रिश्तेदार नहीं, रिश्तों पर भरोसे का ‘रंग’...

रिश्तेदार नहीं, रिश्तों पर भरोसे का ‘रंग’...

नाटक ‘टुकड़े-टुकड़े धूप’ में काजल शुएस और सिद्धार्थ भारद्वाज.

भारत से विदेशों में जाकर बसने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. इसके परिणाम स्वरूप पारिवारिक विघटन भी बढ़ रहा है. विदेशों में स्थाई रूप से जा बसे लोगों के मां-बाप एकाकी जीवन जीने और बुढ़ापे की परेशानियों को झेलने के लिए मजबूर होते हैं. उन्हें अंतिम समय में कोई अपना पानी देने वाला भी नहीं होता. इस त्रासदी पर केंद्रित नाटक ‘टुकड़े-टुकड़े धूप’ का मंचन भरतमुनि रंग उत्सव के तहत बुधवार को दिल्ली के श्रीराम सेंटर में  किया गया.

इसके अलावा तीन अन्य नाटक ‘अभिनय से सत्य तक’, ‘पत्ते सूखे पेड़ हरा’ और ‘सपना मेरा यही सखी’ का प्रदर्शन भी इसी दिन किया गया. इनमें से दो प्रस्तुतियों में विषय रंगमंच ही था. इन प्रस्तुतियों में मंच पर बहुत सामान्य छोटे सेट लगाए गए, संगीत का संतुलित प्रयोग किया गया, लेकिन सभी नाटकों में कलाकारों ने दर्शकों को प्रभावित किया.    

कुल दो पात्रों के नाटक  ‘टुकड़े-टुकड़े धूप’ में पति-पत्नी का संवाद है जिसमें उनका एकाकीपन, पुत्र के विदेश में जा बसने, उसके संबंधों में भी दूरी बना लेने वाले व्यवहार को लेकर बूढ़े दंपति के मन में घर करने वाले अवसाद की गांठें क्रमश: खुलती जाती हैं. संवेदनाओं के अलग-अलग रंग सामने आते हैं. वे हालात को लेकर रोना रोते हैं तो, यादों को ताजा करके खुश भी हो लेते हैं. अपने अंतिम समय को लेकर चिंतित होते हैं तो भविष्य में बेटे की घर वापसी की आशा में उल्लसित भी हो जाते हैं. खुदकुशी की कोशिश करते हैं तो दूसरे ही पल इस कायराना मनोभाव से छुटकारा भी पा लेते हैं. अंत में वे तय करते हैं कि उनका बेटा यदि उन्हें भुला सकता है तो वे उसे क्यों नहीं भुला सकते? वे उन संबंधों को बनाने का नया रास्ता निकालते हैं, जो खून के रिश्ते से नहीं हैं. आस-पड़ोस के इन्हीं रिश्तों में अपनेपन का सुख और सुखद बुढ़ापे की उम्मीदों से नाटक खत्म होता है. जयवंत दलवी के चर्चित नाटक ‘संध्या छाया’ की कहानी भी यही है लेकिन उसमें बूढ़े दंपति की आत्महत्या के साथ नाटक का अंत होता है जबकि इसमें नई आशाओं के साथ अंत होता है.

रजनीश कुमार गुप्ता द्वारा लिखे गए इस नाटक का निर्देशन काजल शुएस ने किया. इसमें पत्नी की भूमिका में स्वयं काजल शुएस और पति के रूप में सिद्धार्थ भारद्वाज मंच पर थे. नाटक में दोनों का अभिनय शानदार था. प्रकाश प्रभावों ने प्रस्तुति को बेहतर बनाया. यह जिम्मेदारी पंकज चुघ ने निभाई. इसके अलावा सेट सहित बैक स्टेज के अन्य दायित्व आशुतोष शुक्ला और राहुल शर्मा ने निभाए.

 
अभिनय से सत्य तक का एक दृश्य.

परम्परा से हटकर नाट्य प्रस्तुति
दो नाटक जहां दो पात्रीय थे वहीं दो एक पात्रीय (सोलो) थे.  इनमें से ‘अभिनय से सत्य तक’  ऐसा नाटक है जो परम्परा से कुछ हटकर है. मनोज मिश्रा द्वारा रचित, निर्देशित इस नाटक में उन्होंने खुद एक्ट किया. यह एकल नाटक था जिसमें मनोज दर्शकों से संवाद करते रहे. स्टेनलॉवस्की, ब्रेख्त के नाट्य सिद्धांत और उनके बीच भरत मुनि का नाट्य शास्त्र... इन्हीं मान्यताओं का विश्लेषण करते हुए मनोज पश्चिमी रंग शैलियों से लेकर बिहार के पारम्परिक रंगमंच तक को मंच पर लाए. नाटक का अंत सूफी शैली के नृत्य से हुआ. नाटक में जहां मौजूदा राजनीतिक हालातों पर व्यंग्य हुए वहीं सूफी सिद्धांतों पर निराकार का अहसास कराया गया. सेक्स को लेकर भी उन्होंने आम धारणाओं का व्यंग्यात्मक लहजे में जिक्र करते हुए उससे शरीर में नाभि, मूलाधार चक्र और समाधि का संबंध बताया. मनोज मिश्रा ने प्रस्तुति के दौरान मंच पर ही कई बार कपड़े बदले. वैसे उनकी यह प्रस्तुति कुल ढाई घंटे की है लेकिन इस उत्सव में समय की बाध्यता के कारण इसे उन्होंने संपादित करके एक घंटे में ही खत्म किया.   
 
अभिनय से सत्य तक में मनोज मिश्रा.

स्त्री स्वतंत्रत्रा और समाज
दूसरा एक पात्रीय नाटक था ‘सपना मेरा यही सखी’. जिसमें अंजली ढाका की इस प्रस्तुति में निर्देशक वह स्वयं हैं. यह नाटक मीरा सहित उन तमाम स्त्रियों पर केंद्रित है जिन्होंने सांसारिकता का परित्याग करके ईश्वर से प्रेम किया. मंच पर एकल संवाद करते हुए अंजलि अपनी वेशभूषा में आंशिक बदलाव करके प्रतीकों का इस्तेमाल करके अलग-अलग पात्रों के रूप में सामने आती रहीं. वे इतिहास में मौजूद महिलाओं को उद्धृत करते हुए तत्कालीन हालात के विश्लेषण भी कर रही थीं.
 
सपना मेरा यही सखी का एक दृश्य

रंग कलाकार की त्रासदी
प्रस्तुतियों की शुरुआत नाटक ‘पत्ते सूखे पेड़ हरा’ से हुई. जावेद समीर द्वारा निर्देशित इस नाटक में दो पात्र हैं, जो कि पिता और पुत्र हैं. इस नाटक का विषय रंगमंच ही है. नाटक थिएटर को प्रोफेशन बनाने वाले कलाकारों की त्रासदी पर आधारित है. एक नाट्य कलाकार के लिए जहां रोजीरोटी जुटाना मुश्किल है वहीं उसे परिवार व समाज  में भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता. कलाकार पुत्र और उसके भविष्य को लेकर चिंतित पिता का द्वंद्व इस नाटक में है. हालात के आगे मजबूर कलाकार अंतत: एक सेठ के घर में कुत्ते का वेश रखकर रात में भौंकने की नौकरी करता है. पिता को नहीं मालूम कि वह क्या करता है लेकिन वह खुश हो जाते हैं कि उनका बेटा अपने पैरों पर खड़ा हो गया. ‘पत्ते सूखे पेड़ हरा’ में पुत्र के रूप में ताशा जायसवाल और पिता की भूमिका में दिलीप गुप्ता मंच पर आए. दिलीप बीच में ताशा के एक मित्र के रूप में भी दिखाई दिए. दोनों कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया.  
 
नाटक पत्ते सूखे पेड़ हरा में ताशा जायसवाल.

साहित्य कला परिषद, दिल्ली का आयोजन भरतमुनि रंग उत्सव 17 अक्टूबर को शुरू हुआ है और 21 अक्टूबर तक चलेगा. इसमें प्रतिदिन चार नाटकों की प्रस्तुतियां हो रही हैं.

सूर्यकांत पाठक Khabar.ndtv.com के समाचार संपादक हैं.

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