स्मृतिशेष : शोक, सवाल और बेमानी श्रद्धांजलि

स्मृतिशेष : शोक, सवाल और बेमानी श्रद्धांजलि

सौमित सिंह (फाइल फोटो)

सौमित सिंह कभी हमारे साथ काम करता था- एक हंसता हुआ नौजवान, जिसके साथ हमारी लंबी-लंबी बातचीत हुआ करती थी। यह शायद दस साल पुरानी बात होगी। फिर वह कहीं और चला गया। बीच-बीच में वह मिलता, बीच-बीच में उसकी ख़बर मिलती। उसने एक वेबसाइट भी बनाई। आख़िरी बार जब मिला तो पुराने उत्साह से ही भरा मिला। लेकिन पिछले कुछ सालों से उसकी कोई ख़बर नहीं मिली। सोमवार को पता चला कि उसने ख़ुदकुशी कर ली है। अगले दिन सौमित के मामा और वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह ने जानकारी दी कि उसके पास दो साल से नौकरी नहीं थी और वह अवसाद में था।

मैं स्तब्ध था। मुझे इन सबकी ख़बर नहीं थी। हालांकि होती तो भी मैं कुछ कर पाता- इसमें संदेह है। पिछले कुछ वर्षों में हिंदी पत्रकारिता की अपनी छोटी सी बिरादरी के बहुत सारे साथियों को बेरोज़गार होता देखता रहा हूं। कुछ को नौकरी से निकाला गया, कुछ ने बेहतर अवसरों की तलाश में कहीं और जाने की कोशिश की और नाकाम रहे, कुछ के संस्थान ही बंद हो गए। उनमें से कुछ लोगों से मुलाकात हुई, कुछ से फोन पर बात हुई, लेकिन शायद किसी के भी काम मैं नहीं आ पाया। जब ऐसी बेबसी से आपकी मुठभेड़ होती है तो अक्सर आप आंख चुराने की कोशिश करते हैं। अपना नौकरी करना अपराध लगने लगता है।

लेकिन यह निजी पश्चाताप का मामला नहीं है। यह एक बड़ा दुष्चक्र है जो सिर्फ पत्रकारिता में नहीं, उस पूरे निजी क्षेत्र में दिखाई पड़ता है जहां किसी को नौकरी पर रखने का कोई पैमाना नहीं होता और निकाले जाने की कोई वजह नहीं होती। पिछले दिनों सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकार द्वारा कराए एक सर्वे का हवाला देते हुए बताया कि सरकारी क्षेत्र का शुरुआती वेतन निजी क्षेत्र के शुरुआती वेतन से कहीं ज़्यादा है। उन्होंने यह नहीं बताया कि सरकारी क्षेत्रों में ऊपर का वेतन निजी क्षेत्रों में ऊपर के वेतन से कितना कम होता है। लेकिन अगर वित्त मंत्री जी की मंशा सरकारी क्षेत्र के वेतन को निजी क्षेत्र जैसा बनाने की हो- जैसा कि सरकार की श्रम नीति में नौकरियों की सुरक्षा के प्रति बढ़ती अवहेलना से दिखाई पड़ता है- तो सबको सावधान रहने की ज़रूरत है।

दरअसल पिछले कुछ वर्षों में विकास की चमक-दमक के बीच सरकारी काहिली और भ्रष्टाचार के मुक़ाबले निजी क्षेत्र की ईमानदारी और चुस्ती-फुर्ती का ऐसा मिथक गढ़ा गया है कि सातवें सरकारी वेतन आयोग के अध्यक्ष तक ये कह डालते हैं कि सरकारी कर्मचारी काम तो करते नहीं, वेतन बढ़ोतरी चाहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि हमारे सरकारी अमले में बीते तमाम वर्षों में उदासीनता भी बढ़ी है, काहिली भी और शायद भ्रष्टाचार में भी इज़ाफ़ा हुआ है। लेकिन सरकारी क्षेत्र के मुक़ाबले निजी क्षेत्र की हक़ीक़त क्या है?

अपनी सारी गड़बड़ियों के बावजूद सरकारी क्षेत्र में भर्ती का एक पैमाना है, अलग-अलग पदों की अलग-अलग अर्हताएं हैं, इसके लिए बाकायदा लिखित परीक्षा होती है, साक्षात्कार होते हैं, और इसके बाद चयन होता है। बेशक, इसके साथ-साथ व्यापम भी चलता रहता है लेकिन निजी क्षेत्र का अपना व्यापम और भी व्यापक है। यहां नियुक्तियों के लिए जैसे कोई कसौटी ही नहीं है। कहने को कुछ बड़े संस्थान कुछ कैंपस इंटरव्यू किया करते हैं, लेकिन आम तौर पर यह पूरा सेक्टर जान-पहचान, दोस्ती-रिश्तेदारी से होने वाली नियुक्तियों पर टिका है। नतीजा यह होता है कि यह पूरा निजी क्षेत्र बहुत ज़्यादा निजी वफ़ादारियों और गैरज़रूरी मेहनत पर चलता है। ऊपर बैठा आदमी अपने नीचे वाले को टारगेट देता है, नीचे वाला अपने नीचे वाले को और उसके नीचे उसके नीचे वाले को। भागते-दौड़ते यह टारगेट पूरा किया जाता है और इस क्रम में न काम के घंटों की परवाह की जाती है, न किसी और चीज़ की। बल्कि निजी क्षेत्र का भ्रष्टाचार यहीं से शुरू होता है। सरकारी कर्मचारियों को घूस देने से लेकर मंत्रियों-अफ़सरों को तोहफ़े देने तक और टेंडर की जानकारी लेने के लिए तमाम तरह की जुगत करने से लेकर कई और तरह की टैक्स चोरियों तक निजी क्षेत्र भी अपनी तरह के कीचड़ में धंसा है।

यह अनुभव आम है कि जहां सिर्फ निजी क्षेत्रों की सेवाएं हैं वे कई बार बहुत ही बुरी और अपने ग्राहकों के प्रति असंवेदनशील साबित हुई हैं। यह अनायास नहीं है कि देश की राजधानी में अपोलो अस्पताल के भीतर किडनी रैकेट सक्रिय मिलता है और फोर्टिस में एक मरीज की गलत टांग का ऑपरेशन कर दिया जाता है। मरीजों से अनाप-शनाप पैसे लेने में निजी क्षेत्र के सारे अस्पताल जैसे एक-दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा करते हैं। यही हाल स्कूलों का है जो मनमानी फीस लेते हैं और अपने स्टाफ को अक्सर तय वेतन से कम पैसे दिया करते हैं। वहां कोई विरोध नहीं करता, क्योंकि इन स्कूलों और अस्पतालों की बाहरी चमक-दमक किसी को शिकायत करने की हिम्मत नहीं देती। यही हाल उन रेस्टोरेंट्स का है जहां हमारे खाने का एक बार का बिल हजारों रुपयों में पहुंच सकता है लेकिन जहां के स्टाफ को इतना नहीं मिलता कि वह ठीक से पेट भर सके। निजी क्षेत्र के सुरक्षाकर्मियों की यही स्थिति है।

बेईमानी के इस सिलसिले के एक दूसरे मिथक को भी समझने की ज़रूरत है। अक्सर यह कहा जाता है कि इन दिनों लड़कों में आगे बढ़ने की जल्दी है। वे बड़ी तेज़ी से कंपनियां बदलते हैं। सच्चाई लेकिन कुछ और है। लड़के इसलिए नौकरियां नहीं बदलते कि उन्हें आगे बढ़ने की हड़बड़ी है। वे अपनी शुरुआती चार-पांच नौकरियों में बुरी तरह शोषण झेलते हैं। कम से कम पैसों में ज़्यादा से ज्यादा घंटों तक काम नहीं करते, खटते हैं। पांच सात साल के बाद उन्हें ऐसी कोई नौकरी मिलती है जिसमें वे राहत के साथ टिके रह सकें। इसका दूसरा दुखद पहलू ये है कि दस-बारह साल बाद वे अपनी ही कंपनी के लिए बेकार हो जाते हैं। 40-45 के बाद वे अवांछित करार दिए जाते हैं, अपमानजनक स्थितियों में टिके रहते हैं या फिर नौकरी छोड़ देते हैं। निजी क्षेत्र का हिसाब पक्का रहता है कि उन्हें जो सैलरी दी जा रही है, उतने में दो से ज़्यादा लोग आ जाएंगे। तो निजी क्षेत्र की यह पूरी चमक-दमक 30 साल से पहले युवा कर्मियों के शोषण और 45 के बाद उनकी छंटनी से बनती है। आप अपने आसपास देखें तो ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो 45 के बाद बेरोज़गार हो चुके हैं और उन्हें नई नौकरी नहीं मिल रही है।

कुल मिलाकर यह बहुत अमानवीय व्यवस्था है जिसमें कोई भी संवेदनशील शख्स अपने-आप को मिसफिट पाता है। वह अपने लिए नए रास्ते खोजता है। सौमित भी ऐसा ही संवेदनशील शख्स था। वह नौकरियों के इस तंत्र में खप नहीं सका। उसने अपने लिए स्वायत्त व्यवस्था बनानी चाही। उसमें भी कामयाब नहीं रहा। इसके बाद जैसे वह एक अंधी गली में भटक गया। यह अंधी गली भी उसकी निर्मित की हुई नहीं थी। वह भी उदारीकरण के हाइवे पर चल रहे उस समाज के भीतर से निकली थी जो लगातार खोखला होता जा रहा है। इस समाज के पास या तो पैसा है या फिर कुछ नहीं है। रिश्ते-नाते, मित्र-सहयोगी सब दूर हैं या अपनी-अपनी जीवन चर्या में जुते हुए हैं। ऐसे में जब एक क्रम टूटता है तो आप अपने-आप को बेसिलसिला पाते हैं। आप अवसाद में डूबते हैं, खुद को सामान्य बनाए रखने की कोशिश करते हैं, पत्नी को नौकरी पर और बच्चों को स्कूल भेजते हैं- और ख़ुद पंखे से झूल जाते हैं।

सौमित के साथ यही हुआ। सबने उसे छोड़ दिया तो उसने भी सबको छोड़ दिया। लेकिन यह निजी त्रासदी नहीं है। इसका एक कारुणिक व्यवस्थागत पक्ष है। अब तक इस उदारीकरण की मार गांव-देहातों पर ही दिखती रही जहां हर साल हज़ारों किसान ख़ुदकुशी कर लेते हैं। अपनी बनाई या बढ़ाई जा रही इस आत्महंता व्यवस्था में हम ख़ुश हैं, इसलिए नैतिक तौर पर हमें सौमित की मृत्यु पर शोक करने का अधिकार नहीं है- लेकिन यह समझने की ज़रूरत है कि इस मृत्यु में हम सबकी धीमी मृत्यु भी प्रतिबिंबित है- देर-सबेर फिर किसी की बारी आएगी और फिर कोई एक बेमानी सी श्रद्धांजलि लिखेगा।

(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)

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