स्कूल में खेले जाने वाले फ़ुटबॉल की याद आ रही थी. ये आमतौर पर ज़्यादा होने लगा है आजकल, कि उदाहरणों में उन दिनों की कहानियां कूद कूद कर आ रही हैं. इसके पीछे दो वजहें हो सकती हैं - एक तो उम्र बढ़ रही है और मेरे सहयोगी पिछले हफ़्ते ही बता रहे थे कि बढ़ती उम्र के साथ हम देशज होते जाते हैं, वापस अपनी जड़ों की तरफ़ जाने लगते हैं. ऐसे में अपनी कहानियों के उदाहरणों में बार-बार स्कूली कहानी की घुसपैठ से लगता है कि उम्र की ढलान से इसका रिश्ता हो सकता है. वहीं एक वजह शायद व्हाट्सऐप के ग्रुप भी हो सकते हैं जहां पर नॉस्टैल्जिया की डेली ख़ुराक मिलती रहती है. तो दोनों वजहों के बीच से बिना वक़्त लगाए निकलता हूं और बताता हूं कि बचपन के फ़ुटबॉल की क्यों याद आ रही है. छुटपन के फ़ुटबॉल का मज़ा अलग होता था. जहां बॉल ज़मीन पर गिरी नहीं कि सबके लिए उसे मारना सबसे ज़रूरी हो जाता था, आएं-बाएं-दाएं, किसी भी तरफ़. उस उम्र में हम फ़ुटबॉल को रणनीति के हिसाब से तो खेलते नहीं थे, पूरी की पूरी क्लास बॉल के ऊपर लुधक जाती थी, झुंड में कूद पड़ते थे. 'लुधकना' मेरे ख़्याल से एनसीआर की हिंदी का शब्द नहीं होगा.
लुधकना दरअसल उस प्रक्रिया को कहते हैं जो झुंड में, एक साथ किसी को घेरने, धरने के लिए की जाती है. अगर इंसान के बच्चे करें तो दोस्ताना आक्रमण कह सकते हैं, अगर मधुमक्खी के बच्चे करें तो असल, प्राणघातक आक्रमण. जैसे कॉलोनी के बच्चे सोनपापड़ी वाले के ऊपर लुधक जाते थे, लड़कियां शाहरुख़ ख़ान पर लुधक जाती थीं और जैसे सर्टिफाइड-ऐक्टिव देशभक्त एटीएम पर लुधक जाते हैं या नमक की बोरी पर. या करोल बाग के सोने की दुकानों पर या बैंकों को लॉकरों पर या फिर ट्रक ड्राइवर पर जिसने गांव वाले की बकरी दबा दी हो. या फिर देशविरोधी पत्रकार पर जिसने फ़ेसबुक और ट्विटर पर देशनाशक पोस्ट डाल दिया हो. या फिर सिनेमाघरों पर जो आजकल देशद्रोहियों का अड्डा बन गया था (लेकिन अब नहीं रहेगा). या फिर कलाकर पर (जिसे पहले न्यौता देकर बुलाया फिर कहा कि तू आया क्यों). या जीयो के सिम पर (जो फ़्री के बाद फिर से फ़्री हो गया). या आईफ़ोन के शोरूम पर पर (जो बनाते तो हैं चीन में मगर फिर भी ) या बीज-खाद की दुकानों पर किसान लुधक गए थे. जैसे वॉलंटरी डिस्क्लोज़र स्कीम के साढ़े तेरह हज़ार रु कैश पर हम लुधक गए. उसे भी लुधकना ही कहते हैं जो हम सबने पिंक नोट के साथ किया. सब लग गए नोट रगड़ने में. रंग छोड़ रहा है, रंग छोड़ रहा है. काट के देखा, फाड़ के देखा, उड़ा के देखा, उबाल के देखा. बैंक को भी जवाब देने के लिए दर्शनशास्त्र का इस्तेमाल करना पड़ा कि जो रंग ना छोड़े वो असल कैसा ?
असल में प्रारब्ध भी एक चुनाव होता है. तो समसामयिकता यही कह रही है कि हमने लुधकना अपने लिए चुना है. रील से रीयल लाइफ़, ऑनलाइन से लेकर ऑफ़लाइन तक, मेनस्ट्रीम से लेकर सोशल मीडिया तक में. जब कुछ नहीं मिलता है कि फिर जस्टिस काटजू का बयान काम आता है. फ़िल्मी कलाकारों के पॉलिटिकल बयान पर लुधकना ज़रूरी होता है. फ़िल्मी कलाकारों के लिए पॉलिटिकल नेताओं के बयान पर लुधकना ज़रूरी होता है. अमेरिकी राष्ट्रपति हो, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री या कनाडा के, बुलंदशहर से बरौनी तक की ठोस प्रतिक्रिया होनी ज़रूरी है.
क्योंकि लुधकना दरअसल एक व्यसन है, इसका असल मज़ा झुंड में ही है, चुनौती सिर्फ़ ये है कि इसकी शेल्फ़ लाइफ़ बहुत छोटी होती है. सिर्फ़ टाइमलाइन जितनी लंबी. ट्रेंडिंग लिस्ट जितनी बड़ी. तो ऐसे मे ज़रूरी है कि नए-नए धिक्कार-योग्य व्यवहार, शर्मनाक बयान, ओछे भाषण और टुच्चे ट्वीट की सप्लाई होती रहे. हम सामूहिक सामाजिकता निभाने के लिए व्यग्र हैं. मानवता को बचाने के लिए बेचैन हैं. सप्लाई कम होने पर हम सभी राबड़ी देवी, फ़ारूक़ अब्दुल्ला, पाकिस्तानी सेना चीफ़ तक के बयानों की चर्चा कर लेते है. अब ज़रूरी है कि आरोपों और बयानों के स्तर को और ऊपर ले जाया जाए. ममता बनर्जी, सुब्रह्मण्यम स्वामी और अरविंद केजरीवाल से हम सबकी उम्मीदें आसमान छू रही हैं. उनसे हमें सीख लेने की ज़रूरत है. जहां विचारों पर अपनी राय ज़ाहिर करने से किसी को भी हिचकना नहीं चाहिए. जीवन के किसी भी तथ्य को प्रश्न के बिना सत्य ना मानें. प्रश्न तब भी करें जब आपको किसी सत्य या तथ्य से मतलब भी ना हो.
मानवता के उत्थान के लिए पहले विचारों का बाहर आना ज़रूरी है. हो सकता है आप पूछें कि विचार केवल बाहर निकाला जा रहा है कि कुछ इनटेक भी जा रहा है. तो हो सकता है आपका यह प्रश्न पूछना ख़ुद आप ही को बहुत गंभीर लगें, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आपकी सोच गहरी है. इसका सीधा मतलब ये है कि आप इस वैश्विक चर्च में इर्रेलेवेंट हैं, अप्रासंगिक हैं. तो देर नहीं हुई है. आप भी लुधक जाइए झुंड में. मेरे बचपन के फ़ुटबॉल मैच की तरह. पूरी क्लास एक साथ एक बॉल पर झपट्टा मारती थी, ज़्यादातर किसी ना किसी का सेल्फ़ गोल ही होता था, पर मज़ा बड़ा आता था. तो लुधक जाइए आप भी, मज़ा कीजिए. मज़ा इज़ इम्पोर्टेंट.
क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...
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