यह ख़बर 21 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

रवीश की कलम से : ...तो इसलिए विदेश दौरों पर गए थे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

फाइल चित्र

नई दिल्ली:

"मैं पिछले दिनों दुनिया के कई देशों में गया। जहां भी गया, मेरे दिल में हिन्दुस्तान का गरीब गांव-किसान था। मैं ऑस्ट्रेलिया गया। कहां गया...?" भीड़ से जवाब आता है, ऑस्ट्रेलिया।

प्रधानमंत्री मोदी भी कहते हैं, "मैं ऑस्ट्रेलिया गया। वहां की यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों से मिला। किस काम के लिए मिला। मैंने कहा कि हमारे किसान खेती करते हैं, मूंग, अरहर और चने की खेती करते हैं, लेकिन एक एकड़ भूमि में जितनी पैदावार होनी चाहिए, उतनी नहीं होती। भूमि तो बढ़ नहीं सकती, लेकिन उतनी ही भूमि में परिवार चलाना है, तो प्रति एकड़ हमारा उत्पादन कैसे बढ़े। हमने वहां के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर उस काम को आगे बढ़ाने का तय किया है, जिसके कारण मेरे भारत के छोटे किसान, गरीब किसान कम ज़मीन हो, तो भी ज्यादा उत्पादन कर सकें, ताकि उनके परिवार को दुख की नौबत न आए। यह काम मैंने ऑस्ट्रेलिया जाकर किया है।"

झारखंड के डाल्टनगंज में तो क्या, देश के किसी भी हिस्से में शायद ही कोई प्रधानमंत्री या नेता ऑस्ट्रेलिया और जापान के दौरे से अपने भाषण की शुरुआत करेगा। सोशल मीडिया से लेकर मीडिया तक में मोदी के विदेश दौरों की आलोचना हो रही थी।

आज के इकोनॉमिक टाइम्स में एक हिसाब छपा है कि वह पांच महीनों में 31 दिन विदेश यात्राओं पर रहे, आठ देशों की यात्राएं की। विपक्षी दल आलोचना कर रहे थे कि यह एनआरआई प्रधानमंत्री हैं। सोशल मीडिया पर चुटकियां ली जा रही थीं कि विदेशों में भी पीएमओ का एक्सटेंशन काउंटर खुल जाएगा।

इन आलोचनाओं में मोदी को घूमने-फिरने वाले प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया गया। मोदी ने भी कोई काम छिपकर नहीं किया। समुंदर के किनारे फोटो खींचते हुए तस्वीर खिंचवाई और सोशल मीडिया पर बांट दिया, जैसे तस्वीर खींचने के लिए उनके पास बहुत वक्त रहा हो। म्यांमार पहुंचकर इंस्टाग्राम पर तस्वीर भेज दिया।

कुछ लोग बहुभाषी होते हैं, नरेंद्र मोदी बहुमाध्यमा हैं। गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी के लिहाज से वह भी बहुभाषी हैं, लेकिन माध्यमों का जिस तरह से इस्तेमाल करते हैं, कोई और नहीं कर रहा है। प्रधानमंत्री हर वक्त संवाद के नए-नए माध्यमों की तलाश में रहते हैं। इतने तरीके से संवाद करते हैं कि संवाद का अध्ययन करने वालों के लिए चुनौती बन जाते हैं। एक दिलचस्प चुनौती, जिसका लगातार अध्ययन किया जा सकता है। यह सही है कि उनकी बोली हुई बातों का काम के अनुपात में परीक्षण किया जाना बाकी है, बल्कि हो भी रहा है, लेकिन इन आलोचनाओं से भी मोदी अपने तरीके से लड़ते हैं।

किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि विदेश यात्राओं को लेकर हो रही आलोचनाओं को वह जनता के बीच किसी खूबी में बदल देंगे। अपनी इन्हीं त्वरित चालाकियों से वह विरोधियों को लगातार छकाते जा रहे हैं। मुझे मालूम नहीं कि उनके दौरों पर लिखने वालों ने अपने संपादकीय लेखों में यह लिखा भी है या नहीं कि प्रधानमंत्री ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी में प्रति एकड़ उत्पादन बढ़ाने की बात करने गए थे, केले में विटामिन की क्षमता बढ़ाने पर विचार करने गए थे। हो सकता है, लिखा भी हो और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अकबरुद्दीन साहब ने ट्वीट भी किया हो। अकबरुद्दीन बेहद काबिल प्रवक्ता हैं, लेकिन झारखंड की गरीब जनता के बीच वह बता आए कि उनका विदेश दौरा दरसअल कूटनीति के नफीस विद्वानों के लिए नहीं, आप गरीब लोगों के लिए था।

"हमारे देश में केले का उत्पादन होता है। केला एक ऐसा फल है, जो गरीब भी कभी-कभी खा सकता है, लेकिन वैज्ञानिक तरीके से उनके अंदर ज्यादा विटामिन कैसे आएं, ज़्यादा लौह तत्व आएं, ताकि केला माताएं-बहनें खाएं तो प्रसूति के समय जो बच्चा पैदा हो, वह ताकतवर पैदा हो। हमारे बच्चे केला खाएं तो उनकी आंखों में जो कमी आ जाती है, छोटी आयु में आंखों की ताकत कम हो जाती है, अगर केले में विटामिन ए ज़्यादा हो तो हमारे बच्चों को विटामिन ए मिल जाए, लोहा भी मिल जाए, यह रिसर्च करने का काम ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी के साथ आगे बढ़ाने का फैसला किया है। यह काम गरीबों के लिए किया है।"

किसी विदेश दौरे का ऐसा गरीबीकरण या देसीकरण मैंने पहले नहीं देखा। हो सकता है कि पहले के प्रधानमंत्रियों ने ऐसा किया हो, लेकिन अपनी स्मृति में यह काम पहली बार होते हुए देख रहा हूं। कोई प्रधानमंत्री केला में विटामिन ए और लौह तत्व बढ़ाने की बात कर रहा है। वह मतदाता के सामने अचानक डॉक्टर से लेकर वैज्ञानिक तक सब बन जाता है। अब ऐसी स्थिति में जनता उनकी बातों पर यकीन नहीं करेगी तो क्या करेगी, इसीलिए मैं लगातार एक साल से कह रहा हूं कि नरेंद्र मोदी का विकल्प वही नेता बनेगा, जो उनके हर भाषण को सुनेगा, चुनौती देने की काट निकालेगा।

नीतीश कुमार ने एक रोचक प्रयोग किया है। वह अपने कार्यकर्ताओं के बीच मोदी के पहले और बाद के भाषणों को सुनाते हैं और फिर अपनी टिप्पणी करते हैं। राष्ट्रीय मीडिया ने नीतीश के इस प्रयोग को नज़रअंदाज़ कर दिया है, लेकिन मोदी को पकड़ने का यह तरीका दिलचस्प है। कम से कम संवाद और संप्रेषण के विद्यार्थियों को देखना चाहिए कि नरेंद्र मोदी अपने संवाद कौशल से विरोधियों के संवाद कौशल को किस तरीके से बदल रहे हैं। तभी मैंने कहा कि वह कम्युनिकेशन के विद्यार्थियों के लिए चुनौती हैं।

कितनी चतुराई से उन्होंने अपनी जापान यात्रा को आदिवासियों के कल्याण से जोड़ दिया। 31 अगस्त को टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी लिखा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'सिकल सेल एनीमिया' की बीमारी को लेकर शिन्या यामानाका से मुलाकात की। शिन्या यामानाका को स्टेम सेल में शोध के लिए वर्ष 2012 का नोबेल प्राइज़ मिला था। यह बीमारी भारत के आदिवासी इलाकों में पाई जाती है। नरेंद्र मोदी ने अपनी उस मुलाकात को झारखंड की जनता के बीच इस तरह पेश किया कि उनका विदेश दौरों पर जाना कितना ज़रूरी है। वह उस मुलाकात को एक किस्से में बदल देते हैं।

कहने लगते हैं कि मैं जापान में नोबेल प्राइज़ वैज्ञानिक से मिलने गया। मैंने कहा कि मेरे हिन्दुस्तान में जो मेरे आदिवासी भाई बहन हैं, वह सदियों से पारिवारिक बीमारी के शिकार हैं। अगर मां-बाप को बीमारी है तो बच्चों को बीमारी हो जाती है और आज दुनिया में इसकी कोई दवाई नहीं है, तो आप इस दिशा में शोध का काम कीजिए, भारत खर्चा करने के लिए तैयार है, जिसके कारण मेरे आदिवासी परिवारों को इस बीमारी से मुक्त किया जा सके।

मोदी विरोधियों के लिए मुद्दा हैं, लेकिन मोदी के लिए उनके विरोधी मुद्दा नहीं हैं। वह जनता से संवाद करते हैं। मीडिया के सवाल-जवाब का सामना नहीं करते, लेकिन अपनी हर बात को किसी किस्से में बदलकर जनता को नई बात दे जाते हैं।

डाल्टनगंज की रैली से लौटती भीड़ यह भूल चुकी होगी कि महंगाई से लेकर काले धन पर प्रधानमंत्री ने तो कुछ बोला नहीं, वह यही बात कर रही होगी कि प्रधानमंत्री को यह भी पता है कि केले में कौन-सा विटामिन है, लोहा कैसे बढ़ाया जा सकता है, वह हमारे बच्चों के स्वास्थ्य की बात करते हैं, आदिवासियों की बीमारी ठीक कर देने की बात करते हैं। अब आप करते रहिए उनके विदेश दौरे की आलोचना। रणनीतिक समझौतों की बारीकियों पर सेमिनार करते रहिए, वह डाल्टनगंज की जनता को बता आए कि केला और ख़ानदानी बीमारी की दवा ढूंढने के लिए विदेश-विदेश घूम रहे थे। प्रधानमंत्री उस बाबा की तरह बन जाते हैं जो सारी चिन्ताओं को दूर कर सकता है। बाबा ही नहीं, एक वैज्ञानिक भी बन जाते हैं, जो किसी लैब में विटामिन से लेकर आयरन तक पर रिसर्च करवा रहा है।

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जब भी लगता है कि प्रधानमंत्री के भाषण में दोहरापन आने लगा है, मोदी खुद को बदल देते हैं। वह कुछ नया बोलने लग जाते हैं। इन बातों की सच्चाई से लेकर दावों का राजनीतिक विश्लेषण हो सकता है, तथ्यात्मक गलतियों को लेकर बहस भी हो सकती है, लेकिन संवाद करने की ऐसी चतुराई और आत्मविश्वास किसी नेता के पास नहीं है।

यह लेख लिखते हुए पीछे टीवी पर मोदी के बाद जम्मू-कश्मीर के बांदीपुर से सोनिया गांधी के भाषण का प्रसारण होने लगा। ऐसा लगता है कि उनके पास कुछ नया नहीं है। उनके पास कोई किस्सा नहीं है। कोई सपना नहीं है। कम से कम कश्मीर के सेब में किसी नए विटामिन को बढ़ाने के संकल्प का सपना तो दिखा ही सकती थीं। सोनिया ने भी कहा कि रिसर्च संस्थाओं को बेहतर बनाएंगे, लेकिन उसे किस्से में नहीं बदल पाईं। धार पैदा नहीं कर सकीं। दरअसल हमारी राजनीति में संवाद कौशल से ही अब कोई नई चुनौती पैदा होगी। जो मोदी के भाषणों का ही नहीं, उनके किए जाने वाले काम का कोई ठोस विकल्प पेश कर सके। कोई अलग सपना पेश करना होगा। अलग तरीके से बोलना होगा।