भय की ठंड से कुड़कुडाती भाषा

सर्वोच्च न्यायलय ‘आस्था को ठेस‘ को भी परिभाषित करके रचनात्मकता को बंधनमुक्त करे

भय की ठंड से कुड़कुडाती भाषा

“यदि सोच ऊंची है, तो भाषा भी ऊंची होनी चाहिए.”

एरिस्टॉफनीस (444-385 ई.पू.)

पिछले चालीस साल के अपने निरंतर लेखकीय जीवन में ऐसा पहली बार हुआ कि एक शब्द के लिखने को लेकर कलम ने किसी अड़ियल अरबी घोड़े की तरह आगे बढ़ने से इंकार कर दिया हो. हुआ कुछ यूं कि मैं कुछ उपद्रवियों की उग्र-हिंसात्मक गतिविधियों के लिए ‘तांडव‘ शब्द का प्रयोग करना चाह रहा था. अड़ने की यह मनोवैज्ञानिक घटना इस शब्द के लिखे जाने से ठीक पहले घटी. दिमाग में एक विचार आया कि कहीं ऐसा न हो कि इस शब्द के प्रयोग को लेकर कोई धार्मिक वर्ग उपद्रव शुरू कर दे. यह शब्द शिवभक्तों की आस्था को चोट पहुंचाने वाला बनकर मुझे अदालत तक पहुंचा दे.

मुझे ऐसा शायद इसलिए लगा हो कि इसके कुछ ही दिन पहले हमारी सर्वोच्च अदालत में एक यूं ही छोटा सा वाकया हुआ था. न्यायालय के न्यायमूर्ति एक वकील की फालतू की बहसों को रोकने की कोशिश में कह बैठे कि ‘यह मछली बाजार नहीं है.‘ उनके इस शब्द से मछुआरों की आस्था को ठेस पहुंच गई. उन्होंने इस शब्द के प्रयोग पर अपनी तीखी सार्वजनिक आपत्ति दर्ज कराई. हालांकि मछली बाजार में केवल मछुआरे ही नहीं होते हैं, उनसे कई गुना अधिक तो मछली के खरीददार होते हैं.

मलयालम एक्ट्रेस प्रिया प्रकाश वारीयर की फिल्म के एक गाने को लेकर इनके और फिल्म के डायरेक्टर के खिलाफ देश भर में न जाने कितने आपराधिक मुकदमे दायर कर दिए गए. कारण वही- भावनाओं का आहत होना. वह तो भला हो सर्वोच्च न्यायालय का कि उसने फिलहाल इन दोनों को राहत दे दी है.

ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है. पहले भी ऐसी तथाकथित दुर्घटनाएं होती रही हैं. लेकिन अब की घटनाएं संख्या एवं निरंतरता के मामलों में पहले से अलग हैं. इनकी संख्या में आश्चर्चजनक रूप से इज़ाफा हुआ है. और देशभर में कहीं न कहीं हो रही ऐसी घटनाओं के माध्यम से यह अपने वजूद का लगातार इज़हार कर रही है. फिल्म ‘पद्मावत‘ का विरोध इसका चरम था. और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा तक इसकी लपटों का पहुंच जाना अत्यंत चिंतनीय है.

इनका ही मिलाजुला कुछ ऐसा प्रभाव मेरे मस्तिष्क पर कुछ ऐसा हुआ कि मेरी कलम ने ‘तांडव‘ शब्द लिखने से इनकार कर दिया. इस मसले पर जब मेरे एक साहित्यिक मित्र से बातचीत हुई, तो उन्होंने थोडे़ हास्य-व्यंग्य के अंदाज में मुझे हिदायत दे डाली कि गलती से भी “न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी” मुहावरे का उपयोग मत करना. हो सकता है कि इससे राधा नाम की महिलाएं अपना अपमान मानकर तुम्हारे खिलाफ मोर्चा खोल दें कि तुमने इन्हें नाचने-गाने वाली बना दिया. और यह भी हो सकता है कि इसे सुसंस्कृत नृत्यांगनाएं अपना अपमान मानते हुए तुम्हारे विरोध में एक और मोर्चा खोल दें.

मैं धर्मसंकट में हूं, जबर्दस्त धर्मसंकट में. मेरे शब्द मुझसे रुठ गए हैं. सदियों-सदियों से इनका प्रयोग कर-करके मेरे पूर्वजों ने इनके अर्थों में विस्तार किया है. उन्होंने इन्हें जीवन दिया है. मैं अब उनका हत्यारा बन रहा हूं. कहावतें और मुहावरे हमारे लोक-जीवन की अद्भुत बुद्धिमत्ता से निकली हैं. वे अवलोकन की सदियों पुरानी गहरी-दृष्टि एवं अनुभव से रची-बसी हैं. अब मैं उन्हें अपनी जुबान से निर्वासित कर रहा हूं.

ऐसी स्थिति में मेरे दोनों हाथ याचना की मुद्रा में सर्वोच्च न्यायालय की ओर ही उठते हैं. सन 1962 में न्यायालय ने केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के मामले में ‘राजद्रोह‘ को अच्छी तरह परिभाषित किया था. मेरी प्रार्थना है कि वह इसी प्रकार से ‘आस्था को ठेस‘ को भी परिभाषित करके रचनात्मकता को बंधनमुक्त करे.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
 
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