प्राइम टाइम इंट्रो : शहीदों के परिवारों को गर्व भी तो ग़म भी

प्राइम टाइम इंट्रो : शहीदों के परिवारों को गर्व भी तो ग़म भी

एक सिपाही से ही पूछा जाए कि वो कहां जा रहा है. युद्ध का उन्माद फैलाने वाले और रचने वालों से इस सवाल का जवाब नहीं मिलेगा. हम किसी सिपाही के बारे में तभी जानते हैं जब वो शहादत का प्राप्त होता है. युद्ध की अनिवार्यता और युद्ध की व्यर्थता दुनिया भर में बहस का मुद्दा है लेकिन एक सिपाही अपनी लाइन ऑफ ड्यूटी कभी क्रॉस नहीं करता है. वो वहां से भाग भी नहीं सकता. उसे मरना होता है या मार देना होता है. वो किताब नहीं पढ़ता है. वो आदेश सुनता है. महानगरों के लोग टीवी और ट्विटर पर भावुक हो रहे हैं, लेकिन मैं उन लोगों को देख भावुक हो गया, जो अपने घरों से निकल सोमवार से लेकर मंगलवार तक तमाम जगहों पर शहीदों की अंतिम यात्राओं में शामिल होते रहे. एक छोटी सी सलामी इन लोगों के लिए भी बनती है जो किसी मंत्री के आने का इंतज़ार नहीं करते बल्कि गांव या कस्बे में शहीद के घर की तरफ चल निकलते हैं. कहीं मोमबत्तियां लेकर निकल पड़ते हैं, कहीं ज़िले के अधिकारी रैली का नेतृत्व करने लगते हैं तो कहीं स्कूल के बच्चे जुलूस की शक्ल में पीछे-पीछे चलने लगते हैं. इनमें से हो सकता है कि कोई ट्विटर पर देशभक्ति के फलसफे न झाड़ रहा हो लेकिन ये वो लोग हैं जिन्होंने शहीद के पार्थिव शरीर का घंटों इंतज़ार किया होगा. एक नौजवान जब सैनिक बनता है तो अकेला बनता है लेकिन जब वो देश के लिए काम आ जाता है तो उसकी अंतिम यात्रा में वो लोग भी आ गए लगते हैं जो कभी उस सिपाही के बारे में जानते तक नहीं होंगे. हम कहां परवाह करते हैं कि हमारा सिपाही जनरल बोगी या दूसरे दर्जे में ठेल ठेल कर जगह पाता हुआ घर लौटता है. कितना अच्छे हैं न ये लोग जो अपने घर से निकले हैं किसी सिपाही को विदा करने. अलविदा कहने.

अमरीका के विदेश मंत्री जॉन कैरी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से कहा है कि वे अपनी धरती को आतंकवादियों का ठिकाना न बनने दें. कहने से क्या होता है. क्या कैरी ने कोई पहली बार ये बात कही होगी. ख़ैर. क्या हम नहीं जानना चाहेंगे कि हमारे सैनिक कहां से आते हैं. उनके गांव कैसे हैं. घर कैसे हैं. हर सैनिक का एक सपना होता है. अपने गांव का नाम रौशन करने का सपना. महानगर वाले नहीं समझ पायेंगे, एक सैनिक अपने गांव को देस ही तो कहता है. हम चंद गांवों का नाम लेने जा रहे हैं ताकि आप जान सकें कि स्मार्ट सिटी के इस दौर में मोर्चे पर लड़ने वाला पहली पंक्ति का जवान कहां से आता है.

शिबू चक, सारवा, बद्जा, मेरल, गुमला, नंदगांव, राजवा, घूरापल्ली, बोकनारी, गंगासागर, जाशी, जमुना बलिया, बलिया, गाज़ीपुर,  खडांगली, रक्तू टोला, जौनपुर, वानी. ये नाम हैं उनके गांवों के, टोलों के और कस्बों के. इनके घरों की तस्वीरों में आपको भारत का वो चेहरा दिखेगा, जिसे महफूज़ रखने और बेहतर करने की उम्मीद लिए ये नौजवान इन गावों से मोर्चे पर निकलते हैं.

उत्तर प्रदेश के संतकबीर नगर का घूरापल्ली गांव. घूरे का मतलब बताने का वक्त नहीं है ये. 34 साल के सिपाही गणेश शंकर का गांव है ये. पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस गांव में जब कैमरा प्रवेश करता है तो रास्तों का ख़ालीपन बताता है कि गांव सन्नाटे में है. अक्तूबर में जो सिपाही अपनी बहन की शादी के लिए लौटने वाला था, गांव के लोगों को उस सिपाही के अंतिम संस्कार की तैयारी में जुटना पड़ा है. तीन बच्चों के पिता गणेश ने 2003 में सेना ज्वाइन किया था. बिहार रेजिमेंट. इसी साल अगस्त में गणेश की तैनाती कश्मीर में हुई थी. फरवरी में पिता गुज़र गए थे. दो दिन बाद चाचा गुज़र गए और सात महीने बाद जवान बेटा गुज़र गया. हमारे सहयोगी आलोक ने बताया कि पांच हज़ार लोग आए थे अंतिम संस्कार में शामिल होने. आने वाले लोगों का शुक्रिया कि उन्होंने ये नहीं लगने दिया कि किसी ने जान दी तो किसी को फर्क ही नहीं पड़ा. ये पांच हज़ार लोग ही असली लोग हैं. किसी सिपाही की ताकत हैं. एक जवान को पता है कि उसकी शहादत पर ट्वीट करने वाले फिर किसी और चीज़ को ट्वीट करने में लग जाएंगे मगर उसके आसपास के गांव के लोग ज़रूर आएंगे. आए भी और भारी मन से लौटे भी होंगे. परिवार के लोगों को फर्क पड़ रहा है. उनके सामने जाने वाला का ग़म है तो आने वाले वक्त की चुनौतियां भीं.

मंगलवार को भी राजधानी दिल्ली में बैठकों का सिलसिला चल रहा है. ख़बर आ रही है कि मंगलवार को उड़ी में सेना ने आठ आतंकवादियों को मार दिया है. सूत्रों के अनुसार 15 आतंकियों के समूह ने कश्मीर के लच्छीपुरा में घुसपैठ की कोशिश की है, जिसे सेना ने नाकाम कर दिया है. इनमें से आठ से दस आतंकियों के मार दिये जाने की ख़बर है. सोमवार को डीजीएमओ ने जानकारी दी थी कि भारतीय सेना ने इस साल 17 घुसपैठ के मामलों को नाकाम किया है. इस साल अलग-अलग ऑपरेशन में 110 आतंकवादी मारे गए हैं, जिनमें से 31 को घुसपैठ करते वक्त मारा गया है. पिछली दो घुसपैठ में भी आठ आतंकवादियों को मार गिराया गया है, फिर भी पिछले तीन चार सालों की तुलना में इस साल घुसपैठ बढ़ गई है.

महाराष्ट्र के अमरावती में 26 साल के सिपाही विकास जनराव उइके को अंतिम विदाई देने हज़ारों की संख्या में लोग पहुंचे. शहीद विकास उइके ने अपने भाई से वादा किया था कि जल्दी ही अपने लिए कोई लड़की पसंद कर लेगा और एक ही मंडप में दोनों भाई शादी करेंगे. पिता कहते हैं कि उन्होंने बेटे को मना किया था कि फौज में न जाए लेकिन बेटे ने बात नहीं मानी. उसे सेना में जाने का शौक था और वो 2009 में भर्ती हो गया.

हवलदार एन एस रावत की शहादत का ख्याल उदयपुर के लोगों ने भी खूब किया. यहां से उन्हें राजसमंद के भीम ले जाया गया जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया. यह बात कैसे बताई जाए कि मंगलवार को शहीद हवलदार एन एस रावत का जन्मदिन था और उसी दिन उनका अंतिम संस्कार किया गया.

हमें नहीं मालूम कि कोई जवान गोली खाने के इस जज़्बे को कैसे अपने सीने से चिपका लेता है. वो इस जज़्बे को दिन-रात के अभ्यास से हासिल कर लेता होगा या फिर अचानक उसके दिलो दिमाग पर यह जूनून छा जाता होगा. 2014 के चुनावों के दौरान ग़ाज़ीपुर ज़िले के पास गहमर गांव गया था. यह गांव कम शहर ज्यादा लगता है लेकिन यहां के नौजवान गंगा नदी के किनारे नंगे पांव सबेरे शाम दौड़ते रहते हैं. सेना में सिपाही बनने के लिए.

शहादत को लेकर हाल फिलहाल की सरकारें संवेदनशील होती जा रही है. तुरंत आदेश जारी हो जाता है कि किस-किस स्तर के अधिकारी राजकीय सम्मान में हिस्सा लेंगे. कई बार चूक भी हो जाती है मगर अब मीडिया भी चौकन्ना रहता है. हमारे सहयोगी राजीव रंजन ने बताया कि सेना जवान के शहीद होने पर परिवार का काफी ख्याल रखती है. यह जानकारी इसलिए भी दे रहा हूं ताकि शहीद परिवारों को भी पता रहे और उनकी मुसीबत में आपको भी ध्यान रहे कि क्या-क्या किया जा सकता है. यह जानकारी इसलिए भी ज़रूरी है ताकि पता रहे कि हमारी सरकार क्या-क्या करती है. कई बार जानकारी के अभाव में लोग यह समझने लगते हैं कि सरकार कुछ नहीं करती होगी.

एक पूरा विभाग है जिसका नाम है डिपार्टमेंट ऑफ इंडियन आर्मी वेटरन. इसका एक वेब पोर्टल भी है. अगर कोई जवान आतंकवाद से मरता है तो केंद्र सरकार 10 से 20 लाख रुपये तक देती है. राज्य सरकारें अलग-अलग राशि देती हैं. बिहार ने पांच लाख रुपये देने का एलान किया था जिसे अब 11 लाख कर दिया गया है. हरियाणा और पंजाब सरकार सबसे अधिक पैसे देती हैं. सेना का एक ग्रुप इंश्योरेंस होता है जिसका 30 लाख रुपया मिलता है. इसमें हर जवान प्रीमियम भरते हैं. लिबरलाइज़ फैमिली पेंशन से सैलरी के बराबर वार विडो पेंशन मिलती है. छुट्टी का पैसा भी मिलता है. आर्मी वाइफ वेलफेयर फंड से भी पत्नी को 15 हज़ार मिलता है. जम्मू-कश्मीर सरकार भी अपनी ज़मीन पर किसी भी राज्य के शहीद होने या मरने वाले जवान को दो लाख रुपये देती है. शहीद की पत्नी को हवाई और रेल यात्रा में 50 फीसदी की रियायत है. सेना में नौकरी में आरक्षण मिलता है. पेट्रोलियम मंत्रालय एलपीजी गैस की एजेंसी और पेट्रोल पंप देने में आठ फीसदी का आरक्षण देता है. पेशेवर संस्थानों में भी एक से पांच फीसदी आरक्षण होता है. इसके अलावा और भी कई तरीके की मदद होगी जो दी जाती होगी. सेना के जिस पलटन या यूनिट की वार विडो होती है, वही यूनिट जीवन भर उसका ख्याल रखती है.

पर क्या यह काफी है. इसका जवाब हमारे पास नहीं है. शहीदों की याद में तमाम तरह की घोषणाएं की जाती हैं. कई जगहों पर पूरी होती हैं और कई जगहों पर अधूरी रह जाती हैं. कई जगहों पर लोग मिलकर उसे पूरा कर देता हैं.

उत्तराखंड का एक अच्छा सा शहर है कोटद्वार. कोटद्वार से छह किमी की दूरी पर एक गांव है घमंडपुर. इसी गांव का एक नौजवान 2003 में श्रीनगर के लाल चौक पर शहीद हो गया. बीएसएफ के असिस्टेंट कमांडेंट मुकेश बिष्ट. घमंडपुर ने अपने इस शहीद की याद को अच्छे से संजोया है. इसमें शहीद मुकेश बिष्ट की मां श्रीमति देवीश्री बिष्ट की बहुत भूमिका है, जो डिग्री कॉलेज में पोलिटिकल साइंस पढ़ाती थीं। देवीश्री बिष्ट और मुकेश के दोस्तों ने शहीद मुकेश बिष्ट स्मृति संस्था बनाई। इस संस्था ने शहीद मुकेश बिष्ट की याद में एक लाइब्रेरी बनाई है, जिसके लिए ज़मीन मुकेश की मां ने ही दी. उत्तराखंड सरकार ने भवन निर्माण के लिए कुछ मदद दी मगर लोगों ने अपना भी जोड़ा और मुकेश बिष्ट लाइब्रेरी पूरी तरह तैयार है. इस लाइब्रेरी में गांव की किसी कमज़ोर लड़की को लाइब्रेरियन का काम दिया जाता है ताकि वो पढ़ाई भी कर सके और अपनी आर्थिक स्थिति का सामना भी. सुबह शाम खुलने वाली इस लाइब्रेरी में परीक्षा की तैयारी करने वाले नौजवानों का तांता लगा रहता है. नौकरी से रिटायर होने के बाद कर्मचारी और फौजी यहां पढ़ने आते हैं.

यही नहीं शहीद मुकेश बिष्ट स्मृति संस्था ने फुटबॉल की प्रतियोगिता भी शुरू की. मुकेश बिष्ट फुटबॉल के खिलाड़ी थे. उनकी याद में बारह साल से यह प्रतियोगिता हो रही है और अब इसने उत्तराखंड में अच्छी खासी प्रतिष्ठा हासिल कर ली है. दिसंबर के अंत और जनवरी के शुरू में होने वाली इस प्रतियोगिता में उत्तराखंड की आठ टीमें हिस्सा लेती हैं. बी एच ई एल के फुटबॉल मैदान और शादी के हॉल किराये पर लेकर खिलाड़ियों को ठहराया गया. पहले 10,000 की इनाम राशि थी जो अब तीस हज़ार की हो गई है. फाइनल मैच में आठ दस हज़ार की भीड़ जुट जाती है. इसके कारण कोटद्वार के आसपास फुटबॉल लोकप्रिय हो गया है. आयोजकों को अब इंटर लेवल पर प्रतियोगिता का आयोजन करना पड़ रहा है जिसमें 30 से 32 टीमें हिस्सा लेने के लिए आवेदन करती हैं. इसी के साथ मुकेश जिस स्कूल में पढ़ते थे वहां के मेधावी बच्चों को उनकी मां छात्रवृत्ति भी देती हैं. मुकेश का एक छोटा भाई भी था जो पिछले साल पीलिया का शिकार हो गया. पिता नहीं थे, मां अब अकेली हैं. फिर भी मुकेश की स्मृति को बनाये रखने के लिए काफी सक्रिय रहती हैं. मुकेश ने लालचौक पर जैश-ए-मोहम्मद के एक आतंकी को भांप लिया था. पीछा किया और धर दबोचा. आतंकवादी ने गोली तो मार दी, लेकिन वो भाग नहीं सका. मार दिया गया. बाद में पता चला कि वो आतंकवादी गाज़ीबाबा का साथी था.

हरियाणा के कैथल ज़िले का एक गांव है पबनावा. यहां के लोगों ने अपने गांव के शहीद की याद में रेलवे स्टेशन का प्लेटफार्म ही बनवा दिया. कैप्टन जसमहिन्दर 1965 में शहीद हुए थे. उनके नाम पर रेलवे स्टेशन तो बन गया मगर उसका प्लेटफार्म कच्चा ही रह गया. गांव वालों को यह बात बर्दाश्त नहीं हुई कि शहीद की याद में बने रेलवे स्टेशन का ये हाल है. रेलवे से गुहार लगाते लगाते थक गए तो सारे लोग एकजुट हो गए. 2015 में 20 हज़ार की आबादी वाले इस गांव ने चंदा एकत्र किया और खुद ही प्लेटफार्म बनवा दिया. साढ़े सात सौ फुट लंबा यह प्लेटफार्म बिल्कुल पक्का है. स्टेशन की चारदिवारी भी लोगों ने बना दी है. वाटर कूलर लगा दिया है. जसमहिन्दर 1965 के भारत पाक युद्ध में शहीद हुए थे.

पचास साल तक सरकारों को याद नहीं आया लेकिन लोग अपने शहीद को नहीं भूले. उन्हें इस बात की तकलीफ होती रही कि शहीद के नाम पर स्टेशन तो बना दिया है मगर ठीक से नहीं बना है. खबरों के मुताबिक लोगों ने अपनी जेब से 10 लाख रुपए खर्च कर दिए हैं. इस स्टेशन पर जयपुर चंडीगढ़ इंटरसिटी के रुकने की मांग भी हो रही है. हरियाणा के जींद ज़िले के बधाना गांव के कैप्टन पवन कुमार खटकड़ 20 फरवरी 2016 को शहीद हो गए थे. पिता ने सबके सामने कहा था कि मेरा एक ही बेटा है जिसे मैंने देश को सौंप दिया है. पिता ने बहुत शान से खुद को संभालते हुए बेटे को अंतिम विदाई दी. लेकिन पिता का दिल छह महीने में ही टूट गया. उनका कहना है कि सरकार भूल गई. शहीद पवन के पिता राजवीर सिंह और उनकी पत्नी सरकारी स्कूल में टीचर हैं. दोनों अलग-अलग स्कूलों में पढ़ाते हैं. पिता ने कहा कि बेटे की मौत के बाद पत्नी बीमार रहने लगीं तो अपने तबादले की गुज़ारिश की. इसके लिए मुख्यमंत्री से भी मिला लेकिन आश्वासन, आश्वासन ही रहा. 4 महीने हो गए मगर तबादला नहीं हुआ है. बेटे की याद में शैक्षणिक संस्थान खोलने के लिए गांव वाले 100 एकड़ ज़मीन देने के लिए राज़ी हो गए थे मगर सरकार ने कुछ नहीं किया. केंद्रीय मंत्री चौधरी वीरेंद्र सिंह कहते हैं कि सरकार जल्दी ही इस मामले में कुछ करेगी. दस दिन पहले जींद के रणबीर सिंह विश्वविद्यालय में कैप्टन पवन कुमार खटकड़ की प्रतिमा का अनावरण हुआ तब सेना के बड़े अधिकारी से लेकर मुख्यमंत्री के ओसडी तक आए थे. गांव के लोग भी शामिल हुए थे.

महाराष्ट्र के नाशिक से 65 किमी दूर शहीद शंकर शिंदे का भयाले गांव है. इस गांव तक जाने के लिए अच्छी सड़क नहीं है. इस गांव के 80 जवान सेना में शामिल हैं. तब ये हाल है. शंकर शिंदे की शहादत के आठ महीने बाद भी हालात में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है. शंकर शिंदे जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा में शहीद हुए थे. शहीद शंकर शिंदे का घर बहुत ही मामूली है. आज भी शहीद के घर में मिट्टी के चूल्हे में खाना पकता है. आप इनके घर की हालत से उस हिन्दुस्तान को देख सकते हैं जहां से हमारे जवान आते हैं. परिवार के लोगों की शिकायत है कि जो भी वादा किया गया ज्यादातर पूरा नहीं किया गया. घर भी देने का वादा किया था घर भी नहीं मिला. यही नहीं शंकर शिंदे की खेती की ज़मीन बांध बनाने के क्षेत्र में चली गई है. परिवार के लोग सरकार से अपील करते हैं कि सरकार खेती की दूसरी ज़मीन दे दे. शहीद शंकर शिंदे के पीछे उनकी एक बेटी है. एक बेटा है. पत्नी और दो भाई हैं. मां और पिता भी हैं. शहीद शंकर शिंदे का परिवार मज़दूरी करके गुज़ारा करता है.

हेमराज की शहादत का अब तीन साल से ज्यादा वक्त हो चला है. जब भी पाकिस्तान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की बात होती है हेमराज का ज़िक्र आ जाता है क्योंकि इस घटना ने लोगों को हिला कर रख दिया था. हेमराज के गांव तमाम नेताओं का दौरा हुआ था. तमाम तरह के वादे हुए थे. हमने सोचा कि जिस हेमराज की चर्चा बात-बात में होती है, उनके गांव मथुरा के शेरनगर जाकर देखा जाए कि क्या हालत है. हमारे सहयोगी मुकुल वहां गए, ताकि आपको यह पता होना चाहिए कि शहादत के भावुक मौके पर जो कहा जाता है उन पर कितना अमल होता है. गांव के लोगों ने बताया कि एक सड़क बनाने का वादा किया गया, बनी मगर टूट भी गई.


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