कुंवर नारायण : समय होगा, हम अचानक बीत जाएंगे

कुंवर नारायण के लिए कवि जीवन के 'कार्निवल' में उस 'बहुरूपिये' की तरह था जिसके हजारों रूप थे और जिसका हर रूप 'जीवन की एक अनुभूत व्याख्या' था.

कुंवर नारायण : समय होगा, हम अचानक बीत जाएंगे

कुंवर नारायण को यह पता था.
'घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएंगे
समय होगा,हम अचानक बीत जाएंगे.
अनर्गल जिंदगी ढोते किसी दिन हम
एक आशय तक पहुंच सहसा बहुत थक जाएंगे..

                             
मृत्यु होगी खड़ी सम्मुख राह रोके,
हम जगेंगे यह विविधिता,स्वप्न, खो के
और चलते भीड़ में कन्धे रगड़कर हम
अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग होके.

(घर रहेंगे : तीसरा सप्तक 1959)

नजरिया साफ हो तो क्या काव्य और क्या जीवन दोनों जगह आदमी अलमस्त फक्कड़ सा चलता चला जाता है. साफ 'आशय' यात्रा को सरल बना देता है. तीसरे सप्तक के अपने 'वक्तव्य' में कुंवर नारायण ने लिखा था- 'साहित्य जब सीधे जीवन से संपर्क छोड़कर वादग्रस्त होने लगता है, तभी उसमें वे तत्व उत्पन्न होते हैं जो उसके स्वाभाविक विकास में बाधक हों.' अपने मत को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा कि 'कलाकार या वैज्ञानिक के लिए जीवन में कुछ भी अग्राह्य नहीं. उसका क्षेत्र किसी वाद या सिद्धांत विशेष का संकुचित दायरा न होकर वह सम्पूर्ण मानव परिस्थित है जो उसके लिए एक अनिवार्य वातावरण बनाती है.' उनके लिए कवि जीवन के 'कार्निवल' में उस 'बहुरूपिये' की तरह था जिसके हजारों रूप थे और जिसका हर रूप 'जीवन की एक अनुभूत व्याख्या' था.

इसी काव्य-संवेदना ने उनके काव्य को जीवन की अगण्य भाव-विविधता से भर दिया. यह विविधता उनके जीवन और काव्य का सदा से एक सचेत हिस्सा बनकर रही. सचेत होना दुखी हो उठने की पूर्व और अपरिहार्य मनो-स्थित है. कबीर भी थे. सुखिया सब संसार है, खाबे अरु सोबे. कुंवर नारायण भी जानते थे-
जो सोता है उसे सोने दो
वह सुखी है,
जो जगता है उसे जगने दो
उसे जगना है
जो भोग चुके उसे भूल जाओ
वह नहीं है,
जो दुखता है उसे दुखने दो
उसे पकना है ...

(तीसरा सप्तक : 1959)

कुंवर नारायण जीवन भर पके. अपने 'कलपते प्राणों के साथ.' उनके काव्य-लक्ष्य जितने उजले थे, उतनी ही उजली मनुष्य-मात्र में उनकी आस्था थी. उनकी एक कविता में एक 'मुश्किल' थी. वह मुश्किल यह थी-

'एक अजीब सी मुश्किल में हूं इन दिनों-
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत
दिनों-दिन क्षीण पड़ती जा रही,

मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने?

अंग्रेजों से नफ़रत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपियर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने अहसान हैं

और वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका खून कर दूं!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र, कभी मां, कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूंट पीकर रह जाता ....

(इन दिनों : 2002)

कुंवर नारायण की कविताएं अपने समय से संवाद थीं. उनमें अस्तित्व की अनुगूंज है. उनकी चर्चित रचना आत्मजयी (1965) में वाजश्रवा और नचिकेता औपनिषदिक कथानक के ऊपर स्थापित दो ऐसे तनावग्रस्त चरित्र हैं जिनके तर्क,विषाद, प्रलोभन, इच्छा, कामना सब कुछ आज के पीड़ित और परेशान मनुष्य के जीवन के चित्र बन जाते हैं.

उन्होंने खुद'आत्मजयी'की भूमिका में लिखा था- 'आत्मजयी में उठाई गई समस्या मुख्यतः एक विचारशील व्यक्ति की समस्या है- केवल ऐसे प्राणी की नहीं जो दैनिक आवश्यकताओं के आगे नहीं सोचता.' उनके लिए नचिकेता की कल्पना एक ऐसे मनुष्य की कल्पना है जिसके लिए, उन्हीं के शब्दों में- 'केवल सुखी जीना काफी नहीं, सार्थक जीना जरूरी है.'

नचिकेता प्रलाप करता है-
आह,तुम नहीं समझते पिता,नहीं समझना चाह रहे,
कि एक-एक शील पाने के लिए
कितनी महान आत्माओं ने कितना कष्ट सहा है...
सत्य, जिसे हम सब इतनी आसानी से
अपनी-अपनी तरफ मान लेते हैं, सदैव
विद्रोही- सा रहा है.


नचिकेता पिता से तर्क करता है. वह अपने लिए उनसे असहमति का अवसर मांगता है.
'असहमति को अवसर दो
सहिष्णुता को आचरण दो
कि बुद्धि सिर ऊंचा रख सके.'


वह कहता है -
'मैं जिन परिस्थितियों में जिंदा हूं
उन्हें समझना चाहता हूं- वे उतनी ही नहीं
जितनी संसार और स्वर्ग की कल्पना से बनती हैं
क्योंकि व्यक्ति मरता है
और अपनी मृत्यु में वह बिल्कुल अकेला है,
विवश असांत्वनीय.'


नचिकेता की यम से मृत्यु को जानने की इच्छा वस्तुतः आधुनिक मनुष्य के चरम औत्सुक्य का विस्तार है. वह सब कुछ जानना चाहता है जो उसके जीवन-परिवेश को निर्धारित करती है. नचिकेता विद्रोही है क्योंकि उसके सवाल' तुम्हारी मान्यताओं का उल्लघंन करते हैं.' इसलिए उनका 'नचिकेता' भी भटकता है और उनका 'सरहपा' भी.
'अकेला कवि सरहपा
भटकता है राज्ञी से श्रीपर्वत तक
खोजता मुक्ति का अर्थ.'


उनका 'अमीर खुसरो' बादशाहों से ऊबकर 'ग़यास' से कहता है-
हां गयास
ऊब गया हूं इस शाही खेल तमाशे से
यह तुग़लक़नामा-बस, अब और नहीं
बाकी जिंदगी मुझे जीने दो...
एक कवि के ख़यालात की तरह आज़ाद
एक पद्मिनी के सौंदर्य की तरह स्वाभिमानी
एक देवलरानी के प्यार की तरह मासूम
एक गोपालनायक के संगीत की तरह उदात्त
और एक निज़ामुद्दीन औलिया की तरह पाक.


कुंवर नारायण खुद इसी तरह जिये और अमीर खुसरो की ही तरह 'एक गीत गुनगुनाते हुए इतिहास की एक बहुत कठिन डगर से गुजर' गए.


धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

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