जॉर्ज को श्रद्धांजलि और नीतीश के आंसुओं पर सवाल

जॉर्ज फर्नांडिस को श्रद्धांजलि देने के बहाने नीतीश कुमार की आलोचना कितनी सही?

जॉर्ज को श्रद्धांजलि और नीतीश के आंसुओं पर सवाल

प्रख्यात समाजवादी और पूर्व केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस का शुक्रवार को अंतिम संस्कार क्रिश्चियन विधि से किया गया. इससे पूर्व बृहस्पतिवार को उनके शव को हिंदू तरीके से अंतिम विदाई दी गई. बिहार में जहां से वे आठ बार लोकसभा के लिए चुने गए और एक बार राज्यसभा भी गए थे वहां उनकी मौत की ख़बर के बाद दो दिनों का राजकीय शोक भी रहा है. लेकिन जब से जॉर्ज साहब की मौत की ख़बर आई पूरे भारत में उनके जानने वालों को न केवल धक्का पहुंचा बल्कि उनके शुभचिंतकों में काफी मायूसी भी है. लेकिन पिछले चार दिनों के दौरान जॉर्ज साहब की अंत्येष्टि के बहाने लोगों ने अपनी अपनी भावनाएं व्यक्त की हैं. लेकिन पहली बार देखा गया कि श्रद्धांजलि देने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो कि जॉर्ज साहब के काफ़ी क़रीबी रहे हैं, की भावनाओं पर उंगलियां उठाई गईं.

जॉर्ज साहब की मौत के बाद नीतीश कुमार की एक फोटो जिसमें वे अपने पार्टी दफ़्तर में श्रद्धांजलि देने के बाद बैठे हैं, उस तस्वीर और वीडियो फ़ुटेज पर उनके विरोधियों ने छींटाकशी की. और उसका सार यही होता है कि जॉर्ज साहब के राजनीतिक जीवन के आख़िरी दिनों में नीतीश कुमार ने उनकी वह क़द्र नहीं की जिसके वे हक़दार थे. शायद नीतीश ने उनसे बदला लेने के लिए भी ऐसे क़दम उठाए जिसको न कुछ अन्य राजनीतिक तरीक़ों से भी मर्यादा का पालन करते हुए अंजाम दिया जा सकता था. लेकिन इससे पहले ये जानना ज़रूरी है कि आख़िर नीतीश और लालू और जॉर्ज साहब के संबंध क्या थे, कैसे थे और इन दोनों के बीच में जो कुछ भी दूरी बढ़ उसके लिए ज़िम्मेदार कौन था.

समाजवादी आंदोलन से जुड़े अधिकांश व्यक्तियों के रोल मॉडल डॉक्टर लोहिया के बाद बिहार की राजनीति में या तो वे कर्पूरी ठाकुर रहे या जॉर्ज फ़र्नांडिस. जॉर्ज साहब का बिहार से जुड़ाव 70 के दशक से ही रहा है. क्योंकि वे JP आंदोलन में सक्रिय थे बल्कि आपातकाल के दौरान उनकी भूमिका काफ़ी सक्रिय थी. क्योंकि वे गिरफ़्तारी से कई महीनों तक बचते रहे थे. यहां तक कि बड़ौदा डाइनामाइट मामले में भी उनके साथ साजिशकर्ताओं में उस समय पटना के ही लोगों की मुख्य भूमिका रही थी. उन्सत्तर में जब चुनाव हुआ था तब जॉर्ज भले ही तिहाड़ जेल में बंद हों लेकिन बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर से अपने फ़ोटो और सब समाजवादी आंदोलन के सहयोगियों की बदौलत रिकॉर्ड मार्जिन से जीते थे. उस समय विधानसभा चुनाव भी हुआ लेकिन तब भी उस लैंप पोस्ट इलेक्शन मैं नीतीश चुनाव हारे. फिर अस्सी में लोकसभा का चुनाव फिर से हुआ और जॉर्ज साहब मुज़फ़्फ़रपुर से जीतने में क़ामयाब रहे.

नीतीश कुमार 1985 में पहली बार विधायक बने और मात्र चार वर्षों के बाद लोकसभा पहुंचे और कुछ महीनों के बाद ही कृषि राज्यमंत्री भी बने थे. उस मंत्रिमंडल में जॉर्ज साहब रेल मंत्री कश्मीर मामलों के प्रभारी थे. लेकिन इस लोकसभा चुनाव के कुछ महीनों बाद ही बिहार में विधानसभा चुनाव हुआ और जनता दल को सरकार बनाने का मौक़ा मिला. लेकिन जब नेता के चयन का मामला हुआ तब प्रधानमंत्री वीपी सिंह के साथ जॉर्ज फ़र्नांडिस और अजीत सिंह जैसे नेता जहां राम सुंदर दास को मुख्यमंत्री बनाने का प्रयास कर रहे थे वहीं नीतीश कुमार और शरद यादव जैसे नेता उस समय के उप प्रधानमंत्री देवीलाल के समर्थन से लालू यादव को मुख्यमंत्री बनाने में सफल हो गए. कुछ महीनों के बाद वीपी सिंह की सरकार कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर ने गिरा दी और वे प्रधानमंत्री बन गए. लेकिन वह वीपी सिंह हों या जॉर्ज फ़र्नांडिस या शरद यादव, सब पुराने जनता दल में रहे हैं. इसके बाद 1991 के लोकसभा चुनाव में बिहार में भी लालू यादव का असर दिखा और ये सारे लोग एक बार फिर चुनाव जीतने में क़ामयाब रहे. लेकिन लोकसभा में जब नेता चुनने की बारी आई तो नीतीश और लालू की पसंद शरद यादव रहे.

जॉर्ज फर्नांडिस का मानना था कि लालू यादव एक उद्योगपति के प्रभाव में हैं. उन्हें लोकसभा में संसदीय दल का नेता नहीं बनाना चाहते थे इसलिए उन्होंने शरद यादव को समर्थन दिया. लेकिन लालू इस चुनाव में आए परिणाम के बाद बदल गए और उनके व्यवहार में अब एक अहंकार और अतिआत्मविश्वास आ गया था जिसका एक बड़ा कारण यह भी था कि राज्य में भाजपा के उस समय के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद वे देश में मुस्लिमों के हीरो हो गए थे. साथ ही साथ गरीबों के हक़ की बात करने के कारण वे अब उनके भी सर्वमान्य नेता थे. लालू यादव के व्यवहार से पहले से जॉर्ज फर्नांडीस नाराज़ चल रहे थे और अब नीतीश कुमार को भी इस बात का अंदाज़ा होने लगा तो उनके साथ काम करना है और अपने आत्मसम्मान की रक्षा करना, दोनों एक साथ नहीं हो सकता .

जॉर्ज और नीतीश को एक साथ लाने में लालू यादव और उनका व्यक्तिगत व्यवहार रहा. चौरानवे में जनता दल में विभाजन हुआ और जॉर्ज फ़र्नांडिस की अगुवाई में समता पार्टी का गठन हुआ. इसके बाद जॉर्ज फर्नांडिस ने बिहार में लालू के विकल्प के रूप में स्थापित करने की ठानी. उन्होंने 95 के चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा से लेकर CPIML तक के साथ चुनावी समझौता किया. हालांकि ये राजनीतिक समीकरण टांय टांय फिस्स रहा. लालू यादव को भी पहली और आखिरी बार अपने नाम और चेहरे पर बहुमत का आंकड़ा मिला. इस चुनाव से नसीहत लेते हुए जॉर्ज फ़र्नांडिस और नीतीश कुमार दोनों ने BJP के साथ समझौता करने की नीति बनाई और तुरंत इसे मूर्तरूप भी दे दिया. हालांकि उस समय के बिहार में BJP के वरिष्ठ नेता कैलाश पति मिश्र गठबंधन को लेकर बहुत ख़ुश नहीं थे, लेकिन जॉर्ज को नीतीश को मुख्यमंत्री बनाना था और इसके लिए वे किसी से भी हाथ मिलाना चाहते थे. वे इसके साथ ही साथ लालू को धूल भी चटाना चाहते थे. हालांकि 99 के लोकसभा चुनावों में जब रामविलास पासवान और शरद यादव भी साथ आए तब लालू यादव सात सीटों पर सिमट गए लेकिन अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के दौरान आपसी मनमुटाव के कारण नीतीश कुमार की सरकार मात्र 7 दिनों तक ही टिक पाई. तब तक नीतीश कुमार और जॉर्ज फ़र्नांडिस के संबंध काफ़ी मधुर रहे. किसी भी लोकसभा चुनाव में जॉर्ज साहब ने अपने संसदीय क्षेत्र में 2-3 दिन से ज़्यादा प्रचार में नहीं बिताया. उनके पूरे क्षेत्र में प्रचार से लेकिन मतदान और मतगणना के दिन तक एक एक चीज़ का जिम्मा नीतीश कुमार अपने कंधों पर उठाते थे. आप कह सकते हैं कि नीतीश एक नहीं दो लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ते थे. अगर जॉर्ज साहब को सुबह पांच बजे अख़बार पढ़ने की आदत है तो नीतीश पटना रेलवे स्टेशन के पास से सुबह साढ़े 4 बजे अख़बार लाने का ज़िम्मा भी तय कर सोते थे.

इसका दूसरा पक्ष यह भी रहा कि जॉर्ज साहब के कारण नीतीश कुमार को किसी भी चुनाव में साधन या संसाधन जुटाने का सरदर्द नहीं रहा. सारा ज़िम्मा जॉर्ज साहब के ऊपर होता था जिससे उन्होंने कभी शिकायत नहीं होने दी. लेकिन 2002 के बाद दोनों नेताओं के बीच सब कुछ सामान्य न होने की ख़बरें आने लगीं. इसका एक बड़ा कारण नीतीश कुमार के रेल मंत्री के कार्यकाल के दौरान उन्हीं की पार्टी के सांसद दिग्विजय सिंह का रेल राज्यमंत्री होना था. दिग्विजय की शिकायत थी कि नीतीश उनके पास कोई फ़ाइल नहीं आने देना चाहते और वे बार-बार जॉर्ज साहब को इसकी शिकायत करते. जॉर्ज साहब को दिग्विजय सिंह के लिए लिए एक सॉफ़्ट कॉर्नर रहा है लेकिन जैसे-जैसे 2004 का चुनाव नज़दीक आता गया जॉर्ज साहब को बार-बार इस बात का अंदेशा हो रहा था कि नीतीश शायद नहीं चाहते कि वे नालंदा से लड़ें. और हुआ भी वही. उस चुनाव में जॉर्ज एक बार फिर वापस मुज़फ़्फ़रपुर गए और नीतीश नालंदा सहित दोनों लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़े. नालंदा से जीते. कहा जाता है कि नीतीश को बाढ़ से चुनाव हारने का अंदेशा था इसलिए वे नालंदा से भी चुनाव लड़ना चाहते थे.

साल 2005 के विधानसभा चुनाव के दौरान दोनों नेताओं के बीच तनाव अपने चरम पर था. अब तक यूपीए की सरकार बन चुकी थी और परम्परागत तरीक़े से चुनाव के लिए आवश्यक संसाधन मुहैया कराने में शायद जॉर्ज साहब ने किसी प्रभाव में कसर छोड़ दी जिसके कारण नीतीश को धन पशुओं की शरण में जाना पड़ा जिससे आज तक उनका पीछा नहीं छूटा. लेकिन रिश्तों में असल खटास उस समय आई जब त्रिशंकु विधानसभा के बाद तत्कालीन रेल मंत्री लालू यादव ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सदन भंग करा दी और एक बार फिर विधानसभा चुनाव होना तय हुआ. तब तक भाजपा के दो वरिष्ठ नेताओं प्रमोद महाजन और अरुण जेटली ने तय किया कि नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का एनडीए का उम्मीदवार बनाया जाए और इसकी घोषणा कर दी. लेकिन कुछ नेताओं के प्रभाव में जॉर्ज साहब ने बयान दिया कि नेता का चयन विधायक दल करेगा. अरुण जेटली जो उनसे पुराने परिचित थे, उन्हें नीतीश के नाम पर मनाया. लेकिन नवंबर के चुनाव में जब नीतीश कुमार के नाम पर एनडीए को बहुमत मिला उस समय जॉर्ज साहब ने बहुत कम प्रचार किया .

मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश कुमार भी वो ग़लती कर बैठे जो हर इंसान सत्ता में आने पर करता है. उन्होंने जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव होना था तब पहले जॉर्ज को अध्यक्ष पद की दौड़ से अलग हटने का संदेश भिजवाया लेकिन जब वे नहीं माने तो उनके ख़िलाफ़ शरद यादव को आगे कर दिया. नीतीश के समर्थन से शरद यादव ने जॉर्ज फ़र्नांडिस को चुनाव में पराजित किया. नीतीश की ये भूल थी. लेकिन ये उनके व्यक्तित्व का एक ऐसा पहलू है कि जिन लोगों ने उन्हें संकट के समय कई बार साथ दिया, लेकिन किसी एक मौक़े पर अगर वे नीतीश के आलोचक बन जाएं तो उस व्यक्ति से बदला लेने में नीतीश किसी भी सीमा तक चले जाते हैं. इसके कारण उन्हें जगहंसाई का भी सामना करना पड़ता है.

साल 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान जॉर्ज साहब का स्वास्थ्य साथ छोड़ रहा था उसके बावजूद उनके कुछ चुनिंदा समर्थक उन्हें निर्दलीय चुनाव लड़ाने में सफल रहे लेकिन उस चुनाव में जॉर्ज साहब की ज़मानत ज़ब्त हुई. साथ साथ नीतीश कुमार की विफलता इस बात में रही कि वे अपने राजनीतिक गुरु की फ़ज़ीहत तमाशबीन बनकर देखते रहे. हालांकि जब दिल्ली में उनके घर का मामला आया तब नीतीश ने राज्यसभा में उन्हें भेजा लेकिन शायद तब तक देर हो चुकी थी. इस बात का मलाल अब नीतीश को भी होगा कि उन्होंने अपने आसपास के लोगों के प्रभाव में जॉर्ज साहब के साथ अपने रिश्तों में दूरी और संवादहीनता क्यों आने दी? जिसके कारण लोग आज उनके आंसुओं पर सवाल कर रहे हैं.

 

मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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