खुशहाली का राग दुखों के नगमों पर भारी पड़े...

खुशहाली का राग दुखों के नगमों पर भारी पड़े...

प्रतीकात्मक फोटो

मध्यप्रदेश देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है जिसने लोगों की खुशियों के लिए आधिकारिक रूप से चिंता जताई है। समाज में आनंद का तत्व लाने के लिए यहां पर एक ‘हैप्पीनेस मिनिस्ट्री’ का गठन करने को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। अब यहां पर खुशियां लाने का एक सरकारी ढांचा होगा। एक चैयरपर्सन होगा, जो आनंद लाने का जिम्मेदारी होगा। गतिविधियां होंगी और उनके बाद समीक्षाएं होंगी कि समाज में आखिर कितनी खुशियां आईं? नहीं आने पर मुख्यमंत्री का गुस्सा भी झेलना होगा, क्योंकि यह तो उनका ड्रीम प्रोजेक्ट है।

इस बात से कोई असहमति व्यक्त नहीं कर सकता कि समाज में खुशियों का भाव बढ़ना ही चाहिए। देश के हृदय प्रदेश से उत्पन्न होने वाला यह संचार देश भर में फैले, किसे आपत्ति है! पर इसके लिए एक ढांचागत कोशिश वह भी खुशियां लाने के लिए तब तक तो कौतूहलपूर्ण लगती हैं जब तक कि इसका पूरा रोडमैप सामने नहीं आ जाता। क्या इस मंत्रालय के पास देश में बच्चों के सर्वाधिक कुपोषण, सर्वाधिक उच्च शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर, भयंकर गरीबी, फलती—फूलती बेरोजगारी, दिनों दिन बढ़ती किसान आत्महत्या जैसी ज्वलंत समस्याओं से निपटने की कोई जादुई छड़ी होगी, अथवा यह खुशियों का प्याला भर होगा, जिसे पीकर हम थोड़ी देर तो इन समस्याओं को भूलकर आनंद में तैर जाएंगे, लेकिन अगले दिन फिर यही सवाल और बड़ा आकार लेकर हमारे सामने होंगे।

सवाल यह भी है कि इस आनंद के केन्द्र में कौन लोग हैं? खुशियों की कवायद किसके लिए है? जिन परिस्थितियों में हमारा समाज है, विचित्र है कि इसके ओर—छोर में बड़ा भारी अंतर है। एक ओर तो लोगों को इलाज के लिए कांवर में पटककर मीलों पैदल चलकर जाना होता है, दूसरी तरफ एयर एंबुलेंस और पांच सितारा जैसी सुविधाओं वाले अस्पताल हैं। एक ओर मिड डे मील, आंगनवाड़ी योजनाएं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली का राशन लोगों के जीवनयापन का सबसे बड़ा सहारा है, दूसरी ओर केवल स्कूल में बच्चों का टिफिन देने के लिए एक चार पहिया वाहन अलग से जाता है। पर सोचने वाली बात यह है कि खुशी तो वहां भी सिरे से गायब है। संभवत: खुशियों की दुकानें, खुशियों की किताबें, खुशियों के पैकेज का बाजार भी इसलिए इतना विकसित होता चला गया है। हम अपेक्षा यही करते हैं कि दूसरे छोर वाले लोग जिनके हिस्से मजबूरी है, अभाव है, लाचारी है, वह कम से कम इन आधारभूत सुविधाएं न होने से खुशी से वंचित न रहें।  

सरकार का तो काम ही खुशियां लाना है। इसके सारे विभाग यदि ईमानदारी से अपना काम कर रहे हों तो सरकार को एक और विभाग का सिरदर्द पालने की जरूरत ही न हो। सवाल यह है कि जो विभागीय संरचनाएं पहले से मौजूद हैं वह अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से निभा पा रही हैं या नहीं। यदि ऐसा नहीं है तो इस योजना का मतलब सिर्फ अपना घर जलने के बावजूद चैन की बंशी बजाने जैसा ही है। जमीनी अनुभव तो ऐसे ही रहे हैं कि सवालों को हल करने के बजाय एक दूसरे पर थोपने पर ज्यादा यकीन किया गया है।

कुपोषित बच्चों का ही मामला लें। इस बात को लंबे समय तक स्वीकार ही नहीं किया गया है कि कुपोषण बच्चों की मौत का एक बड़ा कारण बन रहा है। जबकि अब से दस साल पहले तक स्वास्थ्य सर्वे बताते रहे कि इसी मध्यप्रदेश में देश में सर्वाधिक साठ प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। और अब दस साल बाद भी यह आंकड़ा घटकर केवल 42 प्रतिशत तक ही आ पाया है। दस साल में अठारह प्रतिशत कुपोषण कम करके कैसे खुशी आएगी? क्या इसकी दोगुनी—चौगुनी रफ्तार नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यही प्रदेश तो कृषि उत्पादन में लगातार चार—चार साल बेहतरीन प्रदर्शन के साथ राष्ट्रीय अवार्ड भी प्राप्त कर लेता है। इन विरोधाभासों को समझना चाहिए।

समझना चाहिए कि गरीबी दूर करने, वंचित और हाशिए पर पड़े लोगों तक कम से कम आधारभूत सुविधाएं बिना किसी लीकेज के पहुंचाने की जिम्मेदारी तो सरकार के पहले से काम कर रहे विभागों की है। भूखे पेट आनंद नहीं आता, बिना सेहत के खुशी नहीं आती और बिना अच्छी शिक्षा के समाज में मूल्य स्थापित नहीं हो सकते। और यह केवल भाषणों से, होर्डिंगों में छपे इश्तहारों और तस्वीरों से, प्रोफेशनल कंपनियों की ब्रांडिंग से नहीं हो सकता, यह तो नीतियों में नजर आता है। यह दिखता है कि नीतियों में बाजार कितना है, मनुष्य कितना है। बाजार की नजर में मनुष्य केवल अपने उत्पाद को खपा देने भर का केन्द्र है। उससे उसे खुशी कितनी मिलती है, नहीं मिलती है, इसका लेखा—जोखा वह किसी एकाउंट में दर्ज नहीं करता है।

यह हिसाब—किताब तो समाज खुद ही रखता है। इसको चलाता वह खुद ही है और परिणाम तक भी वह खुद ही पहुंचाता है। इसलिए तमाम संकटों के बाद हमारे जैसा समाज चलता रहता है। दुखों—तकलीफों को भूलकर अभावों में भी वह खुशियों के गीत गाना जानता है। उसके पास हर एक क्षण के, हर एक संवेग के गीत हैं। चिंता यही है कि हमने ही खुशहाल समाज से वह सब तौर—तरीके छीनकर अपने बेसुरे गीतों और तथाकथित विकास के रागों को थोप दिया है, इसीलिए अब हमें खुशहाली की फसल को बोना पड़ रहा है। आशा तो की ही जा सकती है कि ‘खुशहाली का यह राग दुखों के नगमों पर भारी पड़े।‘

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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