रिपोर्टर की डायरी : गुस्सा, बेरुख़ी और बदसलूक़ी...कश्मीर

रिपोर्टर की डायरी : गुस्सा, बेरुख़ी और बदसलूक़ी...कश्मीर

श्रीनगर की सड़कों पर रेंगती हुई ज़िंदगी रफ़्तार पकड़ना चाहती है लेकिन उसे ख़ौफ़ है. ख़ौफ़ है उस मुख़ालफत का जो सड़कों पर पिछले तीन महीनों से दिखाई दे रही है. घाटी में इस इस हफ़्ते रिपोर्टिंग करते हुए इसकी मैं भी शिकार बनी, उस बेरुख़ी, उस ग़ुस्से और उस बदसलूकी की शिकार.

अपने जीवन में जो गालियां मैंने कभी नहीं सुनी वो मुझे पड़ी. देने वाला कोई और नहीं एक कश्मीरी नौजवान था जिसके साथ उसके कुछ और साथी भी थे. उरी हमले के दो दिन बाद मैं डल गेट पर शूट कर रही थी तभी कुछ नौजवानो ने मुझे घेर लिया. मेरे कैमरामैन को धक्का देने लगे और पूछने लगे की उसने क्या तस्वीरें ली है. मैंने उन्हें समझाया कि हमने उनकी तस्वीर नहीं ली हैं, सड़क पर खड़ी सीआरपीएफ की तस्वीरें ली है.
 


लेकिन वो भीड़ नहीं मानी तभी उन में से एक नौजवान ने गाली देनी शुरू कर दी. ऐसी गालियां जो मैंने कभी अपने लिए नहीं सुनी. मैंने उस से कहा जब हमने उसकी तस्वीर ही नहीं ली तो वो क्यों गाली दे रहा है तब उसका साथी भी कश्मीरी में कुछ कहने लगा. मैं और मेरे कैमरामैन जल्दी से गाड़ी में बैठे और वहां से जब निकालने लगे तो उन लोगों ने हमारी गाड़ी रोक ली. वे कश्मीरी में मेरे ड्राइवर से बात करने लगे . अब थोड़ी बहुत कश्मीरी मैं भी समझने लगी हूं, ध्यान से सुनने पर समझ आया की पुछ रहे थे कि क्या वे हमारी गाड़ी के शीशे तोड़ दे. शीशे तोड़ भी देते लेकिन पास ही सीआरपीएफ़ का नाका था इसीलिए हम बच गए. 

लेकिन उन नौजवानों ने हमें धमकी ज़रूर दी कि अगर अगली बार हम उस गली से निकले तो पक्का हमारी  गाड़ी के शीशे तोड़ दिए जाएंगे. मेरे ड्राइवर ने भीड़ से हाथ जोड़े और वहां से निकल आया. हालांकि मीडिया को गाली खाने की आदत होती है लेकिन मैं इस क़िस्से का इसीलिए उल्लेख कर रही हूं क्यूंकि मैं मानती हूं की कश्मीरी तहज़ीब के पक्के होते हैं. ख़ासकर महिलाओं को काफ़ी इज़्ज़त देते हैं और कश्मीर की ये बदसलूकी मैंने पिछले दस साल में कभी नहीं देखी थी. 
 

वहां से निकल मैं डल लेक की बुलवार्ड की और गई. वहां रोड पर कई सब्ज़ी बेचने वाले बैठे देखे. उनसे बात करने की हिम्मत जुटाकर मैं गाड़ी से दुबारा उतर गई. यहां सबकी एक राय थी की वे भी इस रोज़ रोज़ के बंद से तंग आ चुके है. अपनी ज़िंदगी दुबारा जीना चाहते हैं लेकिन डरते हैं. सब्जी वाले ने कहा ‘हम छोटे लोग है रोज़ अगर कमाएंगे नहीं तो खाएंगे क्या इसीलिए ऐसे माहौल में भी ये सब्ज़ियां बेच रहे हैं. लेकिन अगर आप ये टीवी पर दिखायोइगे तो मुश्किल हो जाएगी क्यूंकि आजकल मस्जिदों से उन सब के नाम ऐलान किए जा रहे है जो हड़ताल में हिस्सा नहीं ले रहे हैं.’
लाल चौक की भी ये ही कहानी थी. "कुछ लोग रात को आते हैं और धमकी देते हैं की अगर दुकान बंद नहीं रही या हड़ताल में हिस्सा नहीं लिया तो वो हमें सबक़ सिखाएंगे," एक दुकान वाले ने कहा. ये कश्मीर का दहशत भरा चेहरा था जो उसके अपने ही देख रहे थे. 

रिपोर्टिंग करते हुए मैं श्रीनगर ही नहीं बल्कि बारामुला, सोपोर, कुलगाम, पट्टन और अनंतनाग जैसे इलाक़ों में गई वहां भी कई लोगों से बात की. लोगों में बेरुख़ी भी देखी और लाचारी भी. दरअसल ज़्यादातर हड़ताल का कैलेंडर फॉलो कर कर  के थक गए हैं. रास्ता चाहते हैं उस हड़ताल की साइकल से बाहर निकालने का लेकिन कैसे बाहर आए ये समझ नहीं आ रहा. हुर्रियत के कैलेंडर लगातार आ रहे हैं. हालांकि अब उनके अंदर भी कुछ बदलाव देखा जा रहा है. अब वो इतने कड़े नहीं है, शायद वे भी हालात से तंग आ चुके हैं.
 

इन सब के बीच मैंने लोगों में लाचारी भी देखी. मैं एक डरी हुई मां से मिली. ख़ुद वे डॉक्टर है, बेटा स्कूल में पढ़ता है लेकिन स्कूल नहीं जा पा रहा क्यूंकि हड़ताल के कारण कोई स्कूल खोल नहीं रहा है. अब यह मां सबसे पूछ रही है कि क्या उसके बेटे का एडमिशन किसी और शहर में साल के बीच में हो सकता है. जवाब मिला - मैं कई लोगों से मिली लेकिन कोई रास्ता नहीं निकल पा रहा है. अगर जम्मू में हो जाए तो मेरे लिए अच्छा है.

दरअसल ये लोग हेदरपोरा में रहते हैं, इस मौहल्ले की ख़ासियत ये है की यहां हड़ताल कैलेंडर निकालने वाले सयीद अली शाह गिलानी भी रहते हैं. डॉक्टर ने बताया कि उनका घर हमारे घर से कुछ दूर ही है इसीलिए आप कहीं नहीं जा सकते जब हड़ताल होती है. ऐसे उदास क़िस्से कश्मीर के हर मोहल्ले में है. लेकिन  अब वह अपनी कहानी भी किसी से बांटना नहीं चाहते.  निराशा शायद इसी को कहते हैं.

यह कहना ग़लत नहीं होगा की  कश्मीर में हर शख़्स परेशान है, हर के माथे पर शिकन है और हर कोई वह रास्ता खोज रहा है जिससे वे उन बन्द गलियों बन्द दुकानों से और पत्थरों से निजात पा सके. वैसे भी कश्मीर में मौसम बदल रहा है उम्मीद की जानी चाहिए की चिन्नार के पत्तों के रंग के साथ साथ घाटी के पहाड़ों की उदासी भी ख़त्म हो जाएगी.

नीता शर्मा एनडीटीवी इंडिया में कार्यरत हैं.

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