मोदी जी 'उनसे' भी बड़े देशद्रोही तो 'ये' हैं...

मोदी जी 'उनसे' भी बड़े देशद्रोही तो 'ये' हैं...

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

नई दिल्ली:

आज फिर वही कहानी। लाल बत्ती पर रुकने वाली मेरी कार इकलौती थी। मेरे दाएं और बाएं से गाड़ियां फर्राटे के साथ मुझे और लाल बत्ती को मुंह चिढ़ा कर भागी जा रही थीं। रिवर्स व्यू मिरर पर नज़र बराबर टिकाए हुए था। कहीं पीछे से आकर कोई तेज़ गाड़ी मुझे उड़ा न दे। रेड लाइट पर ठहरने पर सबसे बड़ा डर तो यही होता है।

कहानी देश के किसी भी शहर की हो सकती है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का एक शहर है नोएडा। नया शहर है। 17 अप्रैल 1976 को वजूद में आया। आपातकाल के दौरान जब संजय गांधी ने शहरीकरण पर ज़ोर दिया तब उत्तर प्रदेश इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एक्ट के तहत ये शहर बना। कम ही लोग जानते होंगे कि नोएडा- न्यू ओखला डेवलपमेंट ऑथरिटी का शॉर्ट फ़ॉर्म है। करीब दो दशक तक यहां ज़्यादा विकास नहीं हो पाया। दिल्ली के लोगों को ये दूर लगता। दूसरा ये भी था कि उत्तर प्रदेश कौन जाएगा। न कानून और न ही कोई व्यवस्था। पीवी नरसिंह राव की सरकार ने 90 के दशक में उदारीकरण नीति की शुरुआत की और भारतीय बाज़ार को खोला तब नोएडा की किस्मत के दरवाजे भी खुलने लगे। मैं 1995 में यहां पहली बार आया तब भी शहर वीराना ही था। आज का पॉश सेक्टर-18 भी बना नहीं था। सड़कें खाली और बाज़ार सूने पड़े रहते थे। लेकिन एक दशक में सब कुछ बदल गया। एक सपने की तरह। मानो फ्लैश बैक से फ़िल्म यकायक सीधे वर्तमान में आ गयी हो।

आज नोएडा देश के सबसे तेज़ी से विकसित हो रहे शहरों में से एक है। स्मार्ट सिटी के कॉन्सेप्ट के आने के पहले से स्मार्ट है। प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में नोएडा सबसे आगे है। नोएडा ऑथरिटी देश का सबसे अमीर नगर निकाय है। देश की राजधानी से सटे होने के कारण शहर बनता और बढ़ता गया। देश के कोने-कोने से आकर लोगों ने यहां रोजगार ढूंढे और फिर ठिकाना बनाया। 'लघु से बड़े' और 'बड़े से थोड़े छोटे' किस्म के उद्योग पनपने शुरू हुए। मध्यम किस्म के कारोबरियों का शहर बनता इसके पहले ही ड्रैगन दुनिया पर छाने लगा। जल्दी ही चीन के कारण यहां के उद्योग धंधे चौपट होने लगे। मगर शहर को परेशान नहीं होना पड़ा। अब नोएडा ने आईटी यानी सूचना और प्रौद्योगिकी का हाथ थाम लिया। आज हर कोई इस शहर में रहने के लिए रश्क करता है। यहां करीब साढ़े 6 लाख लोग रह रहे हैं। ज्यादातर आबादी युवा है। पढ़ी-लिखी भी। लेकिन देश के एक सर्वश्रेष्ठ शहर में रहने, पढ़े-लिखे होने, अच्छा कमाने और गेटेड कम्यूनिटी में रहने का मतलब ये नहीं हो गया कि लोग सभ्य भी हैं। 'लिट्रेट' ज़रूर हैं लेकिन 'एज़ूकेटेड' भी हैं ये जरूरी नहीं।

"पापा, ग्रीन लाइट हो गई। चलो भी।,"
बेटे के बोलने से विचारों की तन्मयता भंग हुई।
"पापा, ये लोग रेड लाइट पर रुकते क्यों नहीं? मैम तो कहती हैं कि रेड लाइट का मतलब है स्टॉप।"
"देशद्रोही हैं रस्साले!"
"हां, पापा...ये क्या....गाली!!!"
पता नहीं बच्चों के सामने ये कैसे बोल गया। "देशद्रोही" शब्द तो आजकल जुबां पर चढ़ा ही हुआ है, लहजे में तल्ख़ी और कड़वाहट शायद टेलीविजन पर संसद में बहस देखकर आ गयी हो जहां हर कोई एक दूसरे को ललकार रहा होता है।

रात के सोने के समय एक बार फिर विचार मन में बादलों की तरह उमड़ने-घुमड़ने लगे। गलत क्या कहा था? देशद्रोही ही तो हैं वे लोग जो देश के कानून को नहीं मानते। सड़कों पर चलने के लिए नियम तो देश की संसद ने ही बनाए हैं न? फिर ट्रैफिक नियमों की धज्जियां उड़ाना देश के संविधान का अपमान नहीं है? क्या आप जानते हैं कि देश के जितने सैनिक हर साल सीमा पर शहीद होते हैं उससे कहीं ज़्यादा सिपाही सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं। हर साल सड़कों पर 300 सैनिक मर रहे हैं जबकि आतंकवाद विरोधी अभियानों और सीमा पर शहीद होने वाले सैनिकों की औसत संख्या अब 50 से भी कम रह गयी है। 2014 में करीब 5 लाख आम नागरिक सड़क हादसे में मारे गए। यानी हर घंटे 16 मौतें। इनमें से आधे 15 से 34 साल के बीच के थे।

14 जनवरी 2016 को कोलकाता में गणतंत्र दिवस परेड का अभ्यास चल रहा होता है। सत्ताधारी पार्टी के एक नेता का बिगड़ैल शहजादा वायुसेना के 21 साल के एक नौजवान कॉरपोरल अभिमन्यु गौड़ पर नशे में अपनी ऑडी चढ़ा कर कुचल देता है। आपके एक सैन्य अधिकारी को सरेआम सड़क पर, ड्यूटी पर कोई कुचल देता है, उससे बड़ा "देशद्रोही" कौन है! देश की राजधानी के दिल लुटियन दिल्ली में मंत्री बनने के कुछ ही दिन के अंदर एक मशहूर और होनहार नेता गोपीनाथ मुंडे की सड़क हादसे में मौत हो जाती है, इससे दुखद और अफसोसजनक बात क्या हो सकती है।

कुछ साल पहले क्रिकेट सीरीज़ को कवर करने के लिए सिडनी में था। रात में खाने के बाद हम होटल लौट रहे थे। अचानक एक फ़्लैश चमका। पता चला किसी ने लाल बत्ती लांघी थी। ऑटोमैटिक कैमरे ने उसकी ये हरकत कैद कर ली। बताया गया कि दूसरे दिन घर पर उसका चालान पहुंच जाएगा। गोपीनाथ मुंडे की मौत के बाद ऐसी व्यवस्था लागू करने के जोरशोर से वादे किए गए थे। लेकिन हुआ क्या? देश अनुशासित नहीं है साहब। जब तक सड़क पर अनुशासन नहीं लागू किया जाता, देश में अनुशासन नहीं आएगा। जब तक देश अनुशासित नहीं होगा क्या खाक तरक्की करेगा। अनुशासन की शुरुआत सड़क से ही होनी चाहिए। अगर सड़क पर अनुशासन लागू कर दिया गया तो देश की बहुत सी समस्याएं खुद-ब-खुद सुधर जाएंगी। ये अनुशासन आएगा ज़बरदस्ती करने से। बलजोरी से। लातों के भूत न कभी बात माने थे और न मानेंगे। अगर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ये सोच रहे हैं कि सम-विषम या ऑड-ईवन का फ़ॉर्मूला लोगों ने स्वत: लागू कर लिया तो वे मूर्खों की दुनिया में रहते हैं। ये सफल हुआ तो 2000 रुपये चालान की वजह से। ज़ाहिर है अगर देश में ट्रैफ़िक कानून लागू करने हैं तो सख्त कदम उठाने होंगे। क्यों नहीं चालान काटने वाले ट्रैफ़िक पुलिस को चालान की आधी राशि दे दी जाए ताकि वो रिश्वत नहीं ले, चालान काटे। सबसे ज़्यादा चालान काटने वालो को तरक्की भी मिले। इससे रिश्वतखोरी कम हो सकती है। आखिर एक समय सोने की तस्करी की सूचना देने वालों को जब्त माल की कीमत का कुछ हिस्सा बतौर इनाम दिया ही जाता था।

भारतीय उपमहाद्वीप में भी ट्रैफ़िक के मामले में हम सबसे पिछड़े हुए हैं सिवाय शायद बांग्लादेश के। श्रीलंका में ज़्यादातर सड़कों पर पर डिवाइडर तक नहीं हैं। सड़क पर बस पेंट से लकीर खिंच दी जाती है। मजाल है कि कोई लाइन पार कर आने वाली लेन में चला जाए। चीन ने श्रीलंका में सड़कों का जाल बिछा दिया है। और तो छोड़िए पाकिस्तान में स्थिति बेहतर है। साल 2006 में भारत-पाकिस्तान सीरीज़ को कवर करने के लिए मैं पाकिस्तान गया था। एक रात हम सड़क के रास्ते इस्लामाबाद से लाहौर जा रहे थे। वर्ल्ड बैंक की मदद से बने 367 किलोमीटर के पाकिस्तान मोटरवे नेटवर्क का नाम है एम-2। इस पर पाकिस्तानी वायुसेना ने कई बार अपने फ़ाइटर प्लेन भी उतारे हैं। भारत में भी यमुना एक्सप्रेस वे पर ये प्रयोग हो चुका है।

बहरहाल हम बात कर रहे थे अनुशासन की। रात में भी हमारा ड्राइवर सिर्फ़ ओवरटेक करने के लिए सबसे दाहिने लेन में जाता था। ओवरटेक करते ही वापस आ जाता था। मैने ड्राइवर से कहा रात को कौन देख रहा है। उसने बोला हर जगह कैमरे लगे हुए हैं। बड़ी हैरानी हुई। पाकिस्तान में कम-से-कम एक्सप्रेसवे पर तो ट्रैफ़िक के नियम का पालन हो ही रहा था। भारत में हाइवे पर ओवरटेक वाली लेन में सबसे भारी वाहन ट्रक चल रहे होते हैं। ये समूचे उत्तर भारत में होता है। दक्षिण भारत के बारे में ज्यादा जानतकारी नहीं है।

अपने देश में दिक्कत सिस्टम को लागू करने की भी है। अब देखिए बड़े तामझाम के साथ 25 किलोमीटर लंबे नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेसवे पर ITMS यानी इंटेलिजेंट ट्रैफ़िक मैनेजमेंट सिस्टम लगाया गया। इसे 30 करोड़ में ऑस्ट्रिया की एक कंपनी ने लगाया। कहा गया कि ITMS के जरिए कंट्रोल रूम से ट्रैफ़िक नियम तोड़ने वाली गाड़ियों पर नज़र रखी जाएगी। साथ ही ई-चालान सीधे घर में भेज दिए जाएंगे। ITMS के कैमरे गाड़ी के नंबर प्लेट से ड्राइवर का फ़ोटो तक कैद करने में सक्षम हैं। लेकिन अफसोस की इस सिस्टम को अभी तक पूरी तरह लागू ही नहीं किया जा सका है। चालान घर तक पहुंच ही नहीं रहे हैं। गाड़ियां आज भी बेतरतीब ढंग से लेन बदलती हैं। सौ से ज़्यादा रफ़्तार से कारों का भागना बदस्तूर जारी है।

संसद में चीखने से ज़्यादा ज़रूरी है सड़क हादसे में मर रहे लोगों की चीखें सुनना। मन की बात से भी अहम है, मौत को रोकना। याद रखिए ये मसला आतंकवाद से भी ज़्यादा जाने ले रहा है। विश्वविद्यालयों में झंडा फहराने के फरमान पर अमल होने के पहले देश को अनुशासित करने की ज़रुरत है। किसी हस्ती ने हाल ही में कहा था कि उत्तर भारत के लोगों में ट्रैफ़िक को लेकर 'ऐटीट्यूड प्रॉब्लम' है। लोगों के रवैए में एक प्रकार की 'ऐंठन' है। ट्रैफ़िक सिग्नल पर रुकना मानो शान के ख़िलाफ़ है। इस दबंगई को रोकिए। ये भी एक किस्म का देशद्रोह है। देशद्रोही तो वो कॉरपोरेट भी हैं जो राष्ट्रीय बैंको का 4,43,691 करोड़ रुपया डकार गए हैं। दूसरी तरफ एक किसान चंद हजार रुपये के कर्ज के बोझ के तले आत्महत्या करने पर मजबूर है। इस पर चर्चा फिर कभी।

संजय किशोर एनडीटीवी के खेल विभाग में एसोसिएट एडिटर हैं...

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