हरिवंश जी राजनीति में आपका इस तरह बढ़ना हम पत्रकारों को अच्छा नहीं लगता..

मुझे ये स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि हरिवंश जी का राजनीति में जाना, राज्यसभा सदस्य बनना और उप सभापति पहले टर्म में ही बन जाना, मुझे बहुत ख़ुशी नहीं हो रही...

हरिवंश जी राजनीति में आपका इस तरह बढ़ना हम पत्रकारों को अच्छा नहीं लगता..

इस शीर्षक को देखकर आप सब लोग चकित हो रहे होंगे, लेकिन मुझे ये स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि पहले हरिवंश जी का राजनीति में जाना, राज्यसभा सदस्य बनना और राज्यसभा का उप सभापति वह भी पहले टर्म में ही बन जाना, मुझे बहुत ख़ुशी नहीं हो रही. लेकिन अगर मैं उनकी राजनीतिक पारी से ख़ुश नहीं हो रहा तो आपको मेरे इस दुखित होने के कारणों को पढ़ना होगा जिसके लिए ज़िम्मेदार ख़ुद हरिवंशजी रहे हैं. 

पिछले साल बिहार के भागलपुर का सृजन घोटाला आपको याद होगा. यह घोटाला कई कारणों से जाना जाएगा. सबसे पहले यह बिहार के इन घोटालों में शुमार है जिसके बारे में मीडिया में चार-चार राष्ट्रीय अखबारों के स्थानीय संस्करण, जिसमें प्रभात ख़बर भी शामिल है, होने के बावजूद घोटाले की बू न किसी पत्रकार को लगी और न ही संपादक को. जब हम लोग रिपोर्टिंग करने पहुंचे, वहां के स्थानीय पत्रकारों से पूछा तो उन्होंने संपादक और स्थानीय प्रबंधकों की सृजन के मास्टरमाइंड के साथ अलग-अलग तस्वीरें ज़रूर उपलब्ध कराईं. यहां पर हरिवंश जी हमने आपको  और आपकी कमी को तब बहुत महसूस किया.

हरिवंश जी, आप जब तक प्रभात ख़बर के प्रधान संपादक की भूमिका में रहे हो, चाहे चारा घोटाला हो या मधु कोडा का खनन घोटाला, हमारे जैसे पत्रकारों की एक आदत हो गई थी कि रांची पहुंचे और आपसे समय लेके प्रभात खबर के दफ़्तर पहुंचे. वहां पूरे घोटाले पर आपके इंटरव्यू के साथ-साथ इस घोटाले के ऊपर प्रभात खबर की रिपोर्टिंग की पूरी फाइल मौजूद रहती थी. कभी-कभी फोटो स्टेट कॉपी भी पैकेट में गिफ़्ट में हम लोग ले जाया करते थे. प्रभात ख़बर का जो तेवर था उसके कारण दूसरे अख़बारों में भी एक दबाव होता था, जिसके कारण उस घोटाले से संबंधित कई सारी ख़बरों की क्लिपिंग मिल जाती थी. लेकिन आप राजनीति में क्या गए प्रभात ख़बर का न अब तेवर रहा और न किसी को उसके साथ प्रतिस्पर्धा करने की ज़रूरत रही.

2015 तक प्रभात खबर से जब तक आप जुड़े रहे किसी भी विवादास्पद मुद्दे पर या ख़ासकर घोटालों पर प्रभात ख़बर पत्रकारों के लिए ख़ासकर टेलिविज़न के पत्रकारों के लिए ख़बर का मुख्य स्रोत रहा. और अब जब भी कोई घोटाला होता है या कोई घटना होती है तो ना वैसा कवरेज होता है और न लोगों में ख़बरों की गहराई में जाने की ज़िद्द दिखती है. एक छोटा अख़बार राष्ट्रीय स्तर तक कैसे प्रासंगिक हो सकता है, आपने जो मिसाल क़ायम की है शायद ही उसे कोई लांघ पाए. ख़ासकर एक छोटा अख़बार बड़े अख़बारों को भी मुक़ाबला देकर चित कर सकता है, यह कोई आपसे सीखे. जब आपके अख़बार को टेकओवर करने की कोशिश और साज़िश दोनों हुईं, आपने कैसे उसे बचाया और मुक़ाबला किया, हम सब लोगों ने देखा है. हम लोगों को भी दिन याद है जब एक राष्ट्रीय अख़बार को अपना रांची संस्करण शुरू करना था और आपके नंबर टू से लेकर संपादकीय के अधिकांश लोगों को तोड़ लिया गया था तब भी आप उसी तेवर से अख़बार निकालते रहे.

हालांकि राजनीति में भी आपने अभी तक अपनी पारी जमकर और बख़ूबी निभाई है. बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव के दौरान बहुत सारे मिथक टूटे. उसमें एक बात यह भी रही कि एक क्षेत्रीय दल बिना किसी संसाधन के भी एक राष्ट्रीय पार्टी, जिसके पास संसाधन ही संसाधन हों, उसे TV के स्टूडियो से चुनाव के मैदान पर कैसे पराजित कर सकती है. चुनाव के दौरान आप में पवन वर्मा, मनोज झा और प्रशांत किशोर की टीम ने जिस तरीक़े से सोशल मीडिया और टेलिविज़न के डिबेट में जब BJP का एक बहुत ही मज़बूत भाग माना जाता था, उसमें हर दिन नई-नई रणनीति बनाकर जैसे आप लोग लड़े और जीते, उससे लगा कि शायद पत्रकारों की भी राजनीति में अब पूछ उनकी क़लम के कारण बढ़ेगी. 

लेकिन हम लोगों को आपकी राजनीतिक उन्नति से कोई तकलीफ़ नहीं बल्कि अपनी आपके ऊपर निर्भरता से कष्ट हो रहा है कि अब पत्रकारों को आपके जैसा anti establishment मिज़ाज वाला पत्रकार नहीं मिल रहा और पाठकों को सरकार की बखिया उधेड़ने वाली अख़बारों में ख़बर. इसलिए आप मेरे लेख के शीर्षक को अन्यथा नहीं लेंगे.


मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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