देश के सरकारी प्राइमरी स्कूलों में नौ लाख शिक्षक कम, कैसे सुधरेगी गुणवत्ता

देश में यूपीए सरकार अपनी जिन उपलब्धियों को बताती रही है उनमें शिक्षा का अधिकार भी शामिल था

देश के सरकारी प्राइमरी स्कूलों में नौ लाख शिक्षक कम, कैसे सुधरेगी गुणवत्ता

• क्या आपको पता है कि देश में प्राइमरी स्कूलों में तकरीबन 9 लाख से ज्यादा शिक्षकों की कमी है.
• क्या आपको पता है राजनीति का उलटफेर करने और कई—कई मुद्दों के कारण चर्चा में रहने वाले उत्तरप्रदेश के प्रायमरी स्कूल शिक्षकों की कमी का शिकार हैं.
• क्या आपको पता है कि जो राज्य अपनी राजनीति के लिए इस वक्त सबसे ज्यादा चर्चित है, जिस राज्य को बौद्धिकता विरासत में मिलने का दावा किया जाता रहा हो,  उस बिहार का नंबर उत्तरप्रदेश के बाद ठीक दूसरे नंबर पर आता है.
• वामपंथियों का गढ़ पश्चिम बंगाल अपने प्रायमरी स्कूलों में 87 हजार शिक्षकों की कमी के साथ तीसरे स्थान पर है.
• इसके बाद झारंखड 78 हजार शिक्षकों की कमी और मध्यप्रदेश 66 हजार शिक्षकों की कमी के साथ इस दुर्दशापूर्ण स्थिति पर खड़ा है. जाहिर है कि छत्तीसगढ़ भी इससे पीछे नहीं रह सकता. वहां के प्रायमरी स्कूलों में शिक्षा का अधिकार कानून के मापदंड का पालन करने के लिए अभी 48 हजार और शिक्षकों की भर्ती किया जाना जरूरी है.
• देश की राजधानी दिल्ली में आठ हजार शिक्षकों की और भर्ती होगी तब जाकर वह शिक्षा का अधिकार कानून के तहत तय शिक्षक—छात्र अनुपात को पूरा कर पाएगा.
• आपको यह जानकार और आश्चर्य होगा कि गरीब माने जाने वाले राज्य उड़ीसा में एक भी शिक्षक का पद खाली नहीं है. गोवा और सिक्किम में भी तय पदों के विरूद्ध सारे शिक्षकों को भर्ती किया गया है.

यह सब जानकारियां लोकसभा के एक सवाल के जवाब में मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा ने दी हैं.
देश में यूपीए सरकार अपनी जिन उपलब्धियों को बताती रही है उनमें शिक्षा का अधिकार भी शामिल था. एक अप्रैल 2010 से इसे देशभर में लागू किया गया था और तीन साल की समय सीमा में इसके प्रावधानों को जमीनी स्तर पर लागू किया जाना था. बहरहाल यूपीए सरकार इसे समय सीमा में नहीं कर पाई और इस अवधि को दो साल और बढ़ा दिया गया. इस अवधि के बीच सरकार भी बदल गई, नई सरकार ने नई चुनौतियों के साथ इसे स्वीकार किया, लेकिन इसके तीन साल की अवधि में भी देश में नौ लाख शिक्षकों की कमी यह बताती है कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था सरकार के एजेंडे में प्रमुखता के साथ नहीं है.

अजीब स्थिति है कि देश में करोड़ों रोजगार नौजवान हैं और उसमें से सरकार केवल नौ लाख योग्य युवाओं को भर्ती करके इस आधारभूत मानक को पूरा नहीं कर सकती. इनमें से कई राज्य तो ऐसे हैं जहां कि एनडीए सरकार के पहले से ही भारतीय जनता पार्टी की सरकारें तीन—तीन चुनावों से चुनी जा रही हैं, लेकिन वहां भी हाल अच्छे नहीं हैं, जबकि दूसरी तरफ छोटे—छोटे राज्य इस मानक पर बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं.

सर्व शिक्षा अभियान के तहत देश में अब तक कितना रुपया खर्चा किया गया इस बात का हिसाब—किताब जरूर लगाया जाना चाहिए, ताकि इस बात को ठीक—ठीक समझा जा सके कि देश में इस कानून के आने के बाद प्रायमरी शिक्षा व्यवस्था में कितना सुधार हुआ. यह ठीक है कि खस्ताहाल इमारतों की जगह अब नए भवन और शौचालय दूरदराज के इलाकों में भी दिखाई देते हैं, लेकिन इसके ठीक उलटी तरफ शिक्षा की गुणवत्ता उतनी ही कम दिखाई देती है. इसका सबसे ज्यादा फायदा उन गैरसरकारी स्कूलों या निजी जमातों को ही हुआ है जो लाभ आधारित उद्देश्यों पर ही अपने कदम आगे बढ़ाती हैं. इस बात को अलग से स्थापित करने की जरूरत नहीं है कि आधारभूत निर्माण से किसी तंत्र को चमकाया तो जा सकता है, लेकिन उसका कुशल संचालन नहीं किया जा सकता. दुर्भाग्य से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में मानव संसाधनों की कमी को पूरा करने की दिशा में कोई कामयाब कोशिशें नहीं की जा रहीं गोकि इन दोनों ही क्षेत्रों में पैरा व्यवस्थाओं को लागू करना सेवाओं की गुणवत्ता में कमी का एक दूसरा कारण जरूर बन गया है.

हम प्राथमिक शिक्षा पर क्यों खर्च नहीं करना चाहते. इसी सवाल के जवाब में केंद्रीय राज्यमंत्री ने संविधान के अनुरूप इसकी जिम्मेदारी सीधे—सीधे राज्यों पर डाल दी है. शिक्षकों की भर्ती का मामला राज्य की जिम्मेदारी है, और केन्द्र उसके लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराएगा. लेकिन राज्यों ने अपनी बनी—बनाई शिक्षा व्यवस्था का जो कबाड़ा किया है वह किसी से छिपा नहीं है. सवाल बड़ा है कि जब शिक्षक ही नहीं होंगे तो अच्छे कमरे, अच्छा भवन, अच्छा शौचालय भी क्या कर लेंगे?

सरकारी आंकड़ा ही है कि अकेले मध्यप्रदेश राज्य में तकरीबन चार हजार स्कूल शिक्षक विहीन हैं. जहां हजारों शिक्षकों के पद रिक्त हों, वहां यह स्थिति कोई आश्चर्य पैदा नहीं करती! अच्छी शिक्षा वाले तथाकथित निजी, प्रायवेट और कान्वेंट स्कूलों से बिना शिक्षकों की भर्ती किए कैसे लड़ा जा सकता है?


राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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