मैं आप सब पर भरोसा करना चाहती हूं...

मैं आप सब पर भरोसा करना चाहती हूं...

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर...

मैं एक ख़ुशमिजाज़ इंसान हूं। खुलकर हंसना पसंद करती हूं, सबसे गपशप कर लेती हूं, लोगों पर विश्वास करती हूं। नए-नए लोगों से मिलती हूं... उनकी कहानियां सुनती हूं और सुनकर उन्हें अपने लफ़्ज़ों में बयां करती हूं।
 
दरअसल, यह मेरा पेशा भी है। मैं एक रिपोर्टर हूं। पिछले 17 साल में मुश्किल से मुश्किल दर्दभरी कहानियां मैंने रिपोर्ट की हैं। उन लड़कियों की, जो अपने घर में ही महफ़ूज़ नहीं थीं। जिनके साथ उनके पिता ने ही यौन बदसलूकी की। उन माताओं की जो सबकुछ जानती थीं, लेकिन कुछ नहीं कहती थीं। उन लड़कियों की भी जो कॉलेज में पढ़ती थीं और जिन्हें उनके अपने साथियों ने ही धोखा दिया।
 
यही नहीं, लड़की होने के नाते क्या कुछ झेलना पड़ता है, इससे भी अनजान नहीं हूं। सुनने में भद्दा लगता है, लेकिन लड़कियों को छेड़खानी सहने की आदत सी हो जाती है। बचपन से सिखाया जाता है कि अगर कोई सीटी बजाए, तो कुछ बोलना नहीं, बस उस अगली बार से रास्ते से जाना नहीं। मैं दिल्ली जैसे महानगर में पैदा और बड़ी हुई हूं, फिर भी मुझे भी सीटी सुनने की और चुपचाप रास्ता बदल लेने की आदत सी हो गई है।
 
तो मैं एक खुली दुनिया की नागरिक हूं। जिन कहानियों का ऊपर ज़िक्र किया है, उनके हर तरह के किरदार से मिली हूं, उनका पक्ष सुना है... लेकिन मैं कभी घबराई नहीं। कभी लोगों पर विश्वास करना बंद नहीं किया, लेकिन बीते एक महीने में मेरे साथ दो ऐसे वाकये हुए, जिन्होंने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि क्या मैं लोगों से ज़्यादा खुलकर बात करती हूं? क्या सब पर जल्दी ऐतबार कर लेती हूं? क्या मुझे अपना व्यवहार बदल लेना चाहिए।
 
इन दो वाकयों ने मुझे हिला दिया। पहला वाकया दिल्ली की सड़कों पर हुआ तो दूसरा बिल्कुल घर में। पहले में एक अजनबी से वास्ता पड़ा, तो दूसरे में एक ऐसे इंसान से, जिसे मैं पिछले तीन साल से जानती हूं और जो हमारे परिवार के लिए पिछले कई सालों से काम कर रहा है।
 
मुझे पैदल चलना बहुत पसंद है। अक्सर मेट्रो स्टेशन से उतर पैदल टहलते हुए घर लौटना अच्छा लगता है। मेरा घर मेट्रो स्टेशन से दो किलोमीटर दूर है। एक शाम मैं घर जा रही थी कि मैंने एक नौजवान को उसकी स्कूटी पर बैठे देखा। उसके हाथ में टेनिस रैकेट था।
 
कुछ 500 मीटर चलने के बाद मैंने उसे फिर आगे खड़े देखा। इस बार मैंने चलते-चलते उसका चेहरा देखने की कोशिश की। फिर उसको पारकर मैं आगे चली गई, लेकिन कुछ दूरी पर वह फिर नज़र आया। इस बार मैंने अपना रास्ता बदल लिया और सड़क के दूसरी तरफ़ चलने लगी।
 
मैंने सोचा था कि अब मैं आसानी से घर पहुंच जाऊंगी, लेकिन मैं ग़लत थी। उसने अपनी स्कूटी स्टार्ट की और दूसरी तरफ़ आ गया। मैं दोबारा दूसरी तरफ़ चली गई और वह फिर से उसी तरफ़ आने लगा। उससे बचने के लिए क़रीब 250 मीटर मुझे भागना पड़ा। उस दौरान मुझे वह सारी डरावनी कहानियां याद आ रही थीं जो अपनी रिपोर्टिंग के दौरान मैंने कवर की थीं। मैं बुरी तरह डरी हुई थी। इस किस्से ने मुझे इस हद तक बदल दिया कि अगर कभी मेट्रो से सफर करती हूं तो स्टेशन से उतरकर ई-रिक्शा ले लेती हूं।

लेकिन, दूसरा किस्सा और डरावना है, क्योंकि उसमें एक ऐसा शख़्स शामिल है, जिसे मैं कई सालों से जानती हूं। वह मेरे परिवारवालों के सभी घरों में पेंट और पॉलिश का काम करता था। मेरे घर पर भी वह तीन साल से काम करता रहा था। कभी मैंने उसे शक की निगाह से नहीं देखा, लेकिन हाल ही में उसके आसपास होने से मुझे अजीब सा डर लगने लगा था, लेकिन मैं उसे नज़रअंदाज़ करती रही।
 
एक दिन सुबह-सुबह वह मेरे घर पर गमलों को रंगने के बहाने आ गया। जब मैं उससे बात कर रही थी, तभी वह मेरी ओर झपटा। क़िस्मत अच्छी थी कि मैं जल्दी से उछलकर टेबल के दूसरी तरफ़ चली गई। मैंने चीखकर उसे घर से बाहर जाने को कहा और जल्दी से दरवाज़ा बंद कर लिया, लेकिन इस वाकये से मेरा खुद पर से विश्वास उठ गया।
 
मैं अपने आप पर शक करने लगी... क्या मैं लोगों से ठीक ढंग से बात नहीं करती हूं? क्या मैं उन पर जल्दी विश्वास कर लेती हूं? क्या जो कुछ मेरे साथ घटा, उसके लिए मैं ज़िम्मेदार हूं? मुझे याद है कि ऐसी कई ख़बरें मैंने रिपोर्ट की हैं, लेकिन जब ख़ुद के साथ कुछ होता है तो जैसे सब वस्तुनिष्ठता ख़त्म हो जाती है।
 
मैंने इस पर बहुत सोचा। लगा कि ख़ुद को बदल लूं। फिर कुछ दिन बाद मैं लोगों को शक की निगाह से देखने लगी। उनके साथ मुस्कराने से पहले भी और बात करने से पहले भी। अपने आप पर इल्ज़ाम लगाने लगी कि शायद मैं ही लोगों को ग़लत सिग्नल दे रही होऊंगी, तभी अपने आप को इस तरह की ख़तरनाक परिस्थिति में पा रही हूं।
 
मैंने इंफ़ोसिस में काम करने वाली स्वाति के बारे में भी सोचा। उसका भी एक लड़का पीछा करता था। स्वाति ने इस बारे में अपने दोस्तों से बात भी की थी, लेकिन उसने एहतियात नहीं बरती, जिसके कारण उसे अपनी ज़िंदगी खोनी पड़ी।
 
लेकिन कोलकाता में उबर कैब में जो हादसा एक लड़की के साथ हुआ, उसने मुझे दोबारा सोचने पर मजबूर किया। उसने समय पर एक्शन लिया और वह बच गई।
 
मैंने भी तय किया कि अब ख़ुद को मज़बूत और महफ़ूज़ बनाऊंगी। मैंने ख़ुद को समझाया कि गलती मेरी नहीं है। मेरा शालीन और आत्मीय व्यवहार किसी को यह इजाज़त नहीं देता कि वह मेरे साथ ऐसी हरकत करने की कोशिश करे... सड़क पर मेरा पीछा करे और घर में मुझ पर हमला करे। यह गलती उन लोगों की है, जिन्होंने मेरे व्यवहार का गलत मतलब निकाला।
 
दरअसल, किसी के साथ भी.. कहीं भी, कुछ भी हो सकता है। इन दो वाकयों के कारण मुझे अपना व्यवहार बदलने की ज़रूरत नहीं- न ही अपने जीवन में कड़वापन लाने की है। बस सावधान रहने की ज़रूरत है और अपने भीतर सोए हुए उस लड़कीपन को निकाल फेंकने की है, जिसकी वजह से अचानक ऐसा वाकया मुझे इतना कमज़ोर कर सकता है कि मैं एक फोन तक नहीं कर सकती। जबकि मुझे मालूम है, मेरे एक फोन से कितने सारे लोग मेरी मदद के लिए खड़े हो सकते हैं... इनमें कुछ ऐसे लोग भी हैं जो दिल्ली की सत्ता और व्यवस्था केंद्रों में सबसे ज़्यादा अहमियत रखते हैं।
 
मैं एक खुशमिज़ाज शख़्स हूं और भरोसा कीजिए बनी रहूंगी... हां, यह आत्मविश्वास फिर से हासिल करना चाहूंगी कि आगे ऐसा कुछ घटे तो तनी रहूंगी और प्रतिरोध करूंगी... ज़रूरी कार्रवाई भी।

नीता शर्मा एनडीटीवी इंडिया में कार्यरत हैं...

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