निर्भया के बाद कानून में बहुत कुछ बदला होगा, लेकिन समाज कतई नहीं बदला...

निर्भया के बाद कानून में बहुत कुछ बदला होगा, लेकिन समाज कतई नहीं बदला...

निर्भया कांड के बाद देशभर में काफी आक्रोश फैल गया था और जगह-जगह प्रदर्शन हुए थे

"अगर आप अपने साथ हो रहे बलात्कार का विरोध नहीं कर सकतीं, तो उसका लुत्फ उठाइए..." यह पुरुषवादी वाक्य जब भी सुनती हूं, सोच में पड़ जाती हूं कि कैसे अब भी हमारे आस-पास के लोग रेप या बलात्कार जैसे शब्द का इस्तेमाल इतनी आसानी से कर लेते हैं... और कई बार तो यह काम वे पुरुष करते हैं, जो खुद को बेहद 'जेंडर सेन्सिटिव' बताते हैं, लेकिन शायद वास्तव में संवेदनशील बनने में उन्हें अभी काफी वक्त लगेगा...

हाल ही में मेरे कुछ दोस्त इसी मुद्दे को लेकर मज़ाक़ में कुछ कह बैठे, लेकिन मेरा चेहरा देखकर उन्हें समझ आ गया कि उन्होंने वह वाक्य बोलकर गलती कर दी है, और सबने मुझसे माफी भी मांग ली... उस समय मैं चुप तो रही, लेकिन सोच में पड़ गई... बात भले ही शर्मनाक है, लेकिन भी सच है कि आज भी हमारे समाज में पुरुष रेप जैसे भयानक जुर्म को संजीदगी से नहीं लेते...

रेप किसी भी लड़की के लिए गाली है, जिसका इस्तेमाल मज़ाक़ में भी नहीं किया जाना चाहिए... रेप सिर्फ शरीर का उत्पीड़न नहीं, मन और पूरे वजूद पर हमला है... आज मैं यह सब इसीलिए लिख रही हूं कि जंतर-मंतर से गुज़रते हुए मुझे निर्भया कांड की याद आ गई... उस भयानक वाकये के चार साल पूरे हो गए हैं...

दिल्ली में अक्सर गैंगरेप की ख़बरें सुर्ख़ियां बनती ही रहती हैं... जब 16 दिसंबर, 2012 को इस गैंगरेप का मामला सामने आया तो पहले यही लगा, यह भी अन्य मामलों की तरह ही होगा, लेकिन जब एक रिपोर्टर के तौर पर मैं उस कहानी से जुड़ी, तो समझ आया कि जो निर्भया के साथ हुआ, वह कई मायनों में बहुत अलग था, और दर्दनाक भी...

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जिस हैवानियत के साथ उसके साथ गैंगरेप किया गया था, उसे आज तक कोई कहानी बयान नहीं कर पाई है... न कोई कहानी उसके माता-पिता का दर्द बता पाई है... मैंने भी कई कहानियां उस समय कीं... क्या हालात रहे होंगे...? क्या हुआ था...? लड़कियां शहरों में कितनी सुरक्षित हैं...? महिलाओं को सुरक्षित कैसे बनाया जाए...?

इनके अलावा मैं उस मूल कहानी के सभी पहलुओं - पुलिस की तफ्तीश, लोगों का गुस्सा और निर्भया के मां-बाप की बेबसी से जुड़ी... मुझे तब समाज पर बहुत गुस्सा आया था, जिसने सड़क पर अर्द्धनग्न पड़ी एक लड़की पर चादर डालने की ज़हमत भी नहीं उठाई... आज भी महिपालपुर की उस सड़क से गुज़रती हूं, तो वहां रहने वालों को ध्यान से देखती हूं, और मन में सोचती हूं - आख़िर क्यों इन्होंने उस लड़की की मदद नहीं की...

जुर्म की दुनिया में जिसे 'बाईस्टैंडर इफेक्ट' कहा जाता है, क्या ये लोग उसके शिकार थे...?

उस लड़के से मैं ज़्यादा खफा हुई थी, जो निर्भया के साथ था और उसका बचाव नहीं कर सका... पुलिस की मानें तो जब निर्भया का रेप हुआ, वह खुद को बचाने के लिए बस की सीट के नीचे छिप गया था...

लेकिन आज भी मुझे यह कहते हुए दुःख होता है कि तब से अब तक ज़्यादा कुछ नहीं बदला... वैसे कानून की नज़र से देखा जाए तो काफी कुछ बदला है, लेकिन अगर एक महिला की तरह देखूं, तो शायद कुछ भी नहीं...

आज मैं यह भी मानती हूं कि निर्भया अपने दर्द के लिए खुद ज़िम्मेदार थी... ऐसा इसलिए, क्योंकि वह अपने साथ मौजूद उस लड़के पर भरोसा कर उस खाली बस में बैठ गई - बिना सोचे-समझे कि आखिर नतीजा क्या हो सकता है...

वैसे, हम लड़कियों में भगवान ने सेन्सिंग एबिलिटी कुछ ज़्यादा दी है... हम अपने आस-पास के ख़तरे को अक्सर भांप लेती हैं, जान जाती हैं कि किसी का स्पर्श कैसा है, नज़र कैसी है... लेकिन जब कोई पुरुष साथ होता है, तो हम उस पर निर्भर हो जाती हैं...

लेकिन हम क्यों यह अपेक्षा रखती हैं कि हमारे साथ जो पुरुष है, वह हमारी रक्षा करेगा... शायद इसकी वजह बचपन से दी जाने वाली शिक्षा है कि पहले पिता और भाई और फिर पति ही हमारे रक्षक हैं... लेकिन इसे बदलने की ज़रूरत है... जब तक हम खुद अपनी रक्षा करना नहीं सीखेंगे, तब तक लड़के भी हमारी इज़्ज़त करना नहीं सीखेंगे...

नीता शर्मा NDTV इंडिया में कार्यरत हैं...

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