असली परिक्रमा तब होगी जब बड़े गुनहगारों की कॉलर पहले पकड़ेंगे

असली परिक्रमा तब होगी जब बड़े गुनहगारों की कॉलर पहले पकड़ेंगे

अभी अप्रैल के महीने में हमने शिप्रा नदी को पुनर्जीवित करने की बड़ी-बड़ी घोषणाएं सुनी थीं. आठ महीने बाद हम नर्मदा सेवा यात्रा 'नमामि देवी नर्मदे' शुरू होते देख रहे हैं. सुखद है कि साल-दर-साल बदहाल होती नदियों के बारे में सरकार की तंद्रा टूटी. पहले नर्मदा ही सही. आखिर नर्मदा ने ही तो अपना पानी देकर सिंहस्थ में शिप्रा की लाज बचाई थी. हम उम्मीद कर रहे थे कि महाकाल की नगरी में देशभर के साधु—संतों के सामने शिप्रा को नया जीवन देने का जो वायदा किया था, उसे 12 साल बाद अगले सिंहस्थ तक अमल में लाने का कोई तो खाका सामने आएगा, बहरहाल अब तक ऐसी कोई चर्चा हमें सार्वजनिक रूप से सुनाई नहीं दी. 'नममि देवी नर्मदे' की शुरुआत जरूर हो गई, जो मई 2017 तक चलेगी, 1100 गांवों में जाएगी.

अब तक हजारों-लाखों लोग नरबदा परकम्मा लगाते आए हैं, जिसका खूबसूरत वर्णन हमें अद्भुत रूप से अमृतलाल बेगड़ की किताबों से लेकर तमाम फोटो और फिल्मों में मिलता रहा है. जो नहीं जानते वह जान लें कि नर्मदा दुनिया की अकेली ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है, इसकी पवित्रता के बारे में भी वर्णन मिलता है कि इसे देखने मात्र से व्यक्ति को गंगा में नहाने सा पुण्य मिल जाता है, ऐसी नदी को बचाने की जिम्मेदारी और जवाबदारी से कौन असहमत हो सकता है.

परंतु उतना ही क्रूर सच यह है कि नर्मदा ही इस वक्त की सबसे साफ-सुथरी नदी है, जिसके पानी, जिसकी रेत और जिसकी जमीन को नोंच लेने के लिए सबसे ज्यादा लालची नजरें जमी हुई हैं. यही वह नदी है जिस पर हर सौ-दो सौ किलोमीटर की दूरी पर बांध बनाकर उसका पानी रोककर नदी को बड़े-बड़े जलाशयों में तब्दील कर दिया जा रहा है. यही वह नदी है जिसकी गोद में रहने वाली संतानों को उससे अलग हटाकर उनकी सुखद जिंदगी को तो छीन लिया गया, लेकिन वापस उनकी खुशहाली देने में सरकारें नाकाम रहीं. यही वह नदी है जिसका पानी उसके किनारों पर बसने वाले कस्बे नहीं, बल्कि सौ-सौ किलोमीटर दूर तक के शहर निर्भर हो उसका पानी खींच रहे हैं.
 

narmada river

यही वह नदी है जिस पर तमाम सवालों के बीच परमाणु संयंत्र बिजलीघर बनाने की अनुमति दी जा रही है. यही वह नदी है जिसका पानी बोतल में बंद कर कोका-कोला अपने मुनाफे के लिए बेचने को आतुर हैं, इसलिए उनको 110 एकड़ जमीन की रजिस्‍ट्री सरकार ने कर दी है. यही वह नदी है जिसकी गोद में रहने वाले मछुआरों से मछली मारने का हक छीनकर बड़े ठेकेदारों को दे दिया जाता है. यही वह बिजली है जहां कि निजी कंपनियों को पानी देकर बिजली बनाने का ठेका दे दिया जाता है!


इसलिए जब सरकार नर्मदा की सेवा यात्रा करके महज पेड़ लगाकर इसके संरक्षण की बात करती है तो शंका होती है. यह कैसी नीति है कि पहले तो एक सुनहरी तस्वीर में धब्बे लगाए जाएं फिर उसे दोबारा सुनहरा बनाने के लिए एक परियोजना बनाई जाए और उसे साफ किया जाए. सरकार का यह रवैया भी कुछ-कुछ ऐसा ही जान पड़ता है जैसे काला धन वाले असली लोगों को छोड़कर पूरे देश को ही लाइन में लगा दिया जाए. प्रदूषण फैलाने के लिए दिन-रात जहर उगलने वाले कारखानों को छोड़कर किसानों को कीटनाशक डालने के लिए ज्‍यादा दोषी माना जाए.

इसलिए जब सरकार नर्मदा की सेवा यात्रा करके महज एक किलोमीटर तक फलदार पेड़ लगाकर इसके संरक्षण की बात करती है तो शंका होती है. यह कैसी नीति है कि पहले तो एक बेहतर स्थिति को बिगाड़ा जाए फिर उसे दोबारा ठीक करने के लिए करोड़ों रुपयों की एक परियोजना बनाई जाए और उसे साफ किया जाए.

क्या करें, हमारे देश की आदत ही 'परियोजनागत विकास' की हो गई है, हालांकि यह आदत नई-नई है, हजारों सालों के इतिहास में पहला ऐसा नहीं होता रहा होगा, तब भी यह नदियां, यह जंगल, यह पहाड़, यह जानवर, यह चिड़िया, और हां 'यह लोग' बचे रह गए. सुविधाओं के अभाव में भी, नकदी के अभाव में भी. दरअसल जिस कैशलेस को आज हमने परियोजनागत लहजे में ही क्रांति की तरह लागू किया है, कुछ कुछ ऐसी ही व्‍यवस्‍थाएं पुरखों की आदतों में रही है, फिर भी कह लीजिए कि वह पिछड़े और विकासहीन मनुष्य थे. खैर! मुद्दे पर आते हैं!

जो लोग नर्मदा को नहीं जानते हालांकि ऐसा कम ही होगा, उनके लिए बता दें कि यह मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलकर गुजरात में खंभात की खाड़ी तक बहने वाली तकरीबन 1300 किलोमीटर लंबी सदानीरा नदी है. इसकी एक खासियत यह है कि यह पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की तरफ निरंतर बहती है. एक और खासियत यह है कि इसका निर्माण हिम ग्‍लेशियर नहीं बल्कि विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं के बीच हजारों लाखों जल स्रोतों से होता है. इसकी परकम्मा के विषय में हम बता ही चुके हैं, पहले लोग तीन साल तेरह महीने और तेरह दिन में पैदल चलकर इसकी परिक्रमा को पूरा करके मोक्ष प्राप्ति के रास्ते को साधते थे. इस पूरे परिक्रमा पथ पर परिक्रमा वासियों के भोजन की व्यवस्था नर्मदा के बाशिदें ही करते थे, कभी ऐसी खबर किसी अखबार में पढ़ने को नहीं मिली कि भूख के कारण किसी परकम्मा वाले की मौत हो गई हो. इसके बाशिंदे बाढ़ में वृहद आकार लेने पर भी इसे मोटली माई के रूप में संबोधित करते हैं. एक ऐसी जीवंत संस्कृति और मां-बेटे के अद्भुत रिश्तों में रची-बसी इस नदी का संरक्षण सरकार सेवाभाव से करने जा रही है, इससे किसे इनकार है!

पर सवाल यह है कि संरक्षण की यह प्रतिबद्धता नीतियों में क्यों दिखाई नहीं देती है? इस सरकार से जब विधानसभा में प्रतिपक्ष अवैध खनन के मसले पर कोई ठोस पहल करने की बात करता है तो क्यों मुख्यमंत्री किसी विशेषज्ञ समिति की राय लेने का बहाना मार देते हैं, जबकि अकेले भोपाल से लेकर बुधनी तक की रोडयात्रा बता देती है कि कितने डंपरों पर नंबर पड़े हैं और कितने बिना नंबर वाले डंपर रात-दिन चल रहे होते हैं. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इन डंपरों के बजाय केवल एक काम कर दे कि मालगाड़ियों से रेत की नपी-तुली ढुलाई हो, इस आसान रास्ते से अवैध उत्खनन को प्रतिबंधित किया जा सकता, लेकिन ऐसा नहीं हो पाता. क्या इसलिए कि अवैध रूप से रेत ढोकर नर्मदा की छाती दिन-रात छीलने वाले राजनैतिक रसूख वाले प्रभावी लोग हैं? 'नमामि देवी नर्मदे' सरीखा दुनिया का सबसे बड़ा सफाई अभियान शुरू करने वाले मुख्यमंत्री के लिए इतना छोटा सा काम समिति के पास चला जाता है, क्यों?

फुल-फुल पेज विज्ञापनों से सजे इस अभियान के बरक्‍स बांध और विस्थापन के सवाल तो अब सवाल ही नहीं है. एक अहिंसक आंदोलन के तीस सालों के संघर्ष में इन्‍हें किसी भी सरकार ने कभी गंभीरता से सुना ही नहीं. नर्मदा बचाओ आंदोलन के जरिए इसने बांध और विकास के सवालों को दुनिया के सामने रखा है. ऐसे तीस बड़े और 135 मझौले आकार के बांध बनाकर कितने पेड़ पौधों, कितनी खेती की जमीन, कितनी जैव विविधता को डुबाया गया इसका कोई अध्‍ययन नमामि देवी नर्मदे के समानांतर जरूर करवाना चाहिए, ताकि पता तो चले कि इस विकास की कीमत जो हमने चुकाई है, उससे हासिल क्‍या हुआ, और उन्‍हें क्‍या हासिल हुआ, जिन्‍होंने सचमुच इसके लिए अपना सब कुछ खोकर बलिदान दिया. क्‍या हमारी व्‍यवस्‍थाएं अब भी विकास के उन तौर-तरीकों पर विचार करेंगी जो हमारी जल-जंगल-जमीन का कम से कम विनाश करता हो, जिनसे हमारा प्‍यारा देश बनता है. नर्मदा की असली परिक्रमा तभी होगी जब हम बड़े गुनहगारों की कॉलर पहले पकड़ेंगे.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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