बजट में सपने दिखाने पर ज्यादा जोर

बजट में सपने दिखाने पर ज्यादा जोर

लोकसभा में बजट भाषण देते वित्त मंत्री अरुण जेटली

'कल हमारा इम्तिहान है, जिसे सवा सौ करोड़ देशवासी लेंगे'। बजट की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कह कर शायद संकेत दे दिया था कि इस बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली से अधिक उनकी छाप दिखेगी। यही नहीं, उन्होंने लगातार कई किसान रैलियां करके भी लगभग यह जाहिर कर दिया था कि इस बार के बजट में किसानों और गरीबों की बात ज्यादा होगी, गांवों के लिए सपने भी होंगे। गरीबों और निम्नवर्गों को सहूलियत की बात होगी और अमीरों तथा कॉरपोरेट जगत को फिलहाल थोड़ा इंतजार ही नहीं करना होगा, बल्कि कुछ अधिक देना होगा। बजट में एक हद तक यह दिखता है।

हालांकि इसमें कई किंतु-परंतु हैं, लेकिन पहले यह बताना जरूरी है कि वित्त मंत्री जेटली के पिछले बजटों का इसमें खास अक्स नहीं दिख रहा है। स्मार्ट सिटी, इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर, बंदरगाहों के निर्माण, नमामि गंगे, डिजिटल इंडिया, निर्भया फंड, महंगाई फंड, स्वच्छ भारत अभियान जैसी बातों को लगभग भुला दिया गया है, जिन्हें नई सरकार के महत्वाकांक्षी नए विचार और महाभियानों की तरह पेश किया गया था। सरकार ‘कारोबारी सहूलियत का माहौल’ बनाने के अपने वादे को भी लगभग भूल-सी गई है।

इसी तरह संपत्ति और कंपनी करों के मामले में विशेष रियायतें और करों के ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन की ओर कदम उठाने की बातें भी भुला दी गई हैं। इसके बदले अमीरों पर कई तरह के शुल्क जड़ दिए गए हैं। एक मायने में किसान शुल्क भी उन पर थोपा गया है। यह अलग बात है कि उन पर लगाए गए शुल्क अंतत: आम आदमी की जेब ही खंगालता है। स्टार्ट अप इंडिया के नारे पर भी खास तवज्जो नहीं दिखती है।

मध्य वर्ग को भी खुश करने और उसे अपना वोटबैंक बनाने की कोशिशें भी कम से कम इस बजट में छोड़ दी गई हैं। याद कीजिए, मोदी जी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नव-मध्यवर्ग के निर्माण की बात किया करते थे और जेटली जी भी विपक्ष में रहते आयकर छूट की सीमा 5 लाख रुपये तक करने की बातें किया करते थे। लेकिन शायद जमीनी वास्तविकताओं ने उन्हें इसकी छूट नहीं दी। आयकर की छूट सीमा ज्यों की त्यों रहने दी गई। जो कुछ किराए और पहली बार मकान खरीदने वालों को करों में छूट बढ़ाने की घोषणा की गई है, उसका असर भी खास नहीं होने वाला है। इसके बदले सेवा कर की दरों में आधा प्रतिशत की बढ़ोतरी से खाना-पीना, यात्रा करना, बिजली-मोबाइल का बिल और तमाम चीजें महंगी हो जाएंगी। इसका दंश भी सबसे अधिक शहरी मध्यवर्ग और आम आदमी को झेलना पड़ेगा।

अलबत्ता किसानों की आमदनी 2022 तक दोगुनी करने के सपने जरूर दिखाए गए हैं, लेकिन उसके उपाय विस्तार से नहीं दिखते। जिस मनरेगा को सरकार कोसती रही है और मोदी जी 'कांग्रेस की साठ साल की विफलता का दस्तावेज' बताते रहे हैं, उसमें पिछले दो बजटों के मुकाबले अधिक जोर दिया गया है। हालांकि इस मद में भी महज 4,000 करोड़ रुपये का ही इजाफा किया गया है। वैसे भी जिस 38,500 करोड़ रुपये के आवंटन को अभूतपूर्व बताया जा रहा है, उससे अधिक करीब 39,000 करोड़ रुपये से अधिक का आवंटन यूपीए के राज में ही हो चुका है।

फसल बीमा और किसानों को कर्ज देने की बातें भी की गई हैं, लेकिन बैंकों की खस्ताहाली के मद्देनजर इसका कितना लाभ मिलेगा, कहना मुश्किल है। हालांकि प्रधानमंत्री सिंचाई योजना और प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के मद में बढ़ोतरी दिखती है। इसी तरह गांवों में बीपीएल परिवारों के लिए एलपीजी कनेक्शन के मद में 2,000 करोड़ रुपये का आवंटन है। ग्रामीण और लघु उद्योगों के लिए भी रियायतों का ऐलान किया गया है। लेकिन इन सभी से ग्रामीण आमदनी में कितना इजाफा होगा और इसका कितना हिस्सा सेवा कर वगैरह में बढ़ोतरी से महंगाई मार ले जाएगी, कहना मुश्किल है।

सभी गांवों को 2018 तक बिजली से रोशन करने का भी वादा किया गया है और राजमार्गों तथा रेल परिवहन में भी निवेश बढ़ाया गया है। लेकिन इन परियोजनाओं में अगर सरकारी बैंकों से धन जुटाने की सोच है तो वह भी संदिग्ध लगती है। सरकारी बैंक करीब 5 लाख रुपये डूबत खाते की राशि से जूझ रहे हैं और उन्हें मात्र 25,000 करोड़ रुपये की राशि से पुनर्जीवन देने की उम्मीद की गई है। इसी तरह कोयले जैसे ईंधन के बुनियादी स्रोतों पर शुल्क बढ़ाने से भी महंगाई में इजाफा हो सकता है।

बहरहाल, सरकार की कोशिश अपने ऊपर लग रहे अमीरों की पक्षधर होने के आरोपों से निजात पाने की दिखती है, लेकिन इस चक्कर में उसके गणित बुरी तरह गड़बड़ा भी रहे हैं। शेयर बाजार का रुख शायद यही बता रहा है कि मोदी जी की जैसे-तैसे संतुलन साधने की कोशिश बहुतों को रास नहीं आई है। जैसे रेल बजट मिशन बजट ही ज्यादा था, उसी तरह केंद्रीय बजट का जोर भी सपने दिखाने और सियासी लाभ लेने पर ज्यादा है।

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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