैक के संदेश को सभी काम छोड़कर पूरा किया जाता है, सो, हम 'गोल्फ' चले गए। उस नागा युवा को जब चीता हैलीकॉप्टर में सवार करवाया जा रहा था, मैंने चॉपर के इंजन की गर्जना के बीच उससे पूछा, "कैसे हो...?" और उसने बहुत ज़्यादा मेहनत के साथ अपना अंगूठा उठाकर 'थम्स अप' दिखाया।

जब सिर्फ 15 मिनट के बाद हम बेस कैम्प पर उतरे, फिल्मी नायकों को भी कमतर साबित कर देने वाला वह खूबसूरत युवक हमेशा के लिए सो चुका था। हमने देश के लिए एक और हीरो गंवा दिया था।

इस हफ्ते सियाचिन में आए बर्फ के तूफान में भी हमारे 10 युवाओं को बर्फ का पूरा पहाड़ उनके सिर पर आ गिरने से पहले सिर्फ एक भयंकर आवाज़ सुनाई दी होगी। अगर पता होता, तो वे बिल्कुल सिकुड़कर उकड़ू बैठ गए होते, ताकि बर्फ के नीचे दब जाने पर भी कुछ हवा उनके पास बनी रहे। इसके बाद बेस कैम्प से हेलीकॉप्टर रवाना किए गए होते, या आसपास के इलाके में उड़ रहे हेलीकॉप्टरों को उनकी तरफ भेजा गया होता। सेना द्वारा जारी की गई बर्फ के तूफान वाली जगह की तस्वीर देखने से मैं साफ-साफ अंदाज़ा लगा सकता हूं कि वह कौन-सी जगह रही होगी, और यह भी कि चीतल हेलीकॉप्टर (चीता हेलीकॉप्टर में एडवांस्ड लाइट हेलीकॉप्टर (एएलएच) का ध्रुव इंजन लगाकर तैयार किए गए चॉपर, जो अब हेलीकॉप्टर यूनिट का हिस्सा हैं) का पायलट तुरंत हेलीपैड पर कैसे पहुंचा होगा।

वह वहां मौजूद तीन हिम-दरारों के ऊपर उड़ा होगा, लेकिन उसकी नज़रें नीचे उतरने की जगह पर ही गड़ी रही होंगी। को-पायलट हर दरार के ऊपर पहुंचने पर अपनी गति का ऐलान कर रहा होगा, क्योंकि यही दरारें किसी भी ग्लेशियर पायलट के लिए 'स्पीड मार्कर' का काम करती हैं। जब वह तीसरी दरार को पार करेगा, जिसमें कुछ साल पहले एक हेलीकॉप्टर फिसलकर गिर गया था (और उसके सवारों को रस्सों के जरिये बाहर खींचा गया था), तो वह काले रंग के उन जैरीकेनों को ढूंढेगा, जो बर्फ के सफेद पहाड़ पर पायलट को गहराई का अंदाज़ा देने के लिए रखे गए थे।

लगभग तुरंत ही वहां उड़ती बर्फ हेलीकॉप्टर को पूरी तरह ढक लेती है, लेकिन पायलट की नज़रें काले रंग के जैरीकेनों पर जमी हुई हैं, ताकि कहीं वह भटक न जाए, और चारों तरफ फैली सफेदी में कुछ भी दिखना बंद न हो जाए। हेलीकॉप्टर नीचे उतरता है, और दरवाज़ा खोलते ही ठंडी बर्फीली हवा के थपेड़े खाता हुआ पायलट चिल्लाता है, "कहां हो...?"

हेलीपैड पर बैठे साथी बर्फ का तूफान की जगह की ओर इशारे करते रहते हैं, चीतल बार-बार उड़ता है, उसी जगह के आसपास चक्कर लगाता रहता है, लेकिन कुछ हासिल नहीं होता। बर्फ का तूफान अपनी चपेट में लेकर सब कुछ लील चुका है। पायलट देख रहे होंगे कि बचाव दल के जवान अपने साथियों को तलाश कर बाहर निकालने के लिए लगातार खुदाई कर रहे हैं, और बीच-बीच में सिर्फ उखड़ती सांसों पर काबू पाने के लिए रुकते हैं। 19,000 फुट की ऊंचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा समुद्रतट की तुलना में आधी रह जाती है। वे जवान ऑक्सीजन की बोतलों से कुछ सांसें लेते हैं, और फिर खुदाई में लग जाते हैं - हालांकि इस मामले में किसी को तलाश कर बाहर नहीं निकाला जा सका।

जब जवान मिल जाएंगे, चीतल फिर उड़कर वहां जाएंगे, और इस बार अपने साथियों के पार्थिव शरीरों को लेने के लिए। मैं समझ सकता हूं कि उस वक्त उन पायलटों के दिमाग में क्या चल रहा होगा - वे भी उस दृश्य को कभी नहीं भूल पाएंगे, जैसे मैं 1995 में देखे उस नागा युवक के चेहरे को नहीं भूल सका हूं।

बहादुरों, परमात्मा तुम्हारी आत्माओं को शांति दे। यह देश कभी - कभी भी - तुम्हारे ऋण को चुका नहीं पाएगा। लेकिन हम सब जानते हैं कि बेस कैम्प की दीवार पर लगे उस स्क्रॉल में जो लिखा है, वही तुम हो, वही तुम रहोगे...

"बर्फ से घिरे रहते हैं, चुप रहते हैं...
लेकिन जब भी बिगुल बजेगा, वे उठ खड़े होंगे, और चल पड़ेंगे..."

सेवानिवृत्त एयर वाइस मार्शल मनमोहन बहादुर (VM) नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर एयर पॉवर स्टडीज़ में विशेषज्ञ हैं...

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