क्रांति संभव की लेह यात्रा पार्ट 3 : एसयूवी वाला साधु...!

क्रांति संभव की लेह यात्रा पार्ट 3 : एसयूवी वाला साधु...!

(सबसे पहले ज़हन में एक शीर्षक आया 'द मॉन्क हू ड्रोव हिज़ एसयूवी' - उस किताब से प्रेरित होकर, जो मैंने नहीं पढ़ी, लेकिन जिसका नाम काफ़ी प्रचलित है 'मॉन्क हू सोल्ड हिज़ फ़ेरारी' - क्योंकि जिस मुलाक़ात का ज़िक्र करने वाला हूं, उस पर यही लाइन फ़िट बैठती है, लेकिन देवनागरी में अंग्रेज़ी शब्द ठीक नहीं लग रहे थे, तो आइडिया बदल दिया...)

लद्दाख़ के कई हिस्से रेत से भरे हैं, यानी ठंडा रेगिस्तान. ऐसी ही एक जगह है नुब्रा घाटी. सोचने में थोड़ा अटपटा लगता है कि रेगिस्तान ठंडा कैसे हो सकता है, पहाड़ियों पर कैसे हो सकता है, लेकिन है. अगर समंदर जैसे खारे पानी वाली झील पैंगांग हो सकती है लद्दाख़ में, तो रेगिस्तान क्यों नहीं... तो उस नुब्रा वैली की लेह से दूरी 150 किलोमीटर की होगी और रास्ते में वह पास आता है, जो शायद लद्दाख़ से भी ज़्यादा चर्चित नाम है हिन्दुस्तानियों के लिए, जिसके बारे में पार्ट 2 में लिखा था - खारदुंग-ला...

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लेह यात्रा पार्ट 2: क्या खारदुंग-ला पास है सबसे ऊंचा ?
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तो नुब्रा के रास्ते की शुरुआत हुई चढ़ाई के साथ, जो रास्ता जा रहा था खारदुंग-ला होकर. और जैसे-जैसे रास्ता ऊपर जाता है, नज़ारा ख़ूबसूरत होने के साथ-साथ थोड़ा डरावना भी होता जाता है. ऊपर देखें तो मंत्रमुग्ध, नीचे देखें तो डरावना. शायद मैदानी लोगों के लिए तनाव ज़्यादा होता है. ख़ासकर तब, जब आप ड्राइवर सीट पर न हों. वैसे यह मनोविज्ञान मैदानी इलाक़ों की सड़कों पर भी काम करता है. अगर आपको ड्राइविंग आती है, लेकिन ड्राइव कोई और कर रहा हो तो उस गाड़ी में बैठना काफ़ी असहज रहता है. सोचिए कि लद्दाख़ जैसी जगहों पर यह कितना मुश्किल होता है, जहां मैं जा रहा था परिवार के साथ, टैक्सी में. ख़ासकर तब, जब सड़क के नाम पर एक अवशेष मिलता है, जो ऊपर की तरफ़ जाता दिखाई देता है. खारदुंग-ला पहुंचने से पहले के 10-15 किलोमीटर से बाद तक सड़कें इतनी ख़राब दिखीं कि पूरे रास्ते भय और गुस्से के बीच आप झूलते रहते हैं कि इतनी लोकप्रिय जगह पर ऐसे रास्ते कैसे हो सकते हैं. लेकिन तनाव और डर के साथ समस्या यह होती है कि कई बार उन्हें कम करने की कोशिश का असर उल्टा होता है.

तो हुआ यह कि इस मुश्किल रास्ते पर मुझे अचानक किसी के कराहने जैसी आवाज़ आने लगी थी. पहले मुझे लगा पहिए से तो नहीं आ रही, जिस एसयूवी टैक्सी में मैं जा रहा था. पर लगा कि नहीं. फिर मैं आसपास देखने लगा कि जानवरों को कोई झुंड तो नहीं. वह भी नहीं था. अब मैं और तनाव में आ गया. गाड़ी में चल रहे म्यूज़िक को कम किया. तब लगा कि ड्राइवर की आवाज़ है. फिर तो टेंशन का बढ़ना लाज़िमी है. कहीं नशा करके तो नहीं चला रहा, कहीं बीमार तो नहीं या कहीं नींद तो नहीं आ रही है...? अब ऐसे रास्ते पर यह सोच ही डराने के लिए काफ़ी थी. गाड़ी में चल रहे म्यूज़िक को बिल्कुल बंद कर दिया. फिर साफ़ हो गया, आवाज़ कहां से आ रही है, आवाज़ ड्राइवर की ही थी.
 


लेह में टैक्सी का क़ारोबार बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन यूनियनबाज़ी काफ़ी है, जो कुछ सेल्फ़ ड्रिवेन गाड़ी वालों के बीच अब अपने गुस्से के लिए जाने जाते हैं. लेकिन मेरी टैक्सी, जो एक एसयूवी थी, का ड्राइवर शांत था. लोकल लद्दाख़ी, या कहें ठेठ लद्दाख़ी. कम बातचीत और बीच-बीच में पूछने वाले कि कहीं रुकना तो नहीं. नाम था नवांग. 40 के आसपास उम्र होगी. जीन्स, पतले जैकेट के साथ एक बेसबॉल कैप. साथ में काला चश्मा.

अब सवाल था कि आख़िर चल क्या रहा है...? ड्राइवर की आंखें खुली थीं और गाड़ी भी ठीक चल रही थी. फिर क्या हो सकता है...? थोड़ी देर में ही मामला समझ में आ गया. दरअसल नवांग पूजा कर रहे था, बौद्ध नवांग का पाठ चल रहा था. म्यूज़िक सिस्टम के बंद होने के बाद तो आवाज़ और साफ थी, जिससे थोड़ी राहत मिली. गाड़ी जैसे-जैसे आगे जा रही थी, नवांग का पाठ स्पष्ट होता जा रहा था. जो भी पाठ वह कर रहा था, रिपीट नहीं था. नई पंक्तियां होती थीं. समझ में तो नहीं आ रहा था, लेकिन आरोह-अवरोह दिलचस्प था. मुश्किल चढ़ाई या मोड़ आते वक़्त पाठ ऊंचा होता जाता था और आराम ढलान पर मद्धम स्वर लगते थे. फिर तो नुब्रा तक लगभग यही प्रक्रिया चलती रही. रास्ते में कहीं रुकते तो पाठ रुक जाता था. दूसरे ड्राइवरों से बात करते चाय पीते देखता था. फिर यात्रा शुरू होती, तो पाठ भी.
 

यह सब देखकर मुझे कई और धार्मिक लोग याद आए, जिनकी पूजा मैंने देखी है. जिनकी ज़िन्दगी का एक हिस्सा पूजा-अर्चना में जाता है, बड़ा हिस्सा. काम अलग और पूजा अलग. यहां नवांग की पूजा कितनी अलग लग रही थी, जहां उसकी धार्मिकता जीवन के साथ चल रही है. अपने जीवन को रोककर अपने आराध्य से बात नहीं कर रहा था, उसकी दोनों दुनिया साथ चलती दिखीं. जहां दोनों में के किसी एक को दूसरे के लिए रुकने की ज़रूरत नहीं, ज़िन्दगी भी नहीं, बातचीत भी नहीं. यह एक मस्तमौला दोस्ती जैसी लगी. रोज़ाना की चीज़ों-आदतों-एक्शन के इर्द-गिर्द लिपटी-सी. यहां तक कि नुब्रा में भी सड़क किनारे स्तूप बना दिखा तो रुककर प्रणाम न करके, चलती गाड़ी को थोड़ा मोड़ा, उसका एक चक्कर काटकर आगे निकल गए.

लद्दाख़ जाकर पहाड़ों-पर्वतों की ऊंचाई, खाइयों को देखकर न सिर्फ़ इंसान का विनम्र होना स्वाभाविक है, भले ही उसका अहंकार किसी और के सामने यह न मानने दे, लेकिन मन ही मन इस विशाल धरती की छाती पर खड़े इन विशाल पर्वतों के सामने ख़ुद को एक न एक पल के लिए एक कण जैसा ज़रूर महसूस करता है, अपनी हैसियत समझता है. सोचिए, इसी विशालता से सदियों से घिरा समाज कैसा सोचता होगा...? जहां नज़र घुमाइए, वही विशालता-विराटता, जो विनम्र तो बनाती ही है, लेकिन लद्दाख़ जैसी मुश्किल जगह पर किसी को भी अलग तरीक़े से धार्मिक भी बनाती है शायद. जहां ठंड इतनी पड़ती हो, सांस लेने के लिए ऑक्सीजन कम हो, चारों ओर पहाड़ और नीचे रेतीली ज़मीन या रेगिस्तान हो, ज़िन्दगी इतनी मुश्किल होती है, वहां बहुत ही स्वाभाविक है कि इंसान की नज़र ऊपर की ओर ही जाए.

ख़ैर, दूसरे दिन तक हम दोनों का सामंजस्य बदल चुका था. नवांग ने मेरे लिए म्यूज़िक सिस्टम ऑन कर दिया था और ख़ुद पाठ करने लगा था.

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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