बिल्कुल सही समय पर आया है मोदी का 'मास्टरस्ट्रोक', लेकिन बुनियादी रूप से गड़बड़ है

बिल्कुल सही समय पर आया है मोदी का 'मास्टरस्ट्रोक', लेकिन बुनियादी रूप से गड़बड़ है

मंगलवार मध्यरात्रि से 500 तथा 1,000 रुपये के नोटों के इस्तेमाल को खत्म कर देने के भारत सरकार के फैसले ने पूरे देश को हैरान कर दिया. यह घोषणा ऐसे समय की गई, शायद सोच-समझकर, जब अमेरिका में राष्ट्रपति पद पर डोनाल्ड ट्रंप की जीत का झटका दुनिया को लगा. सोशल मीडिया पर मौजूद 'भक्तों' की बातचीत बहुत तेज़ी से ट्रंप के नेतृत्व में चलने जा रहे अमेरिका की ओर से दुनिया के सामने पेश आने वाले खतरे की बजाय 'काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक' के रूप में विमुद्रीकरण की तारीफ करने की तरफ घूम गई. दोनों घटनाओं में समानताएं चौंकाने वाली हैं. अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत की संभावनाएं नहीं बताई जा रही थीं, और ऐसा संभवतः इसलिए हुआ, क्योंकि वोटरों ने अपनी मंशा उजागर नहीं की थी. ठीक इसी तरह, भारतीय उद्योगजगत, जिसके 1,000 रुपये का नोट के बंद होने से सबसे ज़्यादा प्रभावित होने की संभावना है, इस 'मास्टरस्ट्रोक' की तारीफ करने में सबसे आगे नज़र आ रहा है.

(नोटबंदी : जन-धन खातों से आ सकती है काले धन के बाग में बहार)

आम आदमी की परेशानियों के हवाले से बात करने वाले कुछ कांग्रेस नेताओं तथा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को इस कदम का असली उद्देश्य बताने वाले क्षेत्रीय दिग्गजों को छोड़ दें, तो 'पॉलिटिकली करेक्ट' बातें कहने वाले ज़्यादातर राजनेताओं ने सरकार के इस कदम का समर्थन किया है, जिसके लिए सरकार का दावा है कि इससे देश में ही मौजूद काले धन की समस्या से निपटा जा सकेगा. विडम्बना यह है कि दोनों ही आरोपों में शायद कुछ तो सच्चाई मौजूद है. काले धन के खिलाफ उठाए गए कदम के रूप में इसकी उपयोगिता पर सवाल उठाना शर्तिया मुश्किल है, खासतौर से 'अल्ट्रा-देशभक्ति' के इस युग में, लेकिन एनडीए इस बात से संतुष्टि तो महसूस करेगा ही कि यूपी चुनाव के लिए जुटाए गए फंड का बड़ा हिस्सा रातोंरात खत्म हो गया.

इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि सरकार के इस कदम से मध्यम वर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से को अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नगदी की, खासतौर से छुट्टे रुपयों की किल्लत झेलनी पड़ रही है. और मूलतः नगदी पर ही आधारित ग्रामीण कृषि पर पड़ने वाले इसके असर को तो नकारा जा ही नहीं सकता. नवंबर में ही 20 'शुभ तारीखों' पर होने वाली 45,000 शादियों का क्या होगा...? एटीएम और जौहरियों की दुकानों के सामने लगी लम्बी-लम्बी कतारें संसाधनों की किल्लत से जूझ रहे सोवियत काल के समाजवाद की यादें ताज़ा कर रही हैं. तकनीक से अंजान मेरी मां बिना किसी पैसे के मुंबई में फंस गईं, यानी ऐसे पैसे के बिना, जिसे वह कानूनन इस्तेमाल कर पातीं. बहरहाल, जिन युवाओं से मैंने बात की, ज़्यादातर इस कदम से काफी उत्साहित नज़र आए. उन्हें वास्तव में लगता है कि इस कदम से काले धन पर लगाम लग सकेगी.

ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी एक बार फिर रईस तथा भ्रष्ट (जी हां, भारतीय जनता के दिमाग में ये दोनों पर्यायवाची हैं) लोगों के खिलाफ जनता के मूड और गुस्से को भांपने में कामयाब रहे. इससे उनके 'सर्जिकल स्ट्राइक' के लिए बिल्कुल सटीक वातावरण तैयार हुआ. अगर हालिया सालों में बनी रही आर्थिक दिक्कतों का ध्यान करें, तो ऐसा महसूस होता है कि प्रधानमंत्री ने किसी भी मुद्दे व फैसले की राजनैतिक पैकेजिंग करने और सही समय का अंदाज़ा लगाने में महारत हासिल कर ली है. लेकिन मीडिया में दिख रहे उल्लास की चकाचौंध में असली सवाल पीछे छूट गया है कि क्या इससे काले धन पर अंकुश लगाने में वास्तव में सहायता मिल पाएगी.

इसमें कतई कोई संदेह नहीं है कि बड़ी रकम की मुद्रा को खत्म करने से कम से कम एक बार सलीके से 'सफाई' हो जाती है. '70 के दशक की बॉलीवुड फिल्मों में दिखाया जाता था कि काले धन को गद्दों के नीचे छिपाकर रखने वाले कुटिल सूदखोर महाजन और भ्रष्ट बाबू आखिरकार कड़ी कानूनी कार्रवाई का शिकार हो जाते हैं, और फिल्म के अंत में उनकी काली कमाई की चिता जलती दिखती थी... बहरहाल, मुझे डर है कि सरकार के इस फैसले से जल्द ही उन्हीं फिल्मों के सीक्वेल बनने का अवसर पैदा हो सकता है और कुछ ही वक्त में वही खलनायक उन्हीं गद्दों के नीचे नए छपे 2,000 रुपये के नोट छिपाकर रख देगा. दुर्भाग्य यह है कि अपनी मुद्रा की स्थिरता को खतरे में डाले बिना यह 'सफाई अभियान' हम हर साल नहीं चला सकते.

जब तक नगदी जमा करने और उसके इस्तेमाल के रास्ते खुले रहेंगे, काले धन पर वास्तविक रूप से अंकुश लग पाने की संभावना कम है. यह याद करना होगा कि वर्ष 1978 में मोरारजी देसाई सरकार द्वारा उठाए गए इसी तरह के कदम से कोई खास लाभ नहीं मिल पाया था. लगभग 40 साल बीत चुके हैं, और आज हमारी व्यवस्था में संभवतः पुराने समय की तुलना में ज़्यादा काला धन है. अगर कुछ बदला है, तो वह नगदी जमा करने के तरीके और वजहें.

अब हमारे पास भले ही 100 प्रतिशत का असामान्य टैक्स स्लैब नहीं है, जो '70 के दशक में हुआ करता था, लेकिन अब हमारे पास पूरी तरह विकसित हो चुकी नगदी की अर्थव्यवस्था है, जिसके बिना ज़मीन-जायदाद खरीदना तो असंभव ही हो जाएगा. राजनैतिक दल चुनाव कैसे लड़ पाएंगे या हमारे देश के बाबू रिटायरमेंट के बाद के लाभ कैसे हासिल कर पाएंगे, अगर नोटों से भरे बोरों का अस्तित्व न हो...? और उन टैक्स कलेक्टरों की तो बात ही न करें, जिनकी 'सेवाओं' के बदले पांच से 10 फीसदी का रेट तय हो गया लगता है. अब विमुद्रीकरण से 'काले धन' की इन तिजोरियों पर कड़ी चोट पड़ने वाली थी, अगर रातोंरात एक नया 'शानदार' उद्योग पैदा न हो गया होता - जिसके तहत 20 फीसदी की फीस लेकर पुराने नोटों के बदले नए नोट दिए जाने की पेशकश की जा रही है. हम देश में मौजूद उस मनी-लॉन्डरिंग सेक्टर को भूल जाते हैं, जो अनगिनत गुमनाम शेल कंपनियों में छोटी-छोटी रकमें जमा रखता है, और मरणासन्न अवस्था में पहुंच चुके इस सेक्टर को सरकार के इस फैसले की बदौलत एक बोनस हासिल हो गया है.

इस सच्चाई को सभी ने कबूल किया है कि यह एक साहसिक कदम है, लेकिन काले धन पर इसका कोई दूरगामी प्रभाव हो पाएगा, इसमें संदेह है. नए नोटों के अच्छी तरह प्रचलन में आने तक आने वाले कुछ महीनों में कारोबार के काफी सिकुड़ जाने की आशंका है, सो, राज्य विधानसभा चुनावों से ऐन पहले ऐसा कदम उठाया जाना किसी भी राजनैतिक मानक से खतरनाक हो सकता है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह खतरा सोच-समझकर, नाप-तौलकर उठाया गया है, जिसका एक मकसद विपक्षी पार्टियो के चुनावी फंड को तबाह कर देना भी है. बहरहाल, जब तक नगदी की मांग बनी रहेगी, और उसे इस्तेमाल किया जा सकेगा, इसका इस्तेमाल होता ही रहेगा.

...तो हम काले धन की 'उपज' को रोकने और रिश्वतखोरी पर लगाम लगाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे हैं...? हम निर्माण के क्षेत्र में ज़्यादा खर्च दिखाने और बड़े-बड़े व्यापारों में किए जाने वाले आयात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने पर ज़्यादा कड़े कदम क्यों नहीं उठाते, ताकि लाखों-करोड़ों रुपये विदेशों में छिपाए न रखें जा सकें. अगर सरकार भारतीय बैंकों के नॉन-परफॉरमिंग एसेट (एनपीए) की जांच करे, और सचमुच फॉरेन्सिक सबूतों पर कार्रवाई करे, तो शायद ज़्यादा अहम नतीजे सामने आएंगे. हमने ज़मीन-जायदाद के क्षेत्र में बोली लगाने के लिए एक पारदर्शी व्यवस्था की स्थापना क्यों नहीं की, जैसा पश्चिमी देशों में होता है, बल्कि हमने तो ग्राहकों को दलालों और बिचौलियों के रहमोकरम पर छोड़ा हुआ है. नगदी के लेन-देन को खत्म कर देने की जगह हमने एक नियामक लाने का फैसला किया, जिसके आदेशों की पालना होने में सालों का वक्त लगना तय है, क्योंकि न्यायिक व्यवस्था पहले से ही ज़रूरत से ज़्यादा केसों के दबाव में है. सोने तथा जेवरों के प्रति भारतीयों की दीवानगी से सारी दुनिया परिचित है, लेकिन आज तक हम उसके निर्माण तथा बिक्री की जांच के लिए बेहतर व्यवस्था नहीं बना पाए हैं.

अंत में, सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि उस पारदर्शी वातावरण में हमारी राजनैतिक व्यवस्था कैसे टिकी रह सकेगी, जहां वोट तो आम आदमी के नाम पर तैयार किए जाते हैं, लेकिन कंपनियों तथा लॉबियों से मिलने वाले राजनैतिक चंदे जिसके सिद्धांतों के खिलाफ हैं.

यह आलेख मूल रूप से अंग्रेज़ी भाषा में लिखे गए आलेख का अनूदित रूप है... मूल आलेख को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें...

(कलिकेश नारायण सिंह देव ओडिशा के बोलनगीर से दूसरी बार सांसद हैं, तथा बीजू जनता दल के जाने-माने नेता हैं...)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं. इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता. इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी.


Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com