दर्द-ए-दिल्ली पार्ट-2: काहे की पब्लिक और क्या ट्रांसपोर्ट ?

दर्द-ए-दिल्ली पार्ट-2: काहे की पब्लिक और क्या ट्रांसपोर्ट ?

प्रतीकात्‍मक फोटो

थोडे दिन पहले एक डॉक्यूमेंट्री देखी। अगर आपके पास दो घंटे का वक़्त है और सलमान ख़ान की मानवतावादी संदेश प्रधान फ़िल्म देखने का मूड नहीं है तो आप भी देख सकते हैं। माइकल मूर की। 'कैपिटलिज़्म अ लव स्टोरी'। एक सीन आता है जब एक सेनेटर गुस्से में कहती है कि ये अमेरिकी कांग्रेस है कि गोल्डमैन सैक्स के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर। पता चलेगा कि कैसे ओपन मार्केट के जन्नत में जब पूंजीवाद की मसीहा कंपनियों को बेलआउट चाहिए था तो बिना शर्त कंपनियों को पैसे दिए गए, बिना शर्त मतलब सरकार पूछ भी नहीं सकती थी कि ये कंपनियां इस पैसे का क्या करती हैं, जिसका नतीजा बाद में दिखा कि वह बेलआउट का पैसा भी सीईओ के पॉकेटों में गया। सरकार ने मंदी की आंधी से आम जनता को नहीं, उन एक फ़ीसदी लोगों को बचाया, जिनकी पूंजी अमेरिका के 95 फ़ीसदी लोगों को मिलाकर बनने वाली पूंजी से ज़्यादा थी।

डॉक्यूमेंट्री में थोड़ी अतिशयोक्ति लगेगी लेकिन आप ये ज़रूर सोचेंगे कि कैसा कैपिटलिस्ट नेशन है। लेकिन उसके बाद देखिए कि हमारे रेट्रोफ़िटेड सेकुलर और सोशलिस्ट वेलफ़ेयर स्टेट की सच्चाई क्या है ? नज़र घुमाइए तो साफ़ हो जाएगा कि हम भी उसी रास्ते पर हैं, जहां ग़रीब और आम लोग हमारी राजनीति का जुमला हैं और कोठीवाले राजनीति की सच्चाई। नेताओं की चिंता एक ख़ास वर्ग को लेकर है और मीडिया का एक ख़ास पिनकोड को लेकर। इसी का नमूना है दर्द-ए-दिल्ली का पार्ट 2 । पब्लिक ट्रांसपोर्ट। वो ट्रांसपोर्ट जिसमें नेता नहीं चलते, बिज़नेस टाइकून भी नहीं चलते, लुटियन दिल्ली फ़ैब इंडिया क्राउड नहीं चलता, ग़रीबों की मसीहा पार्टी के नेता भी नहीं चलते, इनमें कैटल क्लास चलता है।

कौन छोड़ रहा है धुआं ?
दिल्ली की रजिस्टर्ड 88 लाख गाड़ियों का आंकड़ा बार-बार इस्तेमाल हो रहा है। रजिस्टर्ड प्राइवेट और कमर्शियल गाड़ियों को मिलाकर ये संख्या आती है। 29-30 लाख कारें हैं और 55-56 लाख टू-व्हीलर। अब हर रोज़ सब तो उतरती नहीं, और हज़ारों की संख्या में बेकार पड़ी धूल भी खा रही होंगी लेकिन सच्चाई ये बताई जाती है कि बाक़ी मेट्रो शहरों की गाड़ियों को मिला दें तो ये संख्या बराबर बैठती है। लेकिन क्या ये संख्या दिल्ली में सिर्फ़ इसलिए ज़्यादा है क्योंकि नॉर्थ इंडियन आडंबरी होते हैं ? यह बहुत सीमित कल्चरल सच्चाई है।

दरअसल धुआं छोड़ती लाखों गाड़ियां हर रोज़ इसलिए निकलती हैं क्योंकि मजबूरी है। जो शहर में 30-35 फ़ीसदी प्रदूषण की ज़िम्मेदार हैं। दिल्ली में सबसे ज़्यादा प्रदूषण सड़कों और कंसट्रक्शन से निकलने वाली धूल से होता है, फिर ट्रक और उसके बाद मोटरसाइकिल। कुल प्रदूषण में से 18-19 फ़ीसदी टू-व्हीलर्स की देन है। कारों से ज़्यादा, जो लगभग 14-15 फ़ीसदी है। ये सब आईआईटी कानपुर की रिपोर्ट कह रही है। धूल, ट्रक और कारों को फ़िलहाल छोड़ केवल दुपहिया पर नज़र डालें तो ये सवाल तो आप पूछेंगे न कि दिल्ली में आख़िर 55-56 लाख टू-व्हीलर क्यों हैं ? क्योंकि वही अफ़ोर्ड कर सकते हैं।

बाइक-स्कूटर का बवंडर क्यों ?
एक मुद्दा जो शायद सरकारें नहीं समझतीं वह ये कि शहर में ये पचास लाख से ऊपर दुपहिए, शौक़ीन बाइकर नहीं चलाते हैं। ये धूम फ़िल्म के जॉन अब्राहम नहीं, या वैलेंटीनो रॉसी भी नहीं, जिनकी ज़िंदगी बाइक हो। या वो बाइकर भी नहीं जो रात में 12 बजे के बाद हुड़दंग करते, स्टंट करते दिल्ली को डराते हैं। ये वो लोग हैं जो मजबूर हैं, रोटी कमानी है, घर चलाना है और पब्लिक ट्रांसपोर्ट की ग़ैरमौजूदगी में स्कूटर या बाइक चलाते हैं।

मजबूरी ये है कि घर से ऑफ़िस या किसी और जगह तक जाने में उनका ज़्यादा वक़्त और पैसा जाता है, और कोई भी ये गारंटी अगर उन्हें दे कि वे बिना हुज्जत के अपने घर से अपनी मंज़िल तक एसी बस में बैठकर जा सकते हैं तो मेरे हिसाब से 90 फ़ीसदी लोग फटाक से दुपहिए त्याग देंगे। मैं तो त्याग दूंगा, लेकिन ऐसा होगा नहीं (बीजिंग में यही किया गया था)। लेकिन हमें ये गारंटी मिलेगी कैसे? वर्ल्ड फ़ेमस मेट्रो का स्टेशन चप्पे-चप्पे पर तो होगा नहीं और दूसरे विकल्प दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन की तो स्लो मोशन में मौत हो रही है, या कहें कि हत्या हो रही है। क्योंकि इन बसों में टॉप एक-एक पर्सेंट अमीर लोग नहीं चलते, इनमें वे वोटर हैं जो सोशल मीडिया पर ऐक्टिव नहीं, ये वे मजबूर हैं जो सिर्फ़ मजबूर हैं, और चुनावों के वक़्त कुछेक बोतलों से ख़रीदे जाने के लिए बदनाम हैं।  नहीं तो सोचिए कि दिल्ली की जानलेवा गर्मी, कंपकंपाती सर्दी में कोई क्यों टू-व्हीलर पर अप-डाउन करना चाहेगा ?

डीटीसी की हत्या ?
ऐसा कैसे हो सकता है कि देश की राजधानी में लोग बढ़ रहे हैं, पैसा बढ़ रहा है, फ़्लाइओवर और अंडरपास बढ़ रहे हैं, मिडिल क्लास के लिए शहर को मॉलामॉल कर दिया गया, अमीरों के लिए तो अलग डिज़ाइनर मॉल बन गया, लग्ज़री कारों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है, मेट्रो की सफलता की कहानी वायरल हो रही है, लेकिन डीटीसी ? उसकी संख्या घट रही है, डीटीसी अपनी मौत मर रही है।

एक रिपोर्ट बता रही है कि दिल्ली में 2011 में 6 हज़ार से ऊपर बसें थीं, 2012-13 में साढ़े पांच हज़ार और अलग-अलग रिपोर्ट के मुताबिक, डीटीसी के पास आज लगभग 45 से 47 सौ बसें हैं। हर रोज़ लगभग 500-600 ब्रेकडाउन होते हैं और सड़कों पर असल में 3800 से 4000 बसें चल पाती हैं। और ये संख्या पता है कितने लोगों के लिए बताई जा रही है ? 45 लाख लोगों के लिए। यानी एक बस पर हज़ार से ज़्यादा लोगों का औसत। ये संख्या अद्भुत है, किसी भी सभ्य शहर के लिए आपराधिक है और बता रहा है कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर कितना बड़ा धोखा किया जा रहा है दिल्ली वालों के साथ जो मुख्यमंत्री केजरीवाल के मुताबिक एक लाख तीस हज़ार करोड़ टैक्स के तौर पर सालाना देते हैं।

मेनका गांधी की मुहिम के बाद दिल्ली में भैंसों को भी लॉरी या टेंपो में आप जानवरों की तरह ट्रांसपोर्ट नहीं कर सकते, लेकिन दिल्ली में इंसानों को बसों और मिनी बसों में लटकने के लिए छोड़ दिया। यह मानवाधिकार का हनन नहीं है, यह तो सिर्फ़ सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट है। लेकिन क्या ये किसी भी सरकार के लिए धिक्कार की बात नहीं, चाहे वो पूर्ण राज्य हो, हाफ़ राज्य या चवन्नी राज्य ? और सभी महानुभाव ऑड और ईवन के चुटकुलों में ही व्यस्त हैं। इन बसों को कैसे बढ़ाया जाएगा, ये पता ही नहीं चल रहा है। सोचिए कि दो साल से ये कोशिश ही चल रही है कि 2000 बसें ख़रीदी जाएं। सरकार एक जनवरी से पंद्रह दिनों के लिए किराए पर बस लाने की बात कर रही है यानी ढाक के तो अब तीन पात भी नहीं रहे, एक या डेढ़ पात पर ही कहानी रुक गई। बसों के बारे में हम कम बात करते हैं, क्योंकि बसों की स्टोरी तो ग्लैमरस नहीं है। मेट्रो कूल है। इसीलिए हमारे पीएम मेट्रो के सफ़र पर निकलते हैं। लेकिन असल में क्या मेट्रो से हो पाएगा?
 
मेट्रो से न हो पाएगा
आप किसी भी ट्रांसपोर्ट एक्सपर्ट से बात कर लीजिए तो पता चल जाएगा कि मेट्रो से न हो पाएगा, दुनिया में कहीं नहीं हुआ और दिल्ली में भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट पूरा नहीं संभल पाएगा। ये एक व्यवस्था है जो बहुत कारगर है लेकिन उसकी अपनी सीमा है। वो किसी भी शहर के कोने-कोने में नहीं जा सकती है। तो उसे साथ मिलना ज़रूरी है लास्ट माइल कनेक्टिविटी का। यानी जब तक लोगों को अपने घर से लेकर अपनी मंज़िल तक मुकम्मल ट्रांसपोर्टेशन न मिले वे अपनी सवारियां नहीं छोड़ेंगे।

सोचिए कि घर के पास थोड़ी दूर पर एक साफ़ आरामदेह एसी बस में बैठकर आप 4-5 किमी दूर मेट्रो स्टेशन पर जाएं, ट्रेन पकड़ें और मंज़िल पर जाएं और ऐसी ही आरामदेह तरीक़े से वापस भी आ पाएं। वक़्त भले ही थोड़ा ज़्यादा लगे लेकिन सड़क पर धुंआ और किचकिच से बच जाएं तो क्या आप भी अपनी गाड़ी छोड़ना नहीं चाहेंगे ? लेकिन सोचिए ये क्यों नहीं हो पाता ? वो इसलिए क्योंकि घर से बस स्टॉप दूर है, रिक्शा मिल भी जाए तो ये भरोसा नहीं कि बस वक्‍त पर आएगी कि नहीं, आएगी तो कितनी भीड़ होगी ? और बीच में ब्रेकडाउन तो नहीं हो जाएगी। और मेट्रो स्टेशन तो और भी दूर। तो जब तक ट्रांसपोर्टेशन के इन सभी मोड को कोऑर्डिनेट नहीं किया जाएगा, लेकिन यह इतने साल में हुआ नहीं। एक्सपर्ट बताते रहे है कि इन सबके पीछे राजधानी में अलग-अलग एजेंसी हैं जो ब्यूरोक्रेसी में फंसी हैं।

द कैटल क्लास क्राइसिस
बीआरटी कौन बनाएगा, कौन चलाएगा, उस पर बस कौन भगाएगा, बीआरटी पर रेडलाइट कौन लगाएगा, मूलचंद तक होगा कि राजघाट तक, बस लेन में कार क्यों जाएंगी, प्राइवेट गार्ड क्यों, साइकिल लेन में गाड़ी क्यों, मेट्रो की लाइन कहां जाएगी, मेट्रो स्टेशन कहां बनेगा,  डीटीसी का बस स्टॉप कहां , मेट्रो के फ़ीडर बसें कौन चलाएगा, पार्किंग किसके हिस्से, ये सब सवाल पिछले कुछ सालों में दिल्ली के ट्रांसपोर्टेशन कवर करते ज़्यादातर लोग पूछते रहे हैं। लेकिन इसका जवाब ढूंढने में हुक्मरानों में ज़्यादा इंट्रेस्ट नहीं था, कभी रहा ही नहीं।

बीआरटी का तजुर्बा ही देखिए, बड़ा हल्ला हुआ कि ये बस वाली जनता के लिए बना है। हुआ क्या ? मूलचंद से आगे तक नहीं ले गए, क्यों ? क्योंकि बिना रेडलाइट वाला आइडिया फेल हुआ और सरकार का विलपावर इस कैटल क्लास के लिए तो शुरू होने से पहले दम तोड़ देता है। जब हिम्मत की थी तो बीआरटी थोड़ा और लंबा ले जाते , लेकिन नहीं, आधा तीतर आधा बटेर। अधकचरे प्लान और सरकारी इच्छाशक्ति ने न  सिर्फ बीआरटी को असफल किया बल्कि आने वाले वक़्त में भी इस तरह के किसी भी क़दम की विश्वसनीयता भी कम कर दी है। लेकिन फ़र्क क्या पड़ता है, अगर दस लटक-लटक कर सफ़र कर सकते हैं तो बारह-चौदह भी कर सकते हैं। नहीं तो ईएमआई पर बाइक ख़रीद लेंगे, धुआं छोड़ते निकल जाएंगे, कैटल क्लास कहीं के।

दिल्ली एक केस स्टडी
वैसे सबसे चौंकाने वाली बात याद करनी ज़रूरी है, वह यह कि दिल्ली की जो दुर्गति 2015 में देख रहे हैं, वो तब है जब हमारे नेताओं ने इस शहर में मास रैपिड ट्रांसपोर्टेशन के लिए बहुत पहले से सोचना शुरू कर दिया था। आज के नेताओं को देखकर विश्‍वास तो नहीं होता लेकिन दिल्ली में मास रैपिड ट्रांसपोर्टेशन के लिए 1969 में ही स्टडी शुरू कर दी गई थी यानी आज से 46 साल पहले। और जिस मेट्रो की सफलता आज हम देख रहे हैं उसकी योजना 1984 में बनी थी। लेकिन बनना कब शुरू हुआ , 14 साल बाद, 1998 में।

तो जो भी दिल्ली के बाहर के लोग इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं, और सोच कर राहत महसूस कर रहे हैं कि उनके शहर में ये सब समस्या नहीं होगी, तो उन्हें बता दूं कि बकरे की मां ज़्यादा दिनों तक ख़ैर नहीं मना सकती। अभी से तैयारी करनी पड़ेगी क्योंकि हवा, फिज़ा, हमारी ज़ुबान, हमारे पॉलिटिशियन और हमारी ब्यूरोक्रेसी, सबकी क्वालिटी में ही गिरावट आ रही है, कैलकुलेट कर लीजिए आपके शहर में कितने साल लगेंगे।

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