उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी की जीत बिहार के महागठबंधन के लिए नसीहत...

उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी की जीत बिहार के महागठबंधन के लिए नसीहत...

नीतीश कुमार के साथ लालू प्रसाद यादव (फाइल फोटो)

इन दिनों हर कोई यही जानना चाहता है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अभूतपूर्व जीत का बिहार की राजनीति पर क्या असर होगा. निश्चित रूप से इसका प्रभाव बिहार की राजनीति में आने वाले दिनों में दिखेगा. यह सच बिहार की राजनीति के सभी पुरोधा जानते हैं, लेकिन ये भी सब मानते हैं कि इस चुनाव का परिणाम महागठबंधन के लिए एक चेतावनी भी है. और अगर चुनाव परिणाम में निहित संदेश को नजरअंदाज करने की कोशिश सरकार में शामिल कोई भी दल करेगा तो उसका ख़ामियाजा भी उसे ही उठाना पड़ेगा.

सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में उनकी पार्टी की जीत की वजह केंद्र में उनके काम से ज्यादा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के 'यादव जाति' पर वर्चस्व के कारण अन्‍य जातियों का ध्रुविकरण, मुस्लिम समुदाय के वोट के बिखराव और जाटव वोटरों को अलग-थलग कर बाकी जातियों को 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह एकजुट करना मुख्य कारण रहा है.

निश्चित रूप से विकास कहीं से कोई मुद्दा नहीं रहा. अगर विकास वोट का कोई पैमाना होता तो अखिलेश यादव के लखनऊ में मात्रा एक प्रत्याशी नहीं जीत पाते. लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं कि मोदी गैर यादव पिछड़े, गैर जाटव दलित और अगड़ी जातियों के सर्वमान्य नेता के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं. और शायद बिहार में महागठबंधन, खासकर नीतीश कुमार के लिए ये एक चिंता का कारण हो सकता है.

हालांकि हर दल के नेता मानते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम के बाद नीतीश के सहयोगी और सत्ता में भागीदार लालू यादव बैकफुट पर होंगे. अखिलेश यादव की जीत हुई होती तो लालू यादव और उनकी पार्टी नीतीश कुमार के प्रति विपक्ष की तुलना में और अधिक आक्रामक होती. लेकिन शायद चुनाव परिणाम के बाद वे भी इस बात से भली-भांति अवगत हो गए होंगे कि यादव जाति अगर सत्ता में ज्यादा वर्चस्व बनाने की कोशिश करती है तब उसके खिलाफ तुरंत अन्य जातियां गोलबंद हो जाती हैं. साथ ही कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व, जो नोटबंदी पर नीतीश कुमार के समर्थन के फैसले के बाद उनसे दूरी बना रहा था, उसे भी इस बात का अंदाजा हो गया होगा कि जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष का स्टैंड ही सही था. और शायद इस मुद्दे पर उनसे बातचीत कर उन्होंने उनके अनुसार कदम उठाये होते तो शायद मोदी को जनता में इतना  समर्थन नहीं मिला होता. और अब कांग्रेस पार्टी के हित में  है कि वो लालू यादव के साथ जितना समय लगा रही है उतना अगर नीतीश कुमार की बातों पर विचार कर ले तो शायद कुछ फायदा मिल सकता है.

लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी के नेता और कार्यकर्ता मानते हैं कि लालू यादव के साथ गठबंधन, खासकर सरकार चलाना आसान नहीं है और उससे अच्छा है कि सुशासन के नाम पर एक बार फिर से बीजेपी से दोस्ती और पुराने संबंध कायम किए जाएं. ऐसी राय रखने वाले लोग लालू यादव के बड़बोलेपन से दुखी हैं. वे खासकर इस बात को लेकर उत्तेजित हैं कि वे चाहे लालू यादव हों या उनका छोटा बेटा तेजस्वी यादव, दोनों यह एहसास कराने की कोशिश करते हैं कि नीतीश कुमार उनकी कृपा या इच्छा पर मुख्यमंत्री बने हैं.

नीतीश समर्थक हर दूसरे दिन लालू के सिपहसलार खासकर रघुवंश प्रसाद सिंह द्वारा नीतीश कुमार की आलोचना से भी परेशान दिखते हैं. बिहार की राजनीति की जानकारी रखने वाला बच्चा भी जानता है कि रघुवंश के बयान लालू यादव की बिना सहमति और सहभागिता के संभव नहीं हैं. और भले ही शब्‍द रघुवंश के होते हैं, विचार लालू यादव के ही होते हैं. नीतीश पर हमला करने वाले राष्ट्रीय जनता दल के किसी भी विधायक पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई और उल्‍टे उन्हें उत्साहित किया जाता है. राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि नीतीश, जो कि बिहार में गैर यादव राजनीति के सबसे मजबूत स्‍तंभ और चेहरा हैं, अगर मौन होकर इन हमलों को झेलते रहे तब आने वाले दिनों में उन जातियों का झुकाव निश्चित रूप से मोदी की तरफ ज्यादा होगा. खुद नीतीश इस परिस्थिति से भली-भांति अवगत हैं. उनके विरोधी और राष्‍ट्रीय जनता दल में नीतीश समर्थक विधायक भी मानते हैं कि एक सीमा के बाद लालू यादव निर्देशित और उनके नजदीकी नेताओं के मुख से होने वाले हमले से निजात पाने का रास्ता मुख्‍यमंत्री निश्चित रूप से खोज निकालेंगे.

इसके अलावा जनता दल यूनाइटेड के लोग इस बात को लेकर परेशान हैं कि मोदी आने वाले लोकसभा चुनावों में अपने काम का बखान करेंगे और बिहार सरकार के कामों की बखिया भी उधेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. और यहां पर लालू यादव और कांग्रेस के नेताओं के विभाग के कामकाज नीतीश कुमार के लिए दिनोंदिन दुखती रग बनते जा रहे हैं. ये बात राष्ट्रीय जनता दल के विधायक भी मानते हैं कि जिन अस्पतालों या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में दो वर्ष पूर्व तक दवा उपलब्ध होती थी वहां अब दवा तो छोड़िये, डॉक्टर और नर्स भी नदारद रहते हैं. और वे क्यों काम करें जब स्वास्थ्य मंत्री तेजप्रताप यादव घर में बांसुरी बजा रहे हों. वहीं शिक्षा विभाग धीरे-धीरे सभी मापदंड पर पिछड़ता जा रहा है.

यह बात अलग है कि नीतीश कुमार अपने मंत्रियों के कामकाज में दखलअंदाजी नहीं करते लेकिन, इन विभागों के गिरते काम के स्तर पर मौन उनकी छवि और उनके ट्रैक रिकॉर्ड पर एक प्रतिकूल असर डालता जा रहा है. ये बात किसी से छिपी नहीं कि महागठबंधन की सरकार के डेढ़ साल पूरे होने के बाद भी आज तक एक बार भी लालू यादव के रवैए के कारण जिला अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों के तबादले नहीं हो पाए हैं. ये सब उदाहरण यादवों के सामने सत्ता के प्रोटोकॉल में उनकी बेबसी दिखाते हैं जो उनके समर्थक वर्ग और जाति के लोगों को नागवार गुजरता होगा. लोकसभा चुनवों में इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ सकता है.

लेकिन, उत्तर प्रदेश के चुनावी परिणाम से नीतीश कुमार के घोर विरोधी भी इस बात को मान रहे हैं कि अगर मोदी के नेतृत्‍व वाली भारतीय जनता पार्टी को परास्त करना है तो उनके खिलाफ गठबंधन नहीं महागठबंधन बनाना होगा और छोटी से छोटी पार्टियों को भी नजरअंदाज करना महंगा पड़ सकता है.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने अगर नीतीश, अजित सिंह और कुछ और छोटे दलों को साथ लिया होता तो शायद चुनाव की तस्वीर कुछ और हो सकती थी. क्योंकि मोदी को भी इन पार्टियों को लेकर या कांग्रेस से नेताओं तोड़कर ही चुनाव में सफलता मिल रही है. वहीं नोटबंदी को लेकर भी इन चुनाव परिणामों से साबित हो गया है कि नीतीश कुमार की जनता की नब्ज पर पकड़ मोदी के किसी अन्‍य विरोधी नेता या दल से कहीं ज्यादा थी.     

लेकिन नीतीश 2014 के चुनाव में मिली हार का बदला 2019 में मोदी से लेना चाहते हैं, तब उन्हें सबसे पहले लालू यादव को बिना देर किए यह बताना होगा कि वे सत्ता में उनकी कृपा से नहीं, जनादेश के आधार पर बैठे हैं, साथ ही अपने मंत्रियों के ऊपर जबतक प्रधानमंत्री मोदी की तरह नजर और नकेल नहीं कसते शायद तबतक लोकसभा चुनाव में पटखनी देने का उनका लक्ष्य कहीं धरा का धरा न रह जाए.

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