बिहार में महागठबंधन का श्रेय प्रशांत किशोर को नहीं जाता है...

बिहार में महागठबंधन का श्रेय प्रशांत किशोर को नहीं जाता है...

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में जारी आंतरिक कलह के बीच कार्यकर्ताओं और नेताओं का मनोबल ऊंचा रखने के लिए बिहार की तर्ज पर महागठबंधन बनाने की कोशिश कम से कम समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से चलती दिख रही है, और इसी सिलसिले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सलाहकार और कांग्रेस पार्टी के उत्तर प्रदेश और पंजाब चुनाव के लिए रणनीतिकार प्रशांत किशोर की मदद ली जा रही है.

निश्चित रूप से प्रशांत किशोर का बिहार में अनुभव रहा है और यहां उन्होंने किसी भी पार्टी को कम से कम शिकायत करने का मौका तो नहीं दिया था. अगर आज बिहार में महागठबंधन सत्ता में विराजमान है, तो उसका बड़ा श्रेय प्रशांत और उनकी टीम को भी जाता है, जिन्होंने चुनाव के अंतिम दौर तक ज़मीन पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और उनके सहयोगियों को मात देने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी, लेकिन बिहार में महागठबंधन बनाने, या कहिए नीतीश कुमार, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) प्रमुख लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस को एक साथ लाने का श्रेय इन तीनों दलों के नेताओं या प्रशांत किशोर को नहीं, बल्कि बिहार बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी को जाता है.

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दरअसल, जिस दिन बिहार में लोकसभा चुनाव के परिणाम आ रहे थे और चुनाव में करारी हार के बाद नीतीश ने फोन कर लालू को या दोनों नेताओं ने एक दूसरे को सांत्वना दी थी, तब उसी दिन लालू की पार्टी के प्रवक्ता मनोज झा ने इस बात को पहली बार उनके सामने कहा था कि बीजेपी से लड़ने के लिए बिहार में दोनों नेताओं को एक साथ आना होगा. लालू यादव उस समय कुछ नहीं बोले थे, लेकिन विधानसभा में नीतीश कुमार के इस्तीफे के बाद जीतनराम मांझी सरकार को उनकी पार्टी ने समर्थन दिया. लेकिन कुछ ही दिन बाद जब जनता दल यूनाइटेड के कुछ नेताओं ने बयान दिया कि आरजेडी से समर्थन किसी ने नहीं मांगा था, और वह खुद दिया गया था, तब लालू यादव खासे नाराज हुए थे.

लेकिन इस बीच बिहार में राज्यसभा की चार सीटों पर उपचुनाव होना था, क्योंकि रामकृपाल यादव, राजीव प्रताप रूडी, रामविलास पासवान और एसएस अहलूवालिया लोकसभा में चुनकर चले गए थे. इस चुनाव के आते-आते बीजेपी, खासकर सुशील मोदी, को इस बात का विश्वास हो गया था कि अगर दो बागी उम्मीदवार खड़े कर दिए जाएं, तो चुनाव मैदान में जेडीयू की ओर से डटे चार में से दो प्रत्याशियों - पवन वर्मा और केसी त्यागी - को हराया जा सकता है.

लेकिन नीतीश के पास भी अपने चारों प्रत्याशियों की जीत तय करने के लिए लालू से सीधे संवाद के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था, और वही हुआ भी. नीतीश ने फोन किया, लालू ने समर्थन दिया. इसके बाद लालू-नीतीश के एक साथ आ जाने की वजह से जेडीयू विधायकों की क्रॉस वोटिंग के बावजूद बीजेपी-समर्थित दोनों निर्दलीय उम्मीदवारों - अनिल शर्मा और साबिर अली - की हार हुई, और इस जीत के साथ ही पड़ गई थी महागठबंधन की नींव.

उसके बाद बिहार में विधानसभा की 10 सीटों पर उपचुनाव हुआ और उस दौरान हाजीपुर में पहली बार नीतीश और लालू एक ही मंच पर एक साथ दिखाई दिए. चुनाव परिणाम भी अनुकूल रहा, क्योंकि छह सीटें गठबंधन को मिलीं और माना गया कि कम से कम दो सीटें कांग्रेस पार्टी के जिद के कारण बीजेपी के खाते में गईं.

लेकिन इस बीच मांझी तेवर दिखाने लगे और प्रशांत किशोर तब तक नीतीश के संपर्क में आ चुके थे. तब प्रशांत किशोर और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने नीतीश को जल्द से जल्द एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने की सलाह दी. लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आता गया, लालू यादव, खासकर उनकी पार्टी की तरफ से रघुवंश प्रसाद सिंह के बयानों से भ्रम की स्थिति बनी रही कि आखिरकार गठबंधन हो पाएगा या नहीं. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने खुलेआम यह कहकर लालू यादव की मुश्किलें बढ़ा दीं कि चुनाव में नीतीश कुमार का ही चेहरा होगा.

उसके बाद भी सीटों को लेकर ज़िद बनी हुई थी और तब प्रशांत किशोर की भूमिका शुरू हुई. प्रशांत खुद भी शुरू में लालू के साथ समझौते को लेकर कुछ संशय में थे, लेकिन नरेंद्र मोदी की मुज़फ़्फ़रपुर रैली के बाद उन्हें भी समझ आ गया था कि जब तक महागठबंधन नहीं बनेगा, चुनाव में जीत की कल्पना नहीं की जा सकती... और फिर प्रशांत किशोर ने एक बार कमान संभालने के बाद सीटों के बंटवारे को निपटाने से लेकर पूरा प्रचार अभियान चलाया, शायद बीजेपी उसकी काट खोज नहीं पाई.

लेकिन अगर आज मुलायम सिंह यादव के महागठबंधन के प्रति नीतीश कुमार बहुत उत्साहित नजर नहीं आते हैं, तो उसका कारण मुलायम द्वारा विधानसभा चुनाव से पहले ऐन मौके पर उन्हें धोखा देने के अलावा समाजवादी पार्टी की आतंरिक गुटबाजी भी है. नीतीश का मानना है कि जब तक समाजवादी पार्टी अपना घर ठीक नहीं करती, मात्र चुनाव के लिए हाथ मिला लेने से आपकी हालत पश्चिम बंगाल के वामपंथी दलों और कांग्रेस के बीच हुए गठबंधन जैसी हो जाएगी, जहां एक दूसरे के साथ मंच साझा करने से भी दोनों दलों के नेता कन्नी कतराते रहे.

लेकिन बिहार की तरह ही उत्तर प्रदेश में मुलायम-अखिलेश अगर बीजेपी को मात देना चाहते हैं, तो उन्हें सबसे पहले आपसी विवाद खत्म करने होंगे, या कम से कम 'अपनी ढफली, अपना राग' तो बंद करना ही होगा. उसके बाद सभी सहयोगियों को साथ रखने और साथ-साथ प्रचार करने की रणनीति बनानी होगी, क्योंकि ऊपर-ऊपर तालमेल करने से चुनाव में जीत हासिल नहीं हो सकती. लेकिन उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व और उनके चेहरे को लेकर उनके सहयोगियों या पार्टी के अंदर भी कोई विरोध नहीं है, लेकिन अखिलेश ने गठबंधन को लेकर अपने पत्ते नहीं खोले हैं, और जब तक वह कुछ नहीं बोलते या पहल करते, शायद उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में किसी महागठबंधन की उम्मीद करना बेमानी होगा, भले ही उनके लिए प्रशांत किशोर जैसे मंझे खिलाड़ी ही क्यों न जुटे हों.


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