गांधी का नाम गोडसे के काम

गांधी और गोडसे को लेकर असगर वजाहत का एक नाटक है- 'गोडसे@गांधी.कॉम'. नाटक इस कल्पना से शुरू होता है कि गोडसे की गोली से गांधी घायल हुए, लेकिन उनको बचा लिया गया.

गांधी का नाम गोडसे के काम

फाइल फोटो

गांधी और गोडसे को लेकर असगर वजाहत का एक नाटक है- 'गोडसे@गांधी.कॉम'. नाटक इस कल्पना से शुरू होता है कि गोडसे की गोली से गांधी घायल हुए, लेकिन उनको बचा लिया गया. इसके बाद क्या होता है? गांधी लोकतंत्र और ग्राम स्वराज का अपना प्रयोग शुरू करते हैं. बिहार के एक सुदूर इलाके में यह प्रयोग कामयाबी से चल रहा है. लेकिन राजनीति और अफ़सरशाही इससे हैरान-परेशान है. अंततः नेहरू-पटेल की सरकार गांधी को गिरफ़्तार कर लेती है. गांधी की विरासत का कांग्रेस ने जो हाल किया है, उसको देखकर लेखक की यह कल्पना अजूबा नहीं जान पड़ती. हमारे राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान ने एक तरह से गांधी को मार डाला है. ऐसा भी नहीं कि इसका एहसास किसी को नहीं है. न जाने ऐसी कितनी कहानियां, उपन्यास, नाटक या फिल्में हैं, जिनमें गांधी की इस वैचारिक हत्या को विषय बनाया गया है.

लेकिन असगर वजाहर का नाटक यहां ख़त्म नहीं होता. गांधी जिद करते हैं कि उनको गोडसे के साथ जेल की एक ही सेल में रखा जाए. उनके उपवास के बाद सरकार उनकी यह मांग मान लेती है. गांधी गोडसे से लगातार संवादरत हैं, गोडसे संवाद से बचने की कोशिश में है. गोडसे बताता है कि गीता उसकी प्रिय पुस्तक है. गांधी कहते हैं, गीता उनकी भी प्रिय पुस्तक है. फिर वे जोड़ते हैं- 'देखो, एक ही किताब ने तुम्हें मेरी हत्या करने की प्रेरणा दी, जबकि मुझे तुम्हें माफ़ करने की.'
तीस जनवरी को, औपचारिकता की ही तरह, गांधी को याद करते हुए यह बात भुलाई नहीं जा सकती कि दरअसल यह जीवन-दृष्टि है- जीवन को देखने का नज़रिया- जो किसी को गोडसे और किसी को गांधी बनाता है. जीवन में फांक तब पैदा होती है जब हम गांधी की तरह होना चाहते हैं, लेकिन गोडसे की तरह हरकत करते हैं.

भारतीय समाज में यह विडंबना आज कुछ ज़्यादा ही विकट हो गई है. गांधी से हर कोई श्रद्धा रखता है, लेकिन गांधी के मूल्यों की परवाह नहीं करता. दरअसल, गांधी भी कई तरह के हैं. कुछ आसान गांधी हैं, कुछ मुश्किल गांधी हैं, कुछ बेहद मुश्किल गांधी हैं और कुछ लगभग असंभव लगते गांधी हैं. आसान गांधी के अनुसरण का एक रास्ता फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' ने दिखाया था- यह अहिंसक प्रतिरोध का रास्ता है. इस फिल्म के बाद फूल देकर विरोध करने का चलन बढ़ा. मोमबत्ती जलाकर विरोध जताना इसी अहिंसक प्रतिरोध का एक और रूप है. राजनीतिक दलों के उपवास या धरने को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है, हालांकि उन्होंने गांधी के उपवास में आत्मशुद्धि का जो तत्व था, उसे भुला दिया है.

एक और आसान गांधी हैं, जिनका वास्ता स्वच्छता, सहिष्णुता जैसे मूल्यों से है. कई एनजीओ अपने आचरण में तो नहीं, लेकिन सिद्धांत में इस गांधीवाद के रास्ते पर चलते दिखाई पड़ते हैं. हालांकि, गांधी के सदाचार के कठोर नियम उनकी व्यावहारिक समाजसेवा के रास्ते में बाधक बनते जाते हैं. लेकिन ये सजावटी या दिखावटी गांधी हैं. असली गांधी धीरे-धीरे चुनौतियां कड़ी करते जाते हैं. सर्वधर्म समभाव की उनकी शर्त इस देश में बहुसंख्यकों की राजनीति करने वाली वैचारिकी के गले नहीं उतरती. कई बार लगता है कि इसी सर्वधर्म समभाव की वजह से उनकी हत्या भी हुई. दिलचस्प यह है कि सर्वधर्म समभाव का यह बीज गांधी कहीं बाहर से आयात नहीं करते, भारतीयता की मिट्टी से ही खोज निकालते हैं. वे सच्चे हिंदू हैं, बल्कि इतने सच्चे कि हिंदुत्व के भीतर जो गंदगी है, उसको भी दूर करने को कटिबद्ध दिखते हैं.

पहले अछूतोद्धार का आंदोलन चलाते हैं और फिर यह समझते हैं कि उद्धार की ज़रूरत अछूतों को नहीं, उन वर्गों को है जिन्होंने एक तबके को अछूत बना रखा है. यह लगता है कि गांधी कुछ देर और जीते तो शायद इस सड़े-गले हिंदुत्व की कुछ और सर्जरी कर डालते. उनका यह वाक्य मशहूर है- 'पहले मैं समझता था कि ईश्वर ही सत्य है, अब समझ गया हूं कि सत्य ही ईश्वर है.' सत्य से इस तरह आंख मिलाने की जो ताब है, वह गांधी को कुछ और मुश्किल बनाती है. दरअसल, हिंदूवादी वैचारिकी इस गांधी से इसलिए भी डरती है कि वह हिंदुत्व को राजनीति का उपकरण बनने नहीं देते, मनुष्यता को परिभाषित करने का मंत्र बनाना चाहते हैं- बल्कि पाते हैं कि सभी धर्मों के भीतर मनुष्यता का यह मोती है जो हमारा साझा मूल्य होना चाहिए. 

धीरे-धीरे गांधी कुछ और कड़े होते जाते हैं. वे मनुष्यता की शर्तें निर्धारित करने लगते हैं- वे चाहते हैं कि हर आदमी अपनी ज़रूरत भर ले, उससे ज़्यादा नहीं. वे युवराजों को झोंपड़ों में रहने की सलाह देते हैं, डॉक्टरों और वकीलों को उपभोग और झगड़े की जीवन शैली को बढ़ावा देने के लिए दुत्कारते हैं, वे देश और धर्म की बनी-बनाई सरणियों के पार जाते दिखते हैं, वे राष्ट्रवाद के उद्धत आग्रह को आईना दिखाते हैं, वे अपने विख्यात गोप्रेम के बावजूद जबरन गोकशी रोकने के ख़िलाफ़ नज़र आते हैं, वे अपने बुने कपड़ों, अपने उगाए अन्न और अपने बनाए औजारों पर इतना ज़ोर देते हैं कि उनका ग्राम स्वराज लगभग असंभव जान पड़ता है- आज के दुनियादार लोगों के लिए तो वे किसी और ज़माने के पीछे छूटे हुए नेता भर हैं जिनकी मूर्ति पर माल्यार्पण कर देना, जिनकी तस्वीर दफ़्तर में टांग लेना काफ़ी है. 

लेकिन यह अव्यावहारिक गांधी भी मौजूदा राजनीतिक प्रतिष्ठान को डराता है. गांधी के आईने में उसकी अपनी वैचारिकी के विद्रूप दिखाई पड़ते हैं. गांधी के सर्वधर्म समभाव के आगे उसकी उद्धत बहुसंख्यक राजनीति म्लान जान पड़ती है, गांधी के स्वदेशी के आगे उसके स्वदेशी का खोखलापन उजागर हो जाता है, गांधी जो देश बनाना चाहते हैं, उसके आगे इसका राष्ट्रवाद संकुचित और सीमित दिखाई पड़ता है. गांधी के गोप्रम के आगे इनकी गोरक्षा आपराधिक और हिंसक नज़र आती है. और तो और, गांधी जिस राम के उपासक हैं, उसके आगे बीजेपी के जयश्रीराम बहुत सारे लोगों को पराये लगने लगते हैं. 

लेकिन इस गांधी को वे उस तरह नहीं मार सकते जिस तरह गोडसे ने मारने की कोशिश की. इसलिए वे गांधी का नाम तो लेते हैं, मगर मंदिर गोडसे का बनाते.

प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं

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