सराहा में लॉगिन करने के बाद मैंने फेसबुक और मित्रों के बारे में क्या जाना?

ख़ैर सराहा से मेरा तो एजेंडा को पूरा हो गया. ब्लाग हो गया. अब सोच रहा हूं कि तुरंत लॉग आउट करूं या अपने कुछ और ईगो-बूस्टिंग संदेशों का इंतज़ार करूं? 

सराहा में लॉगिन करने के बाद मैंने फेसबुक और मित्रों के बारे में क्या जाना?

इंसान की उत्सुकता और उसके मन को समझने में ऋषि-मुनि से लेकर दुनियाभर के तमाम न्यूरोसाइंटिस्ट तक खप गए, तो इस कॉटेक्स्ट में हो सकता है कि कई वजहें ऐसी होंगी, जो मुझे समझ नहीं आई होंगी. जब मैंने सराहा ऐप पर अकाउंट खोला. वो ऐप जिस पर लोग छुपकर मेरे बारे में अपनी राय दे सकें, या फिर अपने दिल की बात कह सकें. तो कॉशंस तरीक़े से कहूं तो इसके पीछे उत्सुकता या ललक नहीं थी कि दुनिया मेरे बारे में क्या सोचती है? मैं ये समझना चाह रहा था जब लोगों को टोटल गुमनामी की सुविधा मिलती है तो उनका उनका संवाद, उनकी भाषा कितनी बदलती, कितनी ईमानदार होती है. दूसरा यह कि क्या लोगों में इतनी चिढ़ है कि एनॉनिमस होकर गरियाएं जैसे ट्विटर पर होता है? इसीलिए मैं सराहा पर अकाउंट खोलने के साथ ये सोच रखा था कि फेसबुक पर पोस्ट तो नहीं करूंगा. 
 

saraha

वैसे इस ऐप ने ये तो कहीं नहीं लिखा था कि आपको इसमें आए संदेशों को पोस्ट करना ही है, पर इसी नीले हरे डिब्बे से मैंने पहली चीज़ समझी, वो थी पोस्ट-ट्रूथ के बारे में. वो शब्द नहीं जो 2016 का ऑक्सफॉर्ड वर्ड ऑफ़ द ईयर बना था. पर वो पोस्ट ट्रूथ जो ये मान्यता थी कि नीले-हरे रंग के डिब्बे में पोस्ट की गई चीज़ सत्य ही थी. जो मेरे फ़ेसबुक मित्रों के द्वारा आजकल धड़ाधड़ टाइमलाइन में शेयर किए जा रहे हैं.

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अब ये एक मजेदार फ़ेनोमिना है. वो इसलिए कि जिस भी पुरुष मित्र ने लड़के के तौर पर बचपन या जवानी गुज़ारी है वो ये दिल की गहराई में तो जानता है कि इन रोमांटिक संदेशों में से 99% तो उनके दोस्त यारों ने ही लिख के भेजी है. अपने दोस्तों के रोमांटिक उम्मीदों की नाव की पाल में हवा भरना और उसे पिचकाना छोकरों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है और इसीलिए हर सराहा पोस्ट पर वो पापी दोस्त कहीं दूर छुप कर अपने कंप्यूटर पर बैठे खिलखिला रहे होते हैं. पर मज़ेदार ये है कि इस सत्य को जानने के बावजूद लड़के बचपन से झांसे मे आते रहे हैं, लड़की ही लिखी होगी. भारतीय लड़कों की पर्सनैलिटी में अगर होप अगेन्स्ट होप देखना है तो रोमांस के इलाक़े में ही दिखता है. तो इस सराहा ऐप का भी हमारे लिए एक ही काम है. प्रेम निवेदनों को हम तक पहुंचाना. इस सुराग़ को ढूंढने की कोशिश करना कि कोई लड़की मिस तो नहीं हो गई? भले ही ये ऐप ईमानदार फ़ीडबैक के बारे में बना हो पर हिट इस्तेमाल तो एक ही है. ख़ैर अपने दोस्तों की क्रिएटिविटी पर भरोसा करते हुए मैंने कुछ भी पोस्ट नहीं किया. दूसरी वजह थी कि मुझे एक ब्लॉग भी लिखना था.

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वहीं सराहा ऐप के ज़रिए फ़ेसबुक के बारे में भी कुछ सीखा. फेसबुक के बारे में जो कुछ मैंने सीखा है, वह जटिल था. सराहा ऐप दरअसल यह भी बता रहा है कि फेसबुक इन दिनों एक बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है. फेसबुक पर घनिष्ठता कम होती जा रही है, निजी भाव कम होते जा रहे हैं, व्यक्तिगत पोस्ट कम होते जा रहे हैं. फेसबुक पर शेयरिंग और पोस्टिंग निश्चित रूप से बढ़ी है, लेकिन उनमें ज़्यादातर राजनैतिक एजेंडा है, धार्मिक एजेंडा वाले शेयर हैं, यूज़र अपनी अपनी पार्टियों को बचाने में लगे हैं, धर्म की रक्षा में लगे हैं,  वायरल वीडियो देखे जा रहे हैं, लेफ़्ट-राइट के समाचार लेख बांटे जा रहे हैं. ऑरिजिनल शेयरिंग कम हो रही है. इस साल अप्रैल में कई समाचार साइटों ने फेसबुक की इस चुनौती से निपटने की तैयारी पर एक रिपोर्ट डाली थी.

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'द इन्फॉर्मेशन' नाम की एक वेबसाइट के साथ कई न्यूज़साइट पर मैंने पढ़ा कि फेसबुक ने अपनी एक टीम बनाई है, जो पता करे कि लोग फिर से ऑरिजिनल शेयरिंग कैसे बढ़ाएं. अब इसके पीछे वजह जो भी हो, संदेहास्पद ऑनलाइन प्राइवेसी, सोशल मीडिया में शोर, या राजनैतिक विचारों का पोलराइज़ेशन हो पर परिणाम ये है कि फ़ेसबुक पर अंतरंग चर्चा सिमटी है. सराह पर मुझे जो संदेश मिले उससे यही महसूस हुआ कि ऐसे संदेश तो पहले फ़ेसबुक पर मिलते थे. कुछेक संदिग्ध प्रेम निवेदनों को छोड़, अधिकतर संदेश ऐसे थे जो मुझे रफ़्तार के दर्शकों से आते रहते थे. अब ऐसे संदेशों के लिए छुपने की ज़रूरत क्यों हो रही है? ख़ैर सराहा से मेरा तो एजेंडा को पूरा हो गया. ब्लाग हो गया. अब सोच रहा हूं कि तुरंत लॉग आउट करूं या अपने कुछ और ईगो-बूस्टिंग संदेशों का इंतज़ार करूं? 

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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