मुजफ्फरनगर में राहत शिविर में पढ़ते बच्चे (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
फेसबुक पर शिमला, मनाली और तमाम जगहों पर ठंड और बर्फ़बारी में ठिठुरते-कंपकंपाते दोस्तों और रिश्तेदारों की हंसती-खेलती तस्वीरों को हम और आप अक्सर लाइक करते हैं। लेकिन अगर हड्डियां गला देने वाली ठंड में बिना मूल-भूत सुविधाओं के हमें एक दो रातें टेंट में गुज़ारनी पड़ें तो हम क्या करेंगे? जिस घड़ी आने का फ़ैसला किया, शायद उस घड़ी को कोसेंगे।
बहुतों के लिए शायद ये अनुभव कभी न भुलाने वाला हो। लेकिन जिस मंज़र की कल्पना से मन कांप जाता है, उसे मुज़फ़्फ़रनगर में सैकड़ों लोग रोज़ जीते हैं।
वे आज भी कड़ाके की ठंड में बदतर हालात में जीने को मजबूर हैं। ये वे लोग हैं जो अगस्त-सितंबर 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर में भड़के दंगों में अपना सबकुछ गंवा देने के बाद राहत शिविरों में रह रहे हैं। इस बार की ठंड ने 25 लोगों की जान ले ली, लेकिन किसे परवाह है इस बात की और हो भी क्यों। आख़िर ये कुदरत की मार है।
क्या वाकई यह कुदरत की ही मार है? दरअसल, जिस नफ़रत ने उन्हें बेघर किया, और जिस बेरुखी की वजह से उनकी वापसी नहीं हो पाई है, यह दरअसल उसी का मिला-जुला खेल है। कुदरत तो हम सबके लिए एक जैसी है, लेकिन अपनी सामाजिक-आर्थिक हैसियत से इस ठंड में भी हम अपने मनोरंजन का सामान खोज लेते हैं, जबकि यही क़ुदरत कुछ लोगों पर क़हर की तरह पड़ती है।
दरअसल यह मौसम की नहीं, इंसान की गरीबी और बेकदरी की ख़बर है जो मुजफ़्फ़रनगर के शिविरों में घट रही है- हालत ये है कि इन्हें अब शिविर तक नहीं कहा जा रहा।
लोकसभा चुनाव हो चुके हैं, 'सबका साथ सबका विकास' करने के लिए नई सरकार भी आ गई है, और तो और यूपी के चुनावों में तो अभी वक़्त है ऐसे में कुछ लोगों की जान चली जाने जैसी छोटी बातों में भला वक़्त क्या बरबाद करना, क्यों? वैसे भी सिर्फ़ नेता ही क्यों समय-समय पर मीडिया का मिज़ाज और दिलचस्पी भी बदलती रहती है। जहां एक तरफ़ दंगों के दौरान मुज़फ़्फ़रनगर
अखबारों-टीवी की सुर्ख़ियां हुआ करता था, वहीं आज ख़बरों के इस संसार में बाद के हालात जानने की इच्छा, तत्परता और दिलचस्पी किसी में नहीं। ये स्वाभाविक है कि लोग तमाम मामलों में रुचि लें लेकिन ख़बरों की इस भूल-भुलैया में हमारी प्राथमिकताएं कैसे बदलती रहती हैं- मुज़फ़्फ़रनगर इसकी भी पहचान कराता है।
फ़िलहाल देश और ख़ासतौर से दिल्ली के सामने इस समय
सबसे बड़ी ज्वलंत समस्या ये जानने की है कि किरण बेदी को मिलती है दिल्ली की कमान या केजरीवाल को और क्या माकन लगा पाएंगे कांग्रेस की नैया पार? लेकिन इन बातों से परे
तक़रीबन उन हज़ारों लोगों के बारे में पलभर के लिए सोचिए जो मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों के बाद न सिर्फ़ अपनी छत बल्कि अपना अस्तित्व तक खो बैठे हैं। अपनी ज़मीन, घरबार सबकुछ छोड़
भागने की मजबूरी ने अगर इन्हें कोई पहचान दी तो वो है दंगा पीड़ितों की..राहत शिविरों में रह रहे लोगों की...जिनकी याद नेताओं को तभी आती है जब इनसे कोई वोट की दरकार होती है।
यूं तो अखबारों से मिली जानकारी के मुताबिक प्रशासन का दावा है कि मुज़फ़्फ़रनगर के दंगा पीड़ितों को दिसंबर 2013 में ही पुनर्विस्थापित कर दिया गया था। प्रशासन न तो इन मौतों से वाकिफ़ है और न ही उनकी नज़र में अब कोई राहत शिविर में रह रहा है। भले ही कागज़ों में राहत शिविरों का अस्तित्व न भी हो
लेकिन माना जाता है, आज भी क़रीब 3500 लोग मुज़फ़्फ़रनगर और 700 लोग शामली के शिविरों में कड़कड़ाती ठंड में कैसे-तैसे अपनी गुज़र बसर कर रहे हैं।
लेकिन, शायद यहां प्रशासन की अनदेखी या असंवेदनशीलता कोई नई बात नहीं है तभी तो दिसंबर 2013 में ठंड से हुई मौतों पर बड़ी आसानी से तब के उत्तर प्रदेश के प्रिंसिपल सेक्रेटरी (होम) अनिल गुप्ता कह देते हैं-ठंड से कोई नहीं मरता अगर ठंड से लोग मरते तो साईबेरिया में कोई न बचता।
बहरहाल मुज़फ़्फ़रनगर में जहां न्यूनतम तापमान क़रीब 2.5 डिग्री तक पहुंच जाता हो वहां इन मजबूर, बेसुध लोगों की सुध लेने वाला कोई नहीं। ये लोग फटे-टूटे टेंटों में खाने-पीने, दवा के अभाव में दम तोड़ रहे हैं, लेकिन इनकी सिसकियां सुनने का वक़्त शायद वक़्त के पास भी नहीं। यहां गुज़र रही हर ज़िंदगी सुबह इस उम्मीद से जागती है कि शायद और कोई न सही ऊपर वाला ही उनकी कोई पुकार सुन ले और जल्द से जल्द इस सर्द मौसम से उन्हें छुटकारा मिले और जीवन में छाई लंबी काली रात से उन्हें भी निजात मिले।