नीतीश कुमार के गुस्से के लिए उनकी आलोचना नहीं, उनके प्रति सहानुभूति की जरूरत

नीतीश कुमार के प्रति संवेदना इसलिए रखनी चाहिए क्योंकि जिस भाजपा के सामने वे प्रधानमंत्री के मुक़ाबले में आज से चार वर्षों पूर्व तक एक बड़ा चेहरा होते आज उसी भाजपा ने उन्हें राजनीतिक रूप से पंगु बना दिया है

नीतीश कुमार के गुस्से के लिए उनकी आलोचना नहीं, उनके प्रति सहानुभूति की जरूरत

इंडिगो एयरलाइंस के स्टेशन मैनेजर रूपेश कुमार की हत्या के सम्बंध में शुक्रवार को जब सवाल पूछा गया तो नीतीश कुमार आग बबूला हो गए. उनके जवाब से साफ़ था कि आपत्ति सवाल और सवाल पूछने वाले दोनों से है. कमोबेश पत्रकारों से दूरी बनाए रखने वाले नीतीश कुमार चुनाव में अपने निराशाजनक प्रदर्शन के बाद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कृपा से मुख्यमंत्री बनने के बाद मीडिया से अपने सम्बंध फिर पुराने दिनों की तरह सामान्य रखने लगे थे.

लेकिन आखिर क्या सवाल पूछा गया कि नीतीश कुमार अपना आपा खो बैठे?
पहला सवाल था कि मुख्यमंत्री जी क्या आप सुरक्षित हैं और क्या आपके दोनो उप मुख्यमंत्री सुरक्षित हैं, क्योंकि आम लोग तो सुरक्षित नहीं, क्योंकि आपका और आपकी सरकार का अब इक़बाल नहीं रहा.

दूसरा सवाल था कि घटना हो जाने के बाद डिटेन्शन की आड़ में आप कब तक छिपते रहेंगे. आप ऐसे जघन्य अपराध ना हों उसके लिए प्रिवेंटिव स्टेप क्यों नहीं लेते? राज्य में पुलिसिंग कहां है?

इसके बाद सवाल था कि आप विधि व्यवस्था पर बैठकें करते हैं लेकिन उसमें लिए गए फ़ैसलों पर अमल क्यों नहीं होता? अगर घटना हो तो पत्रकार हो या आम आदमी किसको फ़ोन करे, क्योंकि फ़ोन तो कोई नहीं उठाता.

इन सभी सवालों का जवाब देना कोई मुश्किल नहीं था. लेकिन नीतीश कुमार, जिन्हें कहीं ना कहीं अब सवालों से दूर रहने की आदत हो गई है और अख़बारों की आलोचना की तो बिल्कुल ही नहीं, क्योंकि वहां तो उनका और देश में अब कमोबेश सभी राज्यों का फ़ॉर्मूला कि राजा की आलोचना पर विज्ञापन बंद का सिद्धांत, उन्होंने अब अपवाद नहीं बल्कि नियम बना दिया है. हालांकि नीतीश कुमार ने पिछले दो महीनों के दौरान पत्रकारों के सवालों का जवाब बहुत गर्मजोशी से देने की एक नई परंपरा की भी शुरुआत की है.

लेकिन नीतीश कुमार को क्रोध क्यों आया जिसके कारण पूरे देश में उनकी किरकिरी हो रही है. इसके लिए आपको क्रोध का एक बिल्कुल सीधा सिद्धांत समझना होगा जिसके बारे में सोशल मीडिया में एक व्यक्ति ने लिखा है- ‘जो व्यक्ति अपने मन की पीड़ा को स्पष्ट रूप से कह नहीं सकता उसी को क्रोध आता है. नीतीश जी बहुत पीड़ा में हैं उनके प्रति संवेदना रखिए.‘

सवाल है उनको क्रोध क्यों आता है और संवेदना क्यों रखी जाए. इसका एक उदाहरण उसी समय शुक्रवार को देखने को मिला जब पत्रकारों ने एक स्वर से जब ये शिकायत की कि आपके डीजीपी समेत कोई पुलिस अधिकारी अपना मोबाइल फ़ोन नहीं उठाते. नीतीश कुमार ने झेंपते हुए तुरंत सार्वजनिक रूप से डीजीपी सिंघल को नसीहत दी. अब यहां आपको नीतीश कुमार के प्रति संवेदना इसलिए रखनी होगी क्योंकि सिंघल ने उनके आदेशों को ठेंगा दिखाते हुए मोबाइल फ़ोन अपने एक स्टेनो को उठाने का ज़िम्मा दिया और जब मीडिया के सामने आए तो उन्होंने नीतीश कुमार के सारे दावों की धज्जियां उड़ाते हुए नसीहत दी कि आप वर्ष 2019 के बिहार के अपराध के आंकड़ों को हाईलाइट कीजिए जब सब तरह के अपराध बढ़े हुए थे. दरअसल उनका कहना था कि आप लोग गुप्तेश्वर पांडेय के कार्यकाल का विश्लेषण कीजिए. सिंघल भूल गए कि वो चाहे वो हों या जनता दल यूनाइटेड के सदस्य पांडेय, सब नीतीश की पसंद हैं. लेकिन नीतीश कुमार के सोलह वर्षों के कार्यकाल का यही सच है कि उनकी बात या आदेश उनके अपने नियुक्त डीजीपी भी गंभीरता से नहीं लेते.

दूसरी तरफ़ आंकड़े आप देखेंगे तो बिहार में अधिकांश अपराधों में वृद्धि हुई है. लेकिन नीतीश अपने अधिकारियों को रटा रटाया, हम देश में 23 वें स्थान पर हैं का हवाला देते हैं. लेकिन कई अपराध ऐसे हैं जहां बिहार का स्थान देश में टॉप तीन राज्यों में है. और नीतीश को ग़ुस्सा इस बात का है कि वो जो पहले अपराधियों को सजा दिलाने का हवाला देते थे अब वहां उनके कार्यकाल में प्रदर्शन ख़राब हुआ है जिसके लिए वे लालू -राबड़ी राज को ज़िम्मेदार तो नहीं ठहरा सकते. लेकिन आखिर करें तो क्या.

इसी अपराध के आंकड़ों से जुड़ी नीतीश कुमार की शराबबंदी की सबसे महत्वकांक्षी योजना है जिसे अब पूरे देश में इसलिए अधिक जाना जाता है कि कैसे एक कुशल प्रशासक ने सत्ता के नशे में अपने ख़ज़ाने के राजस्व को समानांतर आर्थिक व्यवस्था में डायवर्ट कर दिया. नीतीश की शराबबंदी से अपराधी और पुलिस वाले मालामाल हो गए उसका सबूत ख़ुद बिहार पुलिस के मुखिया, जो नीतीश कुमार गृह मंत्री होने के नाते ख़ुद हैं, वे आपको दे देंगे. शराबबंदी के शुरुआती दौर में नीतीश कुमार हर महीने अपराध के आंकड़े देते थे, जो उस समय कम हुए थे. वे कहते थे कि देखिए इसका प्रभाव. लेकिन अब वो ये बात नहीं कहते क्योंकि अब यही बढ़ा हुआ आंकड़ा उनकी शराबबंदी की पोल खोलता है. और शराबबंदी के अधिकांश मामले में शुरू के चार साल में नीतीश कुमार की सरकार को कोर्ट में इसलिए अधिकांश मामलों में मुंह की खानी पड़ी क्योंकि उनको अपने तर्कों से परास्त करने वाले कोई  और नहीं बल्कि नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल के पूर्व सहयोगी पीके शाही कोर्ट में होते थे. इसलिए आपको उनके साथ सहानुभूति रखनी चाहिए कि जिस व्यक्ति को उन्होंने महाधिवक्ता बनाया, मंत्री बनाया, वो उनके एक निर्णय के साथ पार्टी का विधान परिषद सदस्य होने के बाबजूद विरोध में खड़ा रहा.

निश्चित रूप से जो नीतीश कुमार इस बार शासन में आने के बाद छह बैठक राज्य की विधि व्यवस्था पर कर चुके हों उन्हें भी मालूम है कि अगर अपराधी शहर में उनके आवास के बगल से गुजरकर कुछ दूरी पर घटना को अंजाम देकर चला जाए तो ये सोलह साल की उनकी उपलब्धि नहीं बल्कि शासन के ऊपर एक काला धब्बा है. और उनका अपराधी बचेंगे नहीं, उन्हें सजा दिलाई जाएगी, एक पुराना डायलॉग हो गया. सच्चाई वे भी जानते हैं कि वो चाहे नवरूना कांड हो या ब्रह्मेश्वर मुखिया हत्याकांड, सबमें बिहार पुलिस की ख़ामियों के कारण आज तक मामले नहीं सुलझे. इसलिए ऐसी घटना भविष्य में ना हो, उनके पास जवाब नहीं है. इसलिए वे झुंझला जाते हैं. लेकिन आख़िर उनको या बिहार पुलिस के जवानों को पट्रोलिंग करने से किस शक्ति ने रोका है, इसका जवाब उनके पास नहीं है. यहां तक कि रूपेश हत्याकांड के बाद क्या शहर के सभी अपार्टमेंट के सीसीटीवी या सार्वजनिक स्थल पर लगे सीसीटीवी काम कर रहे हैं, इसका रियलिटी चेक ही पुलिस कर लेती तो लोगों में विश्वास होता कि सरकार सजग है.

उनके ग़ुस्से का कारण है इसी बिहार पुलिस, जिसके वे मुखिया हैं की एक चूक का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा था. साल 2013 में अब के प्रधानमंत्री और तब के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की गांधी मैदान की रैली में चूक के कारण पूरे देश में जो माहौल बना उसके कारण नीतीश कुमार की ना केवल 2014 के लोकसभा चुनाव में ऐसी दुर्गति हुई कि उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा, नौबत यहां तक आई कि राज्यसभा में दो सीटें जीतने के लिए उन्हें लालू यादव का सहारा लेना पड़ा.जब मांझी ने भाजपा के सहयोग से उनके ख़िलाफ़ विद्रोह का मोर्चा खोला तो लालू यादव का राष्ट्रपति भवन से पटना के राजभवन तक उन्हें साथ लेना पड़ा. बाद में लालू ने कम सीटें आने के बाद भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री तो बनाया लेकिन जब उनके साथ बात नहीं बनी तो 'मिट्टी में मिल जाएंगे, भाजपा के साथ कभी नहीं जाएंगे' कहने वाले नीतीश कुमार को फिर उसी नरेंद्र मोदी की शरण में जाना पड़ा जिनको वे पानी पी पी कर कोसते थे. लेकिन नीतीश कुमार के हर राजनीतिक समझौते के पीछे नीतीश कुमार की नाकामयाबी छिपी है.

नीतीश कुमार के साथ इसलिए संवेदना रखनी चाहिए क्योंकि पिछले चालीस वर्षों में वे सबसे ईमानदार मुख्यमंत्री रहे हैं. इसके अलावा उन्होंने अपने लिए कोई संपत्ति अर्जित नहीं की. भले आज उनकी राजनीतिक हैसियत एक पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनवाने की नहीं रही. भले हर वर्ष बाढ़ आने पर बिहार की आर्थिक मांगों पर प्रधानमंत्री मोदी कोई विशेष कृपा नहीं रखते. भले आज से पांच वर्ष पूर्व जहां मीडिया में उनकी बातों को घंटों दिखाया जाता था वहां आज अपने कार्यक्रम के कवरेज के लिए लोकल चैनल को विज्ञापन देना होता है. उनका दर्द है कि भाजपा समर्थित मीडिया उनकी हर कमी को दुनिया में सबसे निकम्मी सरकार के रूप में दिखाती है और जो केंद्र सरकार के प्रति विरोध में मुखर हैं उनके लिए नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से सबसे कमजोर, बिना किसी उसूल सिद्धांत के राजनेता हैं जो कुर्सी के लिए कुछ भी कर सकते हैं.

नीतीश कुमार की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि बिहार की ज़मीन पर राजनीतिक रूप से उनकी पार्टी अब राज्य में तीसरे नम्बर की पार्टी है और उनकी इस राजनीतिक बदहाली के लिए राष्ट्रीय जनता दल से अधिक उनकी सहयोगी भाजपा ज़िम्मेदार है. यह उनकी पार्टी के पराजित विधायकों का कहना है. लेकिन भाजपा कहती है कि वे इतने अलोकप्रिय हो चुके हैं कि उनके 25 उम्मीदवार तीस हज़ार वोट से अधिक के अंतर से हारे और दस से अधिक बीस हज़ार से अधिक. अगर नरेंद्र मोदी और उनका प्रचार का आक्रामक तरीक़ा ना होते तो शायद उनको बीस सीटें मिलनी मुश्किल थीं. जहां तक भाजपा के जीते हुए 74 विधायक हैं तो नीतीश कुमार बता दें कि उन्होंने दस के लिए भी प्रचार किया था क्या? लेकिन लोकतंत्र में संख्या आपकी हैसियत तय करता है और नीतीश भी जानते हैं कि भाजपा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी दी है लेकिन बड़े भाई का दर्जा उसके बदले में ले लिया है. और यही कारण है कि नीतीश अब अपने जनता दरबार के दिन का इंतज़ार कर हैं. लेकिन उनके उप मुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद का दरबार शुरू हो चुका है.

नीतीश कुमार आपा केवल पत्रकारों के सवाल पर नहीं खोते बल्कि इस बार विधानसभा चुनाव में वे अपने विरोधी तेजस्वी यादव के लिए जैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे उनके समर्थक भी माथा पकड़कर बैठे थे. और नई कैबिनेट के गठन के बाद अपनी दूसरी कैबिनेट बैठक में उन्होंने भाजपा के एक मंत्री को जैसे एक बिंदु पर डांटा था, सब हतप्रभ थे क्योंकि नीतीश कुमार का सामान्य आचरण ऐसा नहीं होता था.

इसके बाबजूद आपको नीतीश कुमार के प्रति संवेदना इसलिए रखनी चाहिए क्योंकि वे जिस भाजपा के सामने प्रधानमंत्री के मुक़ाबले में आज से चार वर्षों पूर्व तक एक बड़ा चेहरा होते थे, लेकिन आज भाजपा ने उन्हें राजनीतिक रूप से पंगु बना दिया है और अब कैबिनेट में कौन होगा और किसकी कितनी संख्या होगी इसकी चर्चा दिल्ली में नहीं बल्कि बिहार भाजपा के नेताओं के साथ कर रहे होते हैं. हर फ़ैसले के लिए उन्हें पहले भाजपा के शीर्ष नेताओं से सहमति लेनी होती है. और अगर उनके ग़ुस्से का कारण यह सच है कि जिस जीतनराम मांझी के कारण उन्हें लालू यादव के साथ हाथ मिलाना पड़ा वो उनका अब सहयोगी हैं. तो वहीं नीतीश कुमार अब आपके सहानुभूति के पात्र हैं कि जिस नरेंद्र मोदी के साथ वे बिहार के विकास के लिए गए अब उनके ऊपर उनका राजनीतिक भविष्य टिका है क्योंकि राजनीति में नीतीश अब अपनी सबसे बड़ी पूंजी ‘विश्वसनीयता ‘ खो चुके हैं.

(मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...)

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