एक देश एक चुनाव कितना तर्कसंगत...

लोकसभा में राष्ट्रीय मुद्दे हावी होते हैं जिसमें राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होता है. मसलन लोकसभा का चुनाव देश की सुरक्षा यानी पाकिस्तान या चीन से होने वाले खतरे पर भी लड़ा जा सकता है मगर यह मुद्दा शायद दक्षिण के राज्यों पर लागू नहीं हो सकता है.

एक देश एक चुनाव कितना तर्कसंगत...

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

बीजेपी के वरिष्ठ नेता विनय विनय सहस्त्रबुद्धे एक सेमिनार का आयोजन करने जा रहे हैं जिसमें इस बात पर चर्चा होनी है कि क्या देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ कराए जा सकते हैं. इसमें सभी पार्टियों के अलावा कई बुद्धिजीवियों को बुलाया गया है. बाद में इसकी एक रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपी जाएगी. अब इस बात पर चर्चा होने लगी है कि क्या हम राष्ट्रपति प्रणाली की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं. यदि ऐसा हुआ तो हमारे संघीय प्रणाली का क्या होगा. और सबसे बड़ा सवाल है कि क्या यह संभव है. सबको पता है लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं. लोकसभा में राष्ट्रीय मुद्दे हावी होते हैं जिसमें राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होता है. मसलन लोकसभा का चुनाव देश की सुरक्षा यानी पाकिस्तान या चीन से होने वाले खतरे पर भी लड़ा जा सकता है मगर यह मुद्दा शायद दक्षिण के राज्यों पर लागू नहीं हो सकता है.

हो सकता है उत्तर के राज्यों में यह मुद्दा बन जाए. वैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहले व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने इस तरह के विचार प्रकट किए हैं. समय-समय पर कई लोग इस इस तरह का विचार प्रकट कर चुके हैं जिनमें राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी भी शामिल हैं. मगर सबसे अहम सवाल यह उठता है कि क्या हम राज्यों के अधिकार को कम कर रहे हैं या फिर हम किसी एक भावनात्मक मुद्दे को लोगों पर थोप रहे हैं.

एक थिंक टैंक आईडीएफसी ने 1999 से लेकर 2014 तक 16 बार हुए चुनावों के आंकड़ों का अध्ययन किया है. इसमें 6 राज्यों के 2600 विधानसभा की सीटों का अध्ययन किया गया है. इसमें जो नतीजे आए उसमें 77 फीसदी विधानसभा ने एक ही पार्टी को पसंद किया है. जिन राज्यों में ये सर्वे किया गया है वो हैं ओडीशा, महाराष्ट्र, कनार्टक, आन्ध्र प्रदेश, कनार्टक, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी का मानना है कि वैसे तो इस तरह का चुनाव वांछनीय है मगर संभव नहीं है.

रही खर्च कम करने की दलील तो उसके लिए खर्चों पर लगाम लगाने के लिए सख्त कानून चाहिए. कुरैशी का यह भी मानना है कि मौजूदा पद्धति में कम से कम नेताओं को काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. और सबसे बड़ी बात है कि इसमें राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दे आपस में नहीं उलझते हैं. अब बात राजनैतिक दलों की करते हैं. उन्हें लगता है कि केन्द्र राज्यों का अधिकार खत्म कर महज उसे कठपुतली बनाए रखना चाहता है. एक देश एक चुनाव की अवधारणा को कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी दल, आम आदमी पार्टी ने खारिज कर दिया है.

जाहिर है बाकी क्षेत्रीय दल भी इसका विरोध करेंगे. कई जानकार मानते हैं कि यह आइडिया तो अच्छा है मगर हमारे संविधान निर्माताओं ने अलग-अलग तरह की पद्धति की सरकारों का विस्तार से और अच्छी तरह से अध्ययन किया था और फिर अपने देश के लिए कई तरह के पार्टियों की व्यवस्था को स्वीकार किया था. यह हमारे जैसे अलग-अलग धर्मों, मान्यताओं, भाषाओं वाले देश के लिए सही व्यवस्था है और एक देश एक चुनाव दरअसल एक पार्टी शासन को ओर बढ़ाने का एक कदम मात्र है. जरूरत है चुनावी खर्च पर रोक लगाने के लिए सख्त कानून और सही चुनाव की. जैसे कि बोम्मई फैसले के बाद राज्य सरकारों को बर्खास्‍त करने पर एकदम से रोक लग गई.

(मनोरंजन भारती एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एक्जीक्यूटिव एडिटर - पॉलिटिकल, न्यूज हैं)

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