मालेगांव धमाका : अदालत में एटीएस की कहानी मुंह के बल गिरी! सत्यमेव जयते

मालेगांव धमाका : अदालत में एटीएस की कहानी मुंह के बल गिरी! सत्यमेव जयते

मालेगांव में हुए धमाके के घटनास्थल का दृश्य (फाइल फोटो)

मालेगांव 2006 बम धमाकों के सभी मुजरिमों को एनआईए की विशेष अदालत ने आरोप मुक्त कर दिया। मतलब यह कि अदालत को उनके खिलाफ मुकदमा चलाने लायक भी सबूत नहीं मिले। इसलिए अदालत ने अपने फैसले में साफ तौर पर कहा है कि चूंकि युवकों की पृष्ठभूमि अपराधिक रही है इसलिए उन्हें बलि का बकरा बनाया गया।

दस साल बाद ही सही बेगुनाहों के साथ इंसाफ हुआ। यह अलग बात है कि उनमें से कुछ इसे अभी अधूरा न्याय बता रहे हैं क्योंकि उनके जीवन के 10 साल बर्बाद हो गए, आतंकी होने का कलंक झेलना पड़ा। लेकिन दाद देनी होगी एनआईए की विशेष अदालत के जज वीवी पाटिल को जिनके इस ऐतिहासिक फैसले से अदालतों पर भरोसा बढ़ा है। खुद आरोपियों के वकीलों को भी भरोसा नहीं था कि जज वीवी पाटिल इस तरह का साहसिक फैसला सुनाकर एक मिसाल कायम करेंगे। जज वीवी पाटिल ने बिना किसी झिझक के दो टूक फैसला सुनाकर सबको हैरान कर दिया।

इस फैसले के वक्त मैं खुद भी अदालत में मौजूद था। फैसला सुनते ही अदालत में मौजूद आरोपी नुरूल हुदा, डॉ सलमान फारसी और रईस अहमद ने एक साथ अल्ला हो अकबर का नारा लगाया। हालांकि उनके वकीलों ने तुरंत उन्हें टोककर अदालत की गरिमा बनाए रखने की हिदायत दी। बाहर आकर उन्होंने बयान दिया कि जो बात हम पहले दिन से कह रहे थे उसे 10 साल बाद अदालत ने माना है।

दरअसल मालेगांव 2006 बम धमाकों की जांच पर शुरू से ही सवाल उठना शुरू हो गए थे। मैं जब भी हकीकत जानने-समझने के लिए मालेगांव गया, वहां के लोगों का एक ही तर्क होता था कि कोई भी मुसलमान खुद कब्रिस्तान में बम रख ही नहीं सकता। अदालत ने भी अपने फैसले में कहा है कि " यह असंभव है कि आरोपियों ने, जो खुद मुस्लिम हैं, शबे बारात जैसे पवित्र दिन दो समुदायों के बीच नफरत पैदा करने के लिए अपने ही लोगों को मारने का फैसला किया होगा।"

सवाल है जांच एजेंसी को यह बात क्यों समझ नहीं आई? 8 सितंबर 2006 को मालेगांव में हुए 4 बम धमाकों में 31 लोगों की मौत हुई थी और 125 के करीब जख्मी हुए थे। हैरानी की बात है कि एटीएस की जांच का आधार भी कब्रिस्तान ही था, लेकिन उनकी सोच अलग थी। पुलिस की कहानी में बम दीवार से सटाकर कुछ इस तरह रखे गए थे कि धमाके का असर दीवार पर ज्यादा हो और नमाजियों पर कम। यानी धमाका करने वालों का मकसद लोगों को मारना कम, आतंक फैलाना ज्यादा था। यही वजह है कि पुलिस और एटीएस का शक प्रतिबंधित संगठन सिमी पर गया।

लेकिन अदालत की सोच इससे अलग है। एनआईए की विशेष अदालत के जज वीवी पाटिल ने कहा है कि 8 सितंबर 2006 को हुए बम धमाकों के पीछे एटीएस का तर्क समझदार इंसान के गले नहीं उतर सकता, क्योंकि इसके ठीक पहले गणेशोत्सव संपन्न हुआ था। आरोपियों को अगर दंगा कराना होता तो वे मालेगांव में विसर्जन के दिन बम रखते, जिससे मरने वालों मे हिंदुओं की संख्या कहीं ज्यादा होती।

एटीएस की कहानी में एक और बड़ी खामी आरोपी मोहम्मद जाहिद को लेकर मिली। एटीएस ने उसे प्लांटर बताया था, लेकिन पता चला कि उस समय वह मालेगांव से 300 किलोमीटर दूर यवतमाल में नमाज पढ़वा रहा था। जिस अबरार के इकबालिया बयान को आधार बनाकर पूरी कहानी गढ़ी गई थी वह पुलिस का मुखबिर निकला और बाद में अपने बयान से मुकर भी गया था, जबकि एटीएस ने उसे सरकारी गवाह बनाया था। जांच में खामियों और विसंगतियों के कारण पहले दिन से ही सवाल उठना शुरू हो गया था। यही वजह है कि बाद में जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी। लेकिन उसने भी एटीएस की कहानी को ही आगे बढ़ाया।

हालांकि साल 2011 में स्वामी असीमानंद के इकबालिया बयान से पहले की जांच पर फिर से सवाल उठा। हैदराबाद की मक्का मस्जिद में बम धमाके करवाने के आरोप में गिरफ्तार स्वामी असीमानंद ने इकबालिया बयान में बताया था कि '2006 में सुनील जोशी मुझसे मिलने शबरी धाम आया था। तब तक मालेगांव 2006 का बम धमाका हो चुका था। सुनील ने तब बताया था कि मालेगांव में जो बम धमाके हुए हैं वे हमारे लोगों ने किए हैं।' असीमानंद ने जब इस बात का खुलासा किया तब तक सुनील जोशी की हत्या की जा चुकी थी। लेकिन जांच एजेंसी एनआईए को तहकीकात के लिए एक अहम सुराग मिल गया जिसकी बदौलत वह हिंदू संगठन से जुड़े कुछ ऐसे लोगों तक पहुंची जो मालेगांव 2008 बम धमाकों मे भी फरार आरोपी हैं।

अब अदालत के फैसले के बाद साफ हो गया है कि एटीएस ने झूठे आरोप गढ़कर 9 युवकों की जिंदगी बर्बाद कर दी। कायदे से इसके लिए एटीएस पर मुकदमा चलना चाहिए। लेकिन एटीएस के लिए राहत की बात है कि खुद अदालत ने यह साफ कर दिया है कि जांच करने वाले एटीएस अधिकारियों की इन आरोपियों से कोई दुश्मनी नहीं थी। लिहाजा मेरे हिसाब से उन्होंने अपना सार्वजनिक कर्तव्य तो निभाया, लेकिन गलत तरीके से। इसलिये उन्हें इसके लिए जिम्मेदार करार नहीं दिया जाना चाहिए।

एटीएस का अभी तक इस फैसले पर कोई अधिकृत बयान नहीं आया है, न ही मौजूदा एटीएस प्रमुख विवेक फणसलकर इस पर कुछ बोलने को तैयार हैं। तत्कालीन एटीएस प्रमुख केपी रघुवंशी ने भी अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। लेकिन मालेगांव के तत्कालीन एसपी राजवर्धन सिन्हा का कहना है कि अबरार ने खुद आकर अपना अपराध कबूला था और साजिश का खुलासा किया था।

बाकी लोगों का तो पता नहीं लेकिन मुझे अदालत के इस फैसले ने खुशी और गम दोनों दिए हैं। खुशी इस बात की कि अंतत: सच की जीत हुई और गम इसलिए कि गलत जांच की तोहमत तत्कालीन एटीएस प्रमुख केपी रघुवंशी पर लगी है जो मेरे सबसे अजीज़ अफसरों में से एक रहे हैं। मेरी खोजी रिपोर्ट "बांग्लादेशी कनेक्शन"  के लिए एनटी अवार्ड मिलने के उपलक्ष्य में जब मुंबई में मेरा सम्मान किया गया था तब मैंने खास तौर पर उन्हें आमंत्रित किया था। खाकी वर्दी में भी वे मुझे हमेशा एक नेकदिल इंसान ही नजर आए। मालेगांव 2008 के धमाकों मे हिंदू संगठन से जुड़े लोगों को पकड़ने का श्रेय भले ही तत्कालीन एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे को है, लेकिन 26/11 आतंकी हमले में उनके शहीद होने के बाद फिर से एटीएस प्रमुख बने केपी रघुवंशी ने ही उस जांच को आगे बढ़ाया और हिंदू आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट फाइल करवाई थी। इसलिए मुझे यकीन है कि केपी रघुवंशी ने मालेगांव 2006 के बम धमाकों में जानबूझकर गलत लोगों को आरोपी नहीं बनाया। लेकिन उस जांच टीम से जुड़े और बाहर से जांच में सहयोग कर रहे सभी अफसरों के बारे में मैं ऐसा नहीं कह सकता।

खैर अदालत के फैसले से साफ हो गया है कि गलती हुई है और जिस तरह अच्छे कामों का श्रेय बड़े अफसर लेते हैं उसी तरह गलती की जिम्मेदारी भी उनकी ही बनती है। मुझे याद है कुछ साल पहले एक समारोह मे रघुवंशी साहब ने कहा था कि अगर जांच गलत हुई तो सबसे पहले माफी मैं मांगूंगा। वक्त आ गया है रघुवंशी साहब।

सुनील कुमार सिंह एनडीटीवी इंडिया में कार्यरत हैं।

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