लोकसभा चुनाव 2019 का प्रचार अभियान : हैरानी है, अब तक सिर्फ उर्मिला मातोंडकर रहीं 'सुपरहिट'

नकारात्मकता के इस राजनैतिक परिदृश्य में मतदाता बेहतर विचारों के लिए कहां जाएं, उम्मीद के लिए वे किसकी ओर ताकें...?

लोकसभा चुनाव 2019 का प्रचार अभियान : हैरानी है, अब तक सिर्फ उर्मिला मातोंडकर रहीं 'सुपरहिट'

सात चरणों में हो रहे लोकसभा चुनाव 2019 की मतगणना 23 मई को होगी...

चुनाव के दो चरण हो चुके हैं, और कहीं ज़्यादा चरण अभी बाकी हैं. तपती गर्मी में कभी न खत्म होता महसूस होता चुनाव प्रचार जारी है. बहुत अजीब बात है कि लोकसभा चुनाव का बेहद लम्बा कार्यक्रम घोंघे की गति से चल रहा है, और दूसरी तरफ मीडिया इसे मिनट-दर-मिनट और ट्वीट-दर-ट्वीट कि गति से कवर कर रहा है. चुनाव कार्यक्रम छोटे-छोटे टुकड़ों और हिस्सों में बंटा होने की वजह से अभी 200 से भी कम सीटों पर मतदान हो पाया है, और फिलहाल मूड को समझना मुश्किल है. टीवी एंकरों के विचार और 'फीडबैक' या अंतिम मतदान के बाद तक एम्बार्गो किए गए एग्ज़िट पोल के आंकड़ों के आधार पर रिपोर्टरों द्वारा किए गए ट्वीट भी किसी ज्योतिषी की भविष्यवाणी सरीखे हैं, जो पत्रकारिता का कतई बेईमान स्वरूप हैं. जब भी चुनाव के बारे में पूछा जाता है, मैं बार-बार अमेरिकियों की तर्ज पर कहता हूं, कोई भी कुछ भी नहीं जानता. आम चुनाव के नतीजे हमेशा कई-कई अप्रत्याशित परिणाम सामने लाते हैं, और इस बार भी ऐसा ही होने वाला है. हमने सोचा था, प्रचार अभियान देश से जुड़े मुद्दों पर होने वाला मुकाबला रहेगा, जैसा अब तक होता आया है, लेकिन अब इस वक्त हम सिर्फ इतना कह सकते हैं कि ऐसा लगने लगा है कि बहुत कड़ा मुकाबला होगा, और हर सीट पर होगा...

सो, हो सकता है, फिलहाल पूरे देश का मूड एक जैसा हो सके, और उसे साफ-साफ जाना जा सके, लेकिन ऐसी बहुत-सी छोटी-छोटी घटनाएं हैं, जो पिछले कुछ दिनों में पूरे देश में हुई हैं, और अगर हम उन्हें इकट्ठा कर देखें, तो वे हमें कुछ हद तक साफ-साफ संकेत दे सकती हैं. मैं किसी भी चुनाव के दौरान ज़मीनी हकीकत के संकेत हासिल करने के लिए हमेशा राजनेताओं का व्यवहार देखा करता हूं, क्योंकि वे प्रचार अभियान के उतार-चढ़ाव पर ही तो प्रतिक्रिया करते हैं. तो आइए, पिछले कुछ दिनों में कैम्पेन डायरी के पन्ने पलटकर अहम घटनाओं पर नज़र डालते हैं, और हो सकता है, कुछ समझा जा सके.

बेशक, भोपाल में BJP प्रत्याशी के रूप में प्रज्ञा ठाकुर को अचानक सामने लाया जाना हर जगह छाया हुआ है. मैं समझ सकता हूं, BJP ने क्यों उन्हें अपने लिए योग्य प्रत्याशी माना होगा, लेकिन मुझे फिर भी हैरानी हुई, क्योंकि यह सत्तारूढ़ दल की तरफ से उस बेचैनी को पार करने जैसा कदम लगा, जो मैंने अब तक महसूस नहीं की थी. बहुत जगह ख़बरें चल रही हैं कि BJP ने दो अन्य वरिष्ठ नेताओं को भी इस सीट से लड़ाने की नाकाम कोशिश की थी, और उसकी वजह को समझा जा सकता है, क्योंकि दिग्विजय सिंह की छवि दिल्ली में कैसी भी हो, मध्य प्रदेश में उनकी ताकत कुछ और ही है. मैं समझता हूं कि BJP ने शायद यह उम्मीद की थी कि दिग्विजय सिंह और कांग्रेस उनकी चाल में फंसकर इस सीट के चुनाव को हिन्दू या भगवना आतंकवाद की तरफ मोड़ देंगे, लेकिन अच्छा यह हुआ कि कांग्रेस ने इस बार ऐसा नहीं किया. सो, अब BJP को सिर्फ मीडिया के मुंहबाये खड़े सवालों का जवाब देना है कि क्यों उन्होंने ज़मानत पर छूटे हुए संदिग्ध आतंकवादी को पैराशूट के ज़रिये भोपाल में उतारा है. यह ख़बर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गई है, और इस कदम से आतंकवाद के खिलाफ, खासतौर से पाकिस्तान के संदर्भ में, नरेंद्र मोदी सरकार की सख्त स्थिति वाली साख को धक्का लगा है. निश्चित रूप से हिन्दुत्व के बेहद संकीर्ण स्वरूप को सामने लाने का यह कदम गलत रहा, जिसका समर्थन संभवतः सिर्फ समर्पित कार्यकर्ता ही करेंगे, और कहीं ज़्यादा अहम 'स्विंग' (उधर से इधर आ सकने वाले) मतदाता इसकी वजह से दूर छिटक जाएंगे. मैं साफ-साफ नहीं कह सकता कि BJP ने ऐसा 'बालाकोट से मिले उछाल' के हल्के पड़ने की वजह से किया, या पहले चरण के मतदान के 'उम्मीद से कम' फीडबैक मिलने की वजह से.

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भोपाल लोकसभा सीट से BJP प्रत्याशी प्रज्ञा ठाकुर मालेगांव ब्लास्ट केस में आरोपी हैं...

इसके बाद तमिलनाडु में चुनाव से सिर्फ एक दिन पहले DMK नेता कनिमोई के संसदीय क्षेत्र स्थित आवास पर इनकम टैक्स का छापा मारा गया. कुछ भी नहीं मिला, और 'सूत्रों' ने 'गलत टिप' को इसके लिए दोषी करार दिया. मैंने सोचा, ऐसी ही 'गलत टिप' की वजह से कितने BJP प्रत्याशियों के घरों पर छापे मारे गए, जवाब था - शून्य, यानी एक भी नहीं. बहरहाल, कनिमोई और DMK नेता स्टालिन ने इस 'प्रताड़ना' का पूरा फायदा उठाया, और प्रचार की समय सीमा समाप्त हो जाने के बाद भी मतदाताओं की अधिकतम सहानुभूति बटोर ली.

उधर, दिल्ली में 'होगा या नहीं होगा' के कथानक पर आम आदमी पार्टी (AAP) और कांग्रेस के बीच धारावाहिक लगातार जारी है. मुझे कुछ नहीं पता, लेकिन इसे सरसरी नज़र से देखने वाले किसी भी शख्स को महसूस हो जाएगा कि कांग्रेस सौदेबाज़ी करने का गुर भूल चुकी है, और AAP ने कभी कुछ सीखने की कोशिश ही नहीं की. हालात तो उम्मीदअफज़ाह नहीं हैं. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का ट्वीट, और उस पर दिल्ली के मुख्यमंत्री द्वारा दिया गया त्वरित उत्तर कतई बेतुके हैं. संयम बरतने की ज़रूरत है. दोनों ही पार्टियों के लिए वक्त खत्म होता जा रहा है, और दिल्ली के मतदाता सब देख रहे हैं.

फिर सामने आती है, लखनऊ में श्रीमती एवं श्री सिन्हा की कथा. हमें ऐसा यकीन दिलाया गया था कि शत्रुघ्न सिन्हा को पटना साहिब लोकसभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी घोषित करने के बदले यही तय हुआ था कि उनकी पत्नी समाजवादी पार्टी (SP) का टिकट लेकर लखनऊ में संयुक्त विपक्ष की प्रत्याशी के रूप में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को टक्कर देंगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं, पूनम सिन्हा के SP में शामिल होने की पूर्व संध्या पर ही कांग्रेस ने उम्मीदवारों की जो लिस्ट जारी की, उसमें लखनऊ से भी प्रत्याशी घोषित किया गया था. टिप्पणीकारों ने इसी बात की ओर इशारा करना शुरू कर दिया कि अब कांग्रेस के नए सदस्य 'शॉटगन सिन्हा', यानी पूर्व केंद्रीय मंत्री शत्रुघ्न सिन्हा अपनी ही पार्टी के प्रत्याशी के खिलाफ जाकर अपनी पत्नी के लिए प्रचार नहीं कर पाएंगे. लेकिन यह भी गलत साबित हुआ. अपनी पत्नी के नामांकन दाखिल करने और रोड शो के दौरान ज़ोश-खरोश से भरपूर 'बिहारी बाबू' उनके साथ दिखाई दिए, और पार्टी के प्रति वफादारी की चिंता नहीं दिखी. कांग्रेस की उत्तर प्रदेश इकाई को जल्द ही कुछ करना होगा.

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पटना साहिब से कांग्रेस प्रत्याशी शत्रुघ्न सिन्हा लखनऊ में समाजवादी पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ रहीं अपनी पत्नी पूनम सिन्हा के साथ मौजूद रहे...

शायद आप यह सोचने लगें कि मैं कांग्रेस के प्रति कुछ ज़्यादा ही सख्ती बरत रहा हूं, मैं बताना चाहूंगा कि इस प्रचार अभियान के दौरान दो सबसे बड़े सरप्राइज़ परफॉर्मर प्रियंका गांधी वाड्रा और मुंबई नॉर्थ लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी उर्मिला मातोंडकर ही रहे हैं. खासतौर से उर्मिला तो कतई हैरान कर देती हैं, क्योंकि मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने अचानक राजनीति में कदम रखने से पहले कभी कोई राजनैतिक टिप्पणी की हो. लेकिन उनके भाषण बेहद आक्रामक और धाराप्रवाह रहे हैं, और ऐसा आभास देते हैं, जैसे वह सारी उम्र इसी भूमिका की तैयारी करती रही थीं. BJP ने भी उन्हें सबसे ज़्यादा 'ज़हरीले' तरीके से निशाना बनाया, लेकिन वह टिकी रहीं, और अपने बोलों में कड़वाहट लाए बिना ही जवाब दिया. प्रियंका गांधी ने फतेहपुर सीकरी में जो भाषण दिया, वह 'स्पीच ऑफ द वीक' कहा जा सकता है, हालांकि मीडिया कवरेज से उसका पता नहीं चल पाएगा, क्योंकि मीडिया तो भाषण के दौरान एक बार लड़खड़ाई उनकी ज़ुबान से आगे ही नहीं बढ़ पाया. प्रधानमंत्री के राष्ट्रवाद से जुड़े प्रभावी भाषणों का अब तक किसी भी विपक्षी नेता द्वारा दिया गया सबसे शानदार जवाब प्रियंका का भाषण ही था. और जिस खूबसूरती के साथ उन्होंने हर वाक्य से पहले 'अगर आप राष्ट्रवादी हैं, तो...' का इस्तेमाल किया, वह दिखाता है कि वह सीख रही हैं, और बहुत तेज़ी से सीख रही हैं. लेकिन उनके साथ भी रॉबर्ट वाड्रा नामक एक बड़ी राजनैतिक ज़िम्मेदारी जुड़ी हुई है, इसलिए राहुल गांधी के चाहने वालों को हताश होने की फिलहाल कोई ज़रूरत नहीं है.

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बॉलीवुड अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर पिछले माह कांग्रेस में शामिल हुई थीं...

इस पूरे चुनावी प्रचार अभियान में एक बेहद अहम चीज़ लापता रही है. एक सत्तासीन दल है, जो इस चुनाव को जीतने के लिए किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार है, और उससे मुकाबिल है बिखरा और छितराया हुआ विपक्ष, जिसके सिर पर मोदी को सत्ताच्युत करने का जुनून तो सवार है, लेकिन उन्हें चुनाव आयोग से भी निपटना है, और आपस में भी लड़ना है, सो, उनके पास ज़्यादा कुछ करने के लिए वक्त ही कहां है. नकारात्मकता के इस राजनैतिक परिदृश्य में मतदाता बेहतर विचारों के लिए कहां जाएं, उम्मीद के लिए वे किसकी ओर ताकें...? वह नेता कहां है, जो समूचे भारत की बात करे, उन लाखों भारतीयों को आश्वस्त करे, जो मौजूदा निज़ाम में डरा हुआ महसूस करते हैं, कोई सकारात्मक संदेश देकर युवाओं को प्रेरित करे, शासन को सुशासन बनाए, और नई पीढ़ी के लिए सबको साथ लेकर चलने वाले भारत का झंडा बुलंद किए रहे...? नेहरू के उत्तराधिकारी का इंतज़ार जारी है...

कृष्ण प्रताप सिंह उपन्यासकार तथा राजनैतिक टिप्पणीकार हैं...

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