नई दिल्ली: 1864 में रेड क्रास की स्थापना हो गई थी, तब से लेकर युद्ध की जिनती भी छवियां हम तक पहुंची हैं, उसमें एक तस्वीर रेड क्रास के बक्से की होती ही थी. उसके बाद प्रथम विश्व युद्ध और फिर दूसरे विश्य युद्ध तक आते-आते मानवतावादी मदद का काम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संगठित होने लगा.
बहुत से संगठन ऐसे हैं जो पेशेवर रूप से इस काम को करते हैं, इसलिए करते हैं कि युद्ध, प्राकृतिक आपदा, सरकारों और सेना के अत्याचार के शिकार और विस्थापित लोगों की ज़रूरतें अलग-अलग होती हैं. आमतौर पर हम मदद को कपड़ा और खाना बांटने तक ही समझते हैं मगर इसके संसार में भी अनेक कहानियां हैं. इसके अपने नियम हैं. विवाद भी हैं. जब खालसा एड नाम का संगठन बांग्लादेश पहुंच कर रोहिंग्या शरणार्थियों की मदद करने लगा तो दुनिया को अच्छा भी लगा और भारत में इन्हें ट्रोल भी किया गया यानी कुछ लोग यह याद दिलाना नहीं भूले कि एक सिख संगठन कैसे मुसलमानों की मदद कर रहा है जबकि सिख धर्म गुरुओं और मुसलमानों के इतिहास का एक हिस्सा ख़ूनी रहा है. बहरहाल ट्वीटर और फेसबुक पर इन्हें भी आतंकवादियों का समर्थक बता दिया. इतना कि खालसा एड को सफाई देनी पड़ गई.
कोई दस दस दिन पैदल कर चलकर म्यांमार सीमा पर पहुंचा हो, वहां से नाव से बांग्लादेश पहुंचा हो, उसके घर उजड़ गए हों तो उसे देखने का एक नज़रिया मानवतावादी भी हो सकता है. मीडिया और राजनीतिक क्षेत्र में इसे हिन्दू मुस्लिम एंगल से देखा गया लेकिन इंसानियत का नज़रिया पीछे रह गया. खालसा एड के लोग बांग्लादेश पहुंच कर 50,000 लोगों की मदद करने लगे. खाना खिलाने लगे. जब ट्वीटर पर एक महिला ने पूछा कि क्या आप पाकिस्तान जाकर सिखों की भी मदद करेंगे जिन्हें जज़िया देना पड़ता है. वैसे पाकिस्तान में जज़िया लगने के कोई प्रमाण तो नहीं है मगर इस तंज पर खालसा एड ने भी व्यंग्य के लहज़े में जवाब देते हुए कहा कि हम न सिर्फ सिख बल्कि 2005 के भूंकम में और 2009 के स्वात संकट में हिन्दुओं की मदद कर चुके हैं. खालसा एड का कहना था कि रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति ख़राब है. जिस वक्त रोहिंग्या को बसाने या भगाने की बात हो रही थी, खालसा एड उनकी भूख की चिंता कर रहा था, दवा की चिंता कर रहा था, भावनात्मक मदद पहुंचा रहा था.
VIDEO: मानवता की मिसाल है 'खालसा एड'
ज़रूरत है कि हम इन मानवतावादी संगठनों की भूमिका को ठीक से समझे. 28 अक्तूबर, 2010 का बीबीसी पर सौतिक विश्वास का एक लेख है. इसके अनुसार, 1943 में भारत में जब अकाल पड़ा था, बंगाल में लाखों लोग भूख से मर गए थे, तब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल ने भारत तक अनाज पहुंचाने की तमाम कोशिशों को रोक दिया था. उल्टा भारत से चावल का निर्यात किया गया. चर्चिल ने सक्रियता नहीं दिखाई और बंगाल के अकाल में तीस लाख लोग मरे थे. इसलिए मानवतावादी मदद की अहमियत को राजनीतिक विवाद से अलग हटकर देखना समझना चाहिए. आप भले ही किसी समुदाय के बारे में कुछ भी राजनीतिक नज़रिया रखते हों, लेकिन किसी संगठन, किसी मुल्क का असली इम्तहान यही है कि संकट के वक्त प्यासे को पानी कौन पिलाता है, भूखे को भोजन कौन देता है.
सीरिया के संकट में जब सीरिया के लोग भाग कर यूरोपिय देशों में बने रिफ्यूजी कैंपों में जा रहे थे उस समय में यूरोप के बहुत से सिख संगठनों ने खालसा एड की बेकरी सीरिया की सीमा पर 2014 में स्थापित की, जिसने यहूदी रिफ्यूजी कैंपों में 16000 ब्रेड रोज बांटे और इसी साल लेबनाना सीरिया सीमा पर रिफ्यूजी कैंप में एक स्कूल भी खोला जिसमें 500 बच्चे पढ़ने आते हैं. इंग्लैंड के एक और संगठन मिडलैंड लंगर सेवा सोसाइटी कैले फ्रांस में सक्रिय थी और 5000 रिफ्यूजियों के कैंप को जंगल में अपनी सेवाएं दीं.
2015 में सीरीयन बच्चा आयलन कुर्दी तुर्की के द्वीप पर मिला था, उसकी तस्वीर ने पूरी दुनिया में हंगामा मच गया था. पूरी दुनिया ने सीरिया के संकट को गंभीरता से समझा. इसी तस्वीर को देखने के बाद, मिडलैंड लंगर सेवा सोसाइटी के सिख रिफ्यूजियों की मदद के लिए आगे आए. वियना का एक सिख समुदाय सिख हेल्प, आस्ट्रिया के बैनर तले रिफ्यूजियों को रेलवे स्टेशनों पर खाना उपलब्ध कराने लगा. आप सोच सकते हैं कि जिस आईएस को लेकर दुनिया भर में दहशत हो, वहां पर ये मानवतावादी संगठन मदद पहुंचाने चले गए.
शरणार्थियों को लेकर घरेलु राजनीतिक दुनिया भर में प्रभावित होती रहती है. जर्मनी में एंजेला मार्केल चौथी बार जीत तो गई हैं मगर तुकच् और ग्रीस से लाखों की संख्या में आए शरणार्थियों को शरण देने को लेकर उन्हें नुकसान भी उठाना पड़ा है, फिर भी एंजेला पीछे नहीं हटी मगर इसका लाभ उठाकर दक्षिणपंथी ताकतों ने अपनी ताकत का विस्तार कर लिया. शरणार्थियों को लेकर हमारी समझ इतिहास से कट गई है. इस सबके बीच आपको एक घटना की याद दिला दें जिसके लिए 18 मई ,2016 को कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने अपनी संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स में औपचारिक तौर पर माफ़ी मांगी. 1914 की इस घटना को कामागाटा मारू के नाम से जाना जाता है.
तब समुद्री जहाज़ में आए 376 लोगों को वैंकूवर के बंदरगाह से वापस लौटा दिया गया था. इनमें से अधिकतर लोग सिख समुदाय के थे. जहाज़ में बैठे कनाडा के सिर्फ़ 20 नागरिकों और एक डॉक्टर और उसके परिवार को ही जहाज़ से उतरने दिया गया और बाकी सब को जहाज़ समेत वापस लौटा दिया गया. ये जहाज़ दो महीने तक बंदरगाह पर खड़ा रहा और अंत में कनाडा की सेना ने उसे वहां से वापस जाने को मजबूर कर दिया. जितने समय ये जहाज़ बंदरगाह पर खड़ा रहा, ये अंतर्राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में रहा और इसकी वजह से कनाडा की इमिग्रेशन पॉलिसी की काफ़ी आलोचना हुई. ये जहाज़ अंत में भारत लौटा और साइमन फ्रेज़र यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों के मुताबिक जहाज़ में सवार 19 यात्रियों को अंग्रेज़ सरकार के आदेश पर गोली से मार दिया गया और बाकी को बंदी बना लिया गया. इस जहाज़ के यात्रियों के वंशज तब से ही कनाडा सरकार से औपचारिक माफ़ी मांगने की मांग करते रहे हैं जो अंत में जस्टिन ट्रूडो ने माफ़ी मांग कर पूरी की. कनाडा में आज सिख समुदाय की आबादी क़रीब पांच लाख है.
रोहिंग्या शरणार्थियों को भारत से निकालने के लिए राजनीतिक बहस जारी है. मामला अदालत में पहुंच गया है. सरकार इन्हें देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा मानती है. मगर भारत के ही नागरिक खालसा एड संगठन के बैनर तले इनकी मदद करने बांग्लादेश पहुंच जाते हैं. आजकल यूनिवर्सिटी में यौन हिंसा का विरोध करने पर एंटी नेशनल कहा जाने लगा है तो सोचिए जिन लोगों को सरकार सुरक्षा के लिए खतरा मानती हो, उनकी मदद के लिए कोई संगठन मानवता के आधार पर सेवा करने पहुंच जाए तो उन्हें क्या-क्या नहीं कहा गया होगा. कहा ही गया. इन सबके बीच खालसा एड जैसे संगठन काम कैसे करते हैं. उनका क्या अनुभव रहता है, मदद और मदद से जुड़े विवादों को लेकर.