चारा घोटाले का बिहार की राजनीति में किसी को नफा या नुकसान क्यों नहीं होता?

उस समय जांच में लगे अधिकारियों का कहना था कि इस मामले में इतने साक्ष्य हैं कि अगर किसी की लेन-देन में सीधी भागीदारी रही है, तो उसके जीवन का एक अच्छा हिस्सा जेल में बीतेगा.

चारा घोटाले का बिहार की राजनीति में किसी को नफा या नुकसान क्यों नहीं होता?

लालू यादव (फाइल फोटो)

चारा घोटाले के एक मामले में जब से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू यादव को साढ़े तीन साल जेल की सजा हुई है, उसके बाद बिहार की राजनीति में ये कायास लगाये जा रहे हैं कि आखिर इस पूरे मामले से किसे नफा होगा और किसे नुकसान. अगर आप इस बात को समझना चाहते हैं तो इसके लिए आपको बिहार की वर्तमान राजनीति से इतर उसके पीछे की राजनीति को थोड़ा याद करना होगा. एक तरफ जहां वर्तमान में लालू यादव चारा घोटाले में एक बार फिर सजा काट रहे हैं, वहीं उनके कभी राजनीतिक सहयोगी और अब विरोधी नीतीश कुमार को ‘प्रोबिटी इन पॉलिटिक्स एंड पब्लिक लाइफ' के मुफ्ती मोहम्मद अवार्ड से नवाजा जा रहा है. मुफ्ती साहब और उनके परिवार से लालू और नीतीश दोनों के मधुर संबंध रहे हैं. लालू के सहयोग से मुफ्ती साहब 1996 में कटिहार से जनता दल के टिकट पर चुनाव मैदान में भी थे. लेकिन इसे आप संयोग कह सकते हैं कि जब इस अवार्ड के लिए जूरी बैठी तो उन्हें नीतीश का नाम तय करने में पांच मिनट भी नहीं लगे. इसका एक कारण ये माना जाता है कि जहां लालू सत्ता में बेफिक्र होकर सब कुछ अपनी मर्जी से करते रहे, वहीं नीतीश लालू की गलतियों से सीखते हुए सरकार में अपने दायित्व के प्रति गंभीर बने रहें. बता दें कि लालू यादव इस घोटाले के उजागर होने के बाद सात बार जेल जा चुके हैं. 

लेकिन चारा घोटाले का एक सच यह भी है कि इस घोटाले के जनक एक सिद्धांत पर अंत तक कायम रहे और यह सिद्धांत यह था कि सभी प्रमुख दलों के नेताओं को घोटाले की रकम से नवाजा गया. इसका उदाहरण लालू, जगन्नाथ मिश्रा, जगदीश शर्मा और ध्रुव भगत से ही नहीं मिलता, बल्कि इस बात से भी होता है कि भले इस घोटाले को उजागर भाजपा नेता सुशील मोदी, सरयू राय, उन दिनों समता पार्टी और अब जनता दल यूनाइटेड नेता ललन सिंह या शिवानन्द तिवारी जैसे नेताओं ने याचिका दायर कर की हो, मगर इस घोटाले का केंद्र अब के झारखंड या अविभाजित बिहार के दक्षिण बिहार के किसी नेता या उस क्षेत्र के किसी भी दल के नेता ने अपनी आवाज नहीं उठाई. क्योंकि उनका साम-दाम-दंड-भेद से ध्यान रखा जाता था. 

इसकी एक झलक रांची के होटेल बसेरा में आज से 22 साल पहले पटना से रांची पहली सुनवाई में शामिल होने गये भाजपा नेताओं से मिलती है. जिसमें सुशील मोदी, सरयू राय और रविशंकर प्रसाद ने रांची के भाजपा नेताओं से पूछा कि आखिर क्या कारण रहा कि आपलोग हमेशा चुप रहे. उनका जवाब था कि पार्टी को भी ये लोग चंदा देते थे. यही कारण था कि याचिका करने वाले नेताओं का केंद्रीय मंत्री (अब) रविशंकर प्रसाद से बहस कराने पर ज्यादा भरोसा रहा, क्योंकि उस समय जो भी पार्टी की तरफ से वकीलों  के नाम दिए गये, उस पर एक संदेह था कि ये घोटालेबाज से मिलकर मामले में मैनेज हो जायेंगे.

जहां तक लालू यादव को निशाना बनाने या राजनीतिक द्वेष से उनके खिलाफ कार्रवाई करने का सवाल है, तो इस घोटाले का ये भी संयोग रहा कि लालू यादव को जब पहली बार सीबीआई ने समन जारी किया, या फिर चार्जशीट दायर किया और फिर जब वो पहली बार इस मामले में जेल गये तो उस वक्त केंद्र की सरकार में उनकी पार्टी की भी भागीदारी थी. सरकार में लालू प्रसाद का कद इतना बड़ा था कि उस समय प्रधानमंत्री के नाम पर उनका मुहर अनिवार्य होता था. लेकिन लालू अपने अति आत्मविश्वास के शिकार बने. आप कह सकते हैं कि ये कोर्ट के मॉनिटरिंग का नतीजा रहा कि लालू की दोनों जगह सत्ता होने के बाद भी वो अपने आप को नहीं बचा सके. लेकिन उस समय भी जांच में लगे अधिकारियों का कहना था कि इस मामले में कागजात के इतने साक्ष्य हैं कि अगर किसी की लेन-देन में सीधी भागीदारी रही है, तो उसके जीवन का एक अच्छा हिस्सा जेल में बीतेगा.

शुरू से ही इस घोटाले के कर्ता-धर्ता जैसे श्याम बिहारी सिन्हा, रामराज राम, के.एम प्रसाद या आर. के. राणा जैसे लोगों के साथ लालू यादव की नजदीकी जग जाहिर थी. जिसके कागज पर भी एक से अधिक साक्ष्य मिले. सबसे बड़ा सवाव लालू यादव के खिलाफ साक्ष्य या घोटाले में उनकी भूमिका को लेकर था कि वो जब राज्य के मुख्यमंत्री और वित मंत्री थे, तब राज्य के खजाने की सुरक्षा करने की जगह, उन्होंने सरकारी लूट पर आंख क्यों मूंद ली. वो चाहते तो कार्रवाई कर सकते थे, लेकिन इस मामले में जब अमित खरे जैसे जिला अधिकारी ने प्राथमिकी दर्ज करना शुरू किया तो लालू यादव का फाइल पर नोट था कि पहले सभी तथ्यों को जांचा-परखा जाये. शायद लालू को जांच और अपनी संलिप्तता का आभास था. इसलिए सीबीआई को ये जांच न सौंपी जाए इसके लिए उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. उस जमाने में शांति भूषण और अरुण जेटली के अलावा देश के शीर्ष वकील बिहार सरकार की ओर से ही कोर्ट में बहस किया करते थे. 

लेकिन इस घोटाले का एक सच यह भी है कि जांच एजेंसी तमाम जांच के बाद भी अभियुक्तों की संपत्ति का बहुत-कुछ ब्योरा नहीं निकाल सकी. उसका एक कारण रहा कि लालू यादव हों या अन्य लोग, उन्हें एजेंसी की हर कदम का अंदाजा होता था. यह एक बड़ा कारण रहा कि घोटाले के इतने साल बाद भी लालू यादव के समर्थक आज भी ये मानने को तैयार नहीं हैं कि लालू यादव ने कुछ गलत किया. समर्थक आपको यह भी तर्क देते मिल जायेंगे कि आय से अधिक संपत्ति का जो मामला था, उसमें लालू बरी हुए. उसके अलावा भाजपा द्वारा राजनीतिक कारणों से बिहार समेत अन्य राज्यों में कई लोगों को अपनी पार्टी में शामिल कराना लालू यादव को इस तर्क बुनने में मदद किया कि अगर भाजपा के साथ होते तो हरिश्चंद्र हो जाते. बिहार में ही भाजपा ने आर.के.राणा के बेटे को अपने दल में शामिल कर लिया. वहीं, जगन्नाथ मिश्रा से ना नीतीश कुमार ने परहेज किया और न ही भाजपा ने.

लेकिन बिहार में घोटाला भले ही 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद कभी मुद्दा नहीं बना, क्योंकि इस मुद्दे पर लोगों को बहुत समझाने का कोई लाभ नहीं था. जो लालू के वोटर हैं उनके लिए लालू ने गड़बड़ी की तो सत्ता से हटे. लेकिन उनके अनुसार, दूसरे घोटाले के आरोपियों को ऐसी सजा, जिसमें भाजपा शामिल है, क्यों नहीं दिला पाई. नीतीश कुमार इस सच को समझ गये कि जब तक लालू जिस जातीय समीकरण के आधार पर राज कर रहे हैं रहें, उनको अपनी तरफ मिला पाना आसान नहीं है और सीबीआई के आधार पर तो राजनीति हो नहीं सकती. एक बार नीतीश अति पिछड़ी जाति को समझाने में कामयाब रहे कि वो उनके राजनीतिक हिस्सेदारी के लिये सब प्रयास करेंगे. उसके बाद लालू ना केवल सत्ता से बाहर गये बल्कि नीतीश के नेतृत्व को मन मारकर स्वीकार करना पड़ा. 

यह एक सच है जो लालू के सिपहसलार मानते हैं कि भले लालू यादव के जेल जाने से कितनी भी सहानुभूति मिले, उनका आधारभूत वोटेबैंक यादव-मुस्लिम अगले चुनाव में तीस से साठ प्रतिशत रातों-रात नहीं हो जायेगा. उसके लिए तेजस्वी यादव जब तक इस वोट बैंक में अन्य जातियों को जोड़ने में कामयाब नहीं होते, तब तक नो कामयाब नहीं होंगे. भले लालू यादव ने प्रस्ताव पारित करा लिया हो कि तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, मगर बिना एक्सट्रा एफर्ट किये मुख्यमंत्री तो नहीं ही हो सकते हैं. इधर, नीतीश सत्ता में हर कदम फूंक-फूंक कर रखते हैं. यादव जाति का आक्रोश उनकी राजनीति और सत्ता में बने रहने के लिए एक अनिवार्य क्रिया है, जिसकी प्रतिक्रिया में उनके वोटर गोलबंद रहते हैं.

लेकिन ये घोटाला अब 22 साल पुराना हो गया है. इसलिए लालू यादव को आने वाले समय में लम्बित मामलों में सजा होगी या बरी होंगे. आम व्यक्ति की इस मामले में अब उतनी रुचि नहीं रही. एक नई पीढ़ी आ गई है. हां, इस इस घोटाले में सजायाफ्ता होने के बाद लालू यादव भले चुनाव लड़ने से वंचित हो गये, लेकिन अपनी राजनीतिक पहचान बचाने में कामयाब रहे, उसका एक कारण यह रहा कि सत्ता में उन्होंने जो गरीबों को आवाज़ देने का काम किया. लेकिन उनके बेटे तेजस्वी यादव पिता के इस राजनीतिक विरासत को बचा पाएंगे यह सवाल भविष्य के गर्भ में है. मगर फिलहाल चारा घोटाले के फैसले से बिहार की राजनीति में न किसी को नफा है और न ही नुकसान.

मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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