क्या वाकई मर्सिडीज से कुचला गया था सिद्धार्थ शर्मा…

क्या वाकई मर्सिडीज से कुचला गया था सिद्धार्थ शर्मा…

सिद्दार्थ शर्मा की सड़क हादसे में हुई मौत... (फाइल फोटो)

सब सीसीटीवी कैमरे के सामने हुआ था, जो बार बार टीवी चैनलों पर देखा गया था। कैसे सड़क पार करता सिद्धार्थ एक बेतहाशा आ रही ग्रे रंग की पुरानी मर्सिडीज़ कार की चपेट आ गया। कैसे एक परिवार ने अपना सहारा खो दिया, कुछ दोस्तों ने अपना दोस्त खो दिया। सड़क चौड़ी नहीं थी, पतली सी थी, जिसे सिद्धार्थ शायद पहचानता था, शायद पहले कई बार पार कर चुका था और उसे अंदाज़ा था कि यहां पर ट्रैफ़िक कैसा होता है। जहां दोनों क्या, चारों ओर से ट्रैफ़िक आता दिखाई देता है, जैसा आमतौर पर दिल्ली की कई सड़कों पर होता है। सिद्धार्थ दोनों तरफ़ देखता है और बढ़ता है, अचानक उसे एक कार आती दिखती है। अब रात के वक़्त तेज़ रोशनी वाली हेडलाइट को देखकर किसी के लिए भी अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है कि गाड़ी कितनी दूर है और उसकी रफ़्तार क्या होगी और जब तक सिद्धार्थ ये अंदाज़ा लगा पाता, ये समझ पाता कि ड्राइवर ब्रेक लगाने के बारे में सोच तक नहीं रहा है, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

इस दुर्घटना के लगातार हो रहे कवरेज को देखा, इस क़ातिलाना ड्राइविंग की वजह से जो हत्या हुई है उसका हेडलाइन लगातार मर्सिडीज़ कांड आ रहा था, फिर याद आया कि कैसे मुंबई वाले केस को हम लगातार सलमान ख़ान हिट एंड रन केस के तौर पर पुकारते आए हैं। या फिर कई साल पुराना बीएमडब्ल्यू कांड। और फिर सवाल आया कि क्या जब तक कोई सनसनीख़ेज़ हेडलाइन नहीं मिलेता हम सड़क हादसों के बारे में क्यों नहीं सोच सकते? क्यों नहीं सीधे हिट एंड रन केस, नाबालिग की क़ातिलाना ड्राइविंग, रईस मां-बाप का जानलेवा पुत्रप्रेम बोल कर रोड हादसों को याद रख सकते हैं?

एक तर्क यह हो सकता है कि इन हेडलाइन में मर्सिडीज़ पर ज़ोर देकर भले ही आरोपी के रईस बैकग्राउंड को उजागर किया जा रहा था लेकिन क्या ये केवल सनसनीख़ेज़ बनाने का तरीका नहीं? क्या इससे असल गुनाहगार को थोड़ी राहत नहीं मिल रही है? क्या मर्सिडीज़ एक शॉर्टकट बना है समाज के अपराध-बोध को छुपाने के लिए ? या सलमान ख़ान या बीएमडब्ल्यू? क्या वह समाज जो ख़ुद भी उसी रईस के बेटे की तरह ड्राइविंग करता है, क़ायदे क़ानून तोड़ता है, जो ख़ुद ग़ैरज़िम्मेदार अभिभावक है या ड्राइवर, वह उन ब्रांड पर पत्थर फेंक कर ख़ानापूर्ति करना चाहता है ?

कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसे ड्राइवरों के लिए लोगों में एक दबी हुई सहानुभूति हो, जहां देश की ज़्यादातर आबादी ने जैसे तैसे ड्राइविंग लाइसेंस लिया हो, उनके मन में क्या यह भावना नहीं होती कि चलाते तो हम सब ऐसे ही हैं, इस ड्राइवर की क़िस्मत ख़राब होगी? आख़िर कौन सी मानसिक ग्रंथि है हमारे क़ौम में जो जान की क़ीमत उस हिसाब से तय करता है जिस तरीक़े से वह जाति, सलमान ख़ान की गाड़ी के नीचे जाने पर अलग, जर्मन लग्ज़री कार के नीचे आने पर अलग, स्टेट ट्रांसपोर्ट की गाड़ी के नीचे आने पर अलग। वैसे लोकेशन तो माएने रखते हैं, लोधी रोड में कुचले जाने पर रीट्वीट की संख्या अलग होगी, नजफगढ़ में अलग। चूंकि सोशल संवेदनाओं का हेडक्वॉर्टर दिल्ली-एनसीआर में है तो एनसीआर से जितना दूर आप जाएंगे आपकी जान की क़ीमत उतनी और कम होती जाएगी।

शायद इसीलिए देश में लगभग 58 से 60 फ़ीसदी लोग जो सड़क हादसों में मारे जाते हैं, यानी लगभग 80 हज़ार लोग (भारत में हर साल लगभग एक लाख 40 हज़ार लोग सड़क हादसों में मारे जाते हैं), उनके बारे में चर्चा न के बराबर होती है, क्यों नहीं होती है इसके बारे में सोचिएगा....

तेज़ रफ़्तार मर्सिडीज़ सुनकर क्या ऐसा नहीं लगता है कि ड्राइवर ने नहीं, कार ने ख़ुद अपना ऐक्सिलिरेटर दबा रखा था? क्या सुनकर ऐसा नहीं लगता कि ये कारें तो तेज़ होती ही हैं, ताक़तवर होती ही हैं, ग़लती तो दरअसल कार की है? क्या ये एक मुलायमवादी जस्टीफ़िकेशन नहीं हो जाएगा कि लड़का है लड़कों से ग़लती होती रहती है? उस रात वह नाबालिग अगर ऑल्टो से निकलता तो सिद्धार्थ की जान बच सकती थी? हो सकता है , या हो सकता है कि जान बच जाती लेकिन शरीर से लाचार हो जाता है। या सोचिए कि किसी रईस का बेटा न होकर कोई शराब पिया ट्रक ड्राइवर होता तो? क्या असल मुद्दा यही है? क्या यह नहीं कि एक इंसान की जान चली गई?  

पुलिस की तरफ़ से बयान आया था कि यह नाबालिग आरोपी रिपीट ऑफ़ेंडर था, पहले भी इसने दुर्घटना की थी लेकिन ‘कॉम्प्रोमाइज़’ हो गया था और मामला सुलट गया था। अब इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या एक और आपसी सुलह के इंतज़ार में था हमारा सिस्टम? क्या भारतीय सड़कों पर दुर्घटनाएं और मौत इतनी कम होती हैं कि यह रिस्क लिया जा सकता है? नाबालिग ड्राइवर को सड़कों पर छोड़ दो, ठोकते-पीटते सीख ही जाएगा? क्या पहली बार में ही माता-पिता पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए थी? क्या बिना लाइसेंस के बच्चों के हाथ इतनी ताक़तवर कार देना, ऐसा नहीं कि बच्चे को खेलने के लिए खिलौने की जगह असल बंदूक दे दी ? वह भी लोडेड ? और इन्हीं सवालों पर से ध्यान हटाती हैं हेडलाइन्स, क्या हम मामले को हल्का नहीं कर देते हैं, ग़लती करने वालों के लिए एक आड़ देते हैं? एक बहाना नहीं दे देते हैं?

समस्या यह हो गई है कि संवेदनाएं सबकी इतनी भोथर हो गई हैं, कि मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक चिंता तब तक नहीं देखी जाती है जब तक दुर्घटनाओं के साथ कोई चटख़दार हेडलाइन न हो, फ़िल्मस्टार का ज़िक्र न हो, टूटी महंगी विदेशी गाड़ी की तस्वीर न हो या किसी वीआईपी, मंत्री का ऐक्सिडेंट न हुआ हो। नहीं तो दिल्ली में पिछले साल वैसे भी सिद्धार्थ की तरह 1622 लोगों की सड़क हादसे में मौत हुई ही थी, जो ट्रैफ़िक पुलिस की जानकारी है। उन पर हम चर्चा नहीं कर पाए थे, और उसके पीछे वजह क्या होगी आप भी सोचिएगा।

यह सवाल अभी तक इसलिए नहीं पूछ रहा था कि अगर मैं यह पूछूंगा तो उस पर भी सवाल उठ सकते हैं, अर्थ लगाया जाएगा कि मेरी हमदर्दी है कार कंपनियों से या मर्सिडीज़ से, चूंकि इतने सालों से उन्हीं नई गाड़ियों को चला रहा हूं, टेस्ट कर रहा हूं, प्रोग्राम बना रहा हूं। तो मंशा पर तो तड़ाक से सवाल उठेगा ही और स्वादानुसार नामकरण होना शुरू होगा। लेकिन मैंने सोचा कि एक सच यह भी है कि 140 कैरेक्टर के बाद मुद्दा ठंडा जाएगा, ट्रेंड करना बंद कर जाएगा, जैसा हो ही चुका है, आरोपी के पिता की गिरफ़्तारी की ख़बर ने एक तरह से मामले के एक अध्याय को समाप्त किया ही है, सोशल मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी के अहसास तले दबने के बाद निकल चुका है नई चिंताएं उठा चुका है, तो ऐसे में अभी नहीं सवाल पूछूंगा तो कब? ऐसे ही वक़्त में कुछ सवाल किए जाने होंगे, ताकि पता चले कि हम बहानेबाज़ों की क़ौम तो नहीं होते जा रहे हैं, ‘बहाना रिपब्लिक’ बनने की दिशा में एक और क़दम तो नहीं उठा रहे हैं?  

सिद्धार्थ मर्सिडीज़ से नहीं कुचला गया है, वह मारा गया है हमारी सोच और हमारी व्यवस्था की वजह से जो हिम्मत देता है, संरक्षण देता है मर्सिडीज़, बीएमडब्ल्यू या ऑडी ख़रीदने की हैसियत रखने वालों को। ये लक्षण हैं, बीमारी नहीं। ये गाड़ियां औज़ार हैं, जिन्हें हम पर्दा बना रहे हैं।


क्रांति संभव एनडीटीवी इंडिया में एसोसिएट एडिटर और ऐंकर पद पर हैं।

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